तीन राज्यों में जीत से 2024 को लेकर आशंका बढ़ गई है!
2023 बीत चला। 2024 के कदमों की आहट अब तेज हो गई है। यह भी कहा जा सकता है कि भारत में 2023 एक तरह से अपनी ज़िंदगी जी नहीं पाया। 2023 का साल 2024 का या तो इंतज़ार था या उसकी आशंका। 2024 की छाया साल गुजरने के साथ 2023 पर लंबी होती गई है।‘ 2024 में क्या होगा?’, 2023 का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सवाल यही था।
2024 में ऐसा क्या ख़ास है? भारत के संदर्भ में बात करें तो यह लोक सभा के चुनाव का साल है।यह चुनाव तय करेगा कि संघीय सरकार बदलेगी या 10 साल पुरानी नरेंद्र मोदी नीत संघीय सरकार की ही एक और नई पारी शुरू होगी।लेकिन सरकार के बनने या बदलने का सवाल ही क्यों देश के लिए सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए? क्यों हमारी ज़िंदगी का हर पहलू सरकार कैसी है, इससे तय होना चाहिए?
इसका कारण यह है कि हमारे समाज की लगभग सारी प्रक्रियाएँ या संस्थाएँ एक तरह से सरकार पर निर्भर हैं। विश्वविद्यालय हों या न्यायालय या नौकरशाही, सरकार के बदलते ही उनका काम काम या रवैया बदलेगा, यह स्वाभाविक माना जाता है।पुलिस और अब तो सेना का बर्ताव भी सरकार के अनुसार ही तय होता है।इसका अर्थ यह है कि एक लोकतांत्रिक समाज में सांस्थानिक प्रक्रियाओं के स्वायत्त रहने के सिद्धांत की भारत में कदर नहीं है और उसका अभ्यास भी नहीं है। इसे लेकर कोई झेंप भी इन संस्थाओं में काम करने वालों को नहीं।
आम तौर पर माना जाता है कि सरकार के बदलने का प्रभाव समाज के हर तबके पर पड़ेगा। अगर वह कॉरपोरेट पूँजीवाद की पैरोकार है तो उसकी आर्थिक नीतियाँ समाज के हर तबके को प्रभावित करेंगी। वे हिंदू या मुसलमान पूँजीपति के पक्ष में होंगी और हिंदू या मुसलमान, साधारण जन के ख़िलाफ़ होंगी। लेकिन यह बात हर सरकार पर एक तरह से लागू नहीं होती। एक तरह की सरकार वह होती है जिसका जारी रहना समाज के ख़ास-ख़ास तबके के लिए दूसरे तबके के मुक़ाबले अधिक यातनाप्रद होता है। इसलिए उस तबके में सरकार बदलने की प्रेरणा जितनी बलवती होती है, उतनी दूसरे में नहीं।
भारत में पिछले 10 साल से जो सरकार है, उसकी नीतियों का प्रभाव हिंदू और मुसलमान तबकों पर एक-सा नहीं है। 10 सालों में भारत में मुसलमान और ईसाई किनारे पर धकेल दिए गए हैं। राज्य का उनके प्रति रुख़ स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण ही नहीं है, वह उनका प्रताड़क है। क़ानूनों, प्रशासकीय फ़ैसलों और कदमों से साफ़ है कि इन दोनों तबकों को बराबर का नागरिक नहीं माना जाता। सरकार हिंदुओं को यक़ीन दिलाने की कोशिश कर रही है कि पहली बार देश में उनकी अपनी सरकार बनी है। पहली बार भारत को वापस हिंदुओं के लिए हासिल किया जा रहा है। हिंदुओं की बड़ी आबादी को सचमुच ऐसा लग भी रहा है कि देश पर उनका क़ब्ज़ा हो रहा है। वह अयोध्या में बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर राम मंदिर हो या बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण, यह भ्रम सफलतापूर्वक फैलाया जा चुका है कि यह हिंदू जागरण का काल है। शिक्षा संस्थानों में भी भारतीय ज्ञान परंपरा के निरंतर जाप से हिंदू छात्रों और अध्यापकों को अहसास दिलाया जा रहा है कि भारतीयता, जो खो गई थी या किनारे कर दी गई थी, फिर से स्थापित की जा रही है।
