सियासत या दुकानदारी, पहले तय कीजिये
राजनीतिक दलों में क्या खिचड़ी पाक रही है, ये जानने से पहले ये तय किया जाना चाहिए की देश के सियासी दल सियासत कर रहे हैं या दुकानें खोलकर बैठे हैं ? सियासत तमाम लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की एक जरूरत रही है । जहाँ लोकतंत्र नहीं है वहां सियासत की बजाय साजिश चलती है। लोकतंत्र में सियासत करने के लिए बाकायदा पंजीकृत दलों का गठन किया जाता है। कुछ अपंजीकृत राजनितिक दल भी होते हैं। सभी को सियासत करने की छूट है। सियासी दलों को मिली यही छूट कालांतर में लूट में बदल गयी। देवयोग से सियासत अब दुकानदारी में तब्दील हो गयी है।
देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस है। कांग्रेस हमेशा से सत्ता की रेस का एक मजबूत अश्व रही है। कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए एक दशक हो चला है। कांग्रेस ने सत्ता में वापसी के लिए तमाम पापड़ बेले हैं और हारकर कांग्रेस ने जो दूकान खोली उसे ' मुहब्बत की दूकान ' कहा जाता है। कांग्रेस कहती है की देश में ' नफरत की दूकान ' के मुकाबले ' मुहब्बत की दूकान ' को खोला गया है। यानि अब खरीदार के पास ये विकल्प है की वो क्या खरीदे, मुहब्बत या नफरत ? हमने बचपन में सुना था कि ' यहां हर चीज बिकती है, कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे ?। हमारे पुरखे साहिर लुधियानवी जी को न जाने कैसे भनक लग गयी की इस मुल्क में हर चीज बिकने वाली है, इसलिए उन्होंने ये गीत 1958 में ही लिख दिया था । लता मंगेशकर को भी ये गीत गाने में कोई उज्र नहीं हुआ, क्योंकि उन्हें भी अहसास हो गया था की इक्कीसवीं सदी में सब कुछ बिकेगा।
और सचमुच आजकल सब कुछ बिक रहा है। दीन ईमान बिक रहा है । आदमी औरते, बच्चे, नेता, अभिनेता, कलाकार, पत्रकार, पण्डे ,मौलवी सब बिक रहे हैं। बस कीमत मन माफिक मिलना चाहिए। बिकवाली कि इस दौर में जो नहीं बिकता उसकी हैसियत भी मकान ,गली, कूचे और दीवार से ज्यादा नहीं है। जिसके हाथों में पैसा है वो हर चीज खरीद लेना चाहता है। मजरूह साहब को भी इस बात का अंदेशा था की इस दुनियया में, इस मुल्क में एक दिन सब कुछ बिकेगा। इसीलिए उन्होंने भी लिखा- 'हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह, उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह ।’
ये अंदेशे आज कि नहीं कोई आधी सदी पुराने हैं जो आज सबकी आँखों कि सामने हैं। आज दुनिया एक गांव है, एक बाजार है, ऐसे में अपने आपको बिकने से बचाना आसान काम नहीं। बात सियासी दुकानों की हो रही थी । सियासी दल दुकानों में तब्दील हो चुके हैं और अपना-अपना माल बेचना चाहते हैं। कांग्रेस कि पास मुहब्बत है ,भाजपा कि पास धर्म और जी 20 की कामयाबी। महाबली और विश्वगुरु का चेहरा। अब खरीदार कि ऊपर है की वो क्या खरीदना चाहता ह। दुकानदारों में एक अजीब से प्रतिस्पर्द्धा होती है। वे एक -दूसरे के माल को घटिया और अपने माल को बढ़िया बताते है। कोई गारंटी देता है तो कोई कम दाम पर अपना माल बेचता है । हर माल कि साथ कोई न कोई ऑफर होता है। बाजार में दुकानदार अपना माल बेचने के साथ दूसरों का माल भी खरीदते हैं। वोट बैंक खरीदते है। चुने हुए जन प्रतिनिधि खरीदते है। दल-बदलू नेता खरीदते हैं और तो और रिश्ते भी खरीदते हैं। अपनी याददाश्त में मैंने पहली बार देश में रिश्ते खरी और बेचे जाते हुए देखे है।
मेरे अपने सूबे में मुख्यमंत्री जी ने भाई बनकर सूबे की डेढ़ करोड़ बहनों का वोट खरीदने का करिश्मा कर दिखाया । वो भी मात्र एक हजार रुपया महीना का मुवावजा देकर। इतिहास में हमने और आपने पढ़ा होगा कि राजा -महाराजाओं की रानियों, महारानियों ने अपने पति की जान और सत्ता बचने के लिए राखी के जरिये भाई खरीदे लेकिन आज के दौर में कोई भाई अपनी सत्ता बचाने के लिए बड़ी तादाद में बहनों की राखी खरीद ले, ये अकल्पनीय है। इस खरीद-फरोख्त से हालाँकि हमारे सूबे की बड़ी बहना उमा भारती नाराज हैं लेकिन अब उनकी फ़िक्र किसे है ? सियासत अब लोक कल्याण की, लोक सेवा का औजार नहीं