एक काल्पनिक पराजय का प्रतिशोध लिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के एक छात्र ने बतलाया कि हिंदुओं को अहसास दिलाया जा रहा है कि मुग़लों से मिली हार का बदला लेने का वक्त आ गया है। 1947 में सिर्फ़ अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली थी। अब सहस्रों वर्षों के मुग़ल या इस्लामी उपनिवेशवाद से और उसके अवशेषों से मुक्ति का समय है। यह एक लंबी ग़ुलामी से आज़ादी का मामला है, इसलिए इसमें वक्त लगेगा।
यह सरकार इसलिए साधारण सरकारों जैसी ही नहीं है। इसके पास एक बड़ा सांस्कृतिक दायित्व है। हिंदुओंका देश वापस उन्हें मिले, इसमें हिंसा भी होगी, सांसारिक कष्ट भी होगा। दुनिया में थोड़ी बदनामी भी होगी। लेकिन सब कुछ सहना होगा। इसके बदले जो हासिल होने वाला है, उसका मूल्य कहीं अधिक और स्थायी है।गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं ने जिस हिंदू राष्ट्र की स्थापना में 1947 में बाधा डाली, अब वह बना ही चाहता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि हिंदू राष्ट्र की इस परियोजना के सफल होने का अर्थ मुसलमानों और ईसाइयों पर हिंदुओं का वर्चस्व है। इन दोनों समुदायों को भारत की नियति तय करने का अधिकार न होगा।
हिंदुओं को वर्चस्व का यह सुख प्रदान किया जा रहा है। मुसलमानों के घर में घुसकर उनके खाने की जाँच, उनके पहरावे का नियंत्रण, सार्वजनिक स्थल में उनकी दृश्यता पर नियंत्रण, उनके धार्मिक रिवाजों का नियंत्रण, यह सरकार के साथ तरह तरह के हिंदू समूह भी करने के अधिकारी हो गए हैं। संघीय सरकार इन सबकी संरक्षक है।
ज़ाहिर है, इस व्यवस्था को बदलने के लिए जितनी बेचैनी प्रताड़ित समुदायों में होगी उतनी हिंदुओं में नहीं। उनके पूर्वजों की शालीनता और सभ्यता के लिए, जिसे धर्मनिरपेक्षता भी कहा जा सकता है, उन्हें कायर और मूर्ख ठहराया जाता है।हिंदुओं को ललकारा जाता है कि वे अहिंसा की मूर्खता न दुहराएँ।
इस परियोजना के अभ्यास के 10 साल होने को हैं। जैसे 2018 में इंतज़ार 2019 का हो रहा था कि यह हिंसा और क्रूरता बंद हो सकेगी अगर 2019 में सरकार बदल जाए उसी तरह 2023 में 2024 का इंतज़ार हो रहा है। लेकिन जैसा हमने लिखा, यह इंतज़ार एक-सा नहीं। एक बड़ा तबका 2024 की 22 जनवरी का इंतज़ार कर रहा है जब 30 साल पहले ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर एक राम मंदिर स्थापित हो जाएगा। अभी से उसकी तैयारियाँ चल रही हैं। यह हिंदू विजय का सबसे बड़ा प्रतीक है।लेकिन 2024 में ज्ञानवापी मस्जिद का क्या होगा? और मथुरा की मस्जिद का? सर्वोच्च न्यायालय ने उनके स्वरूप में हस्तक्षेप का रास्ता खोल दिया है। आगे क्या होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत से 2024 को लेकर आशंका बढ़ गई है। भारत जिस रास्ते पर चल पड़ा है, क्या वह उससे पलटेगा या उसकी चाल उसी राह पर और तेज हो जाएगी? इस सवाल का उत्तर अभी कोई नहीं दे सकता। लेकिन तो किसी को बतलाना ही होगा कि यह रास्ता एक खाई में जाता है। अगर उस राह पोलैंड, ऑस्ट्रिया,अर्जेंटीना जा रहे हैं तो यह वजह नहीं कि भारत भी उनकी नक़ल करे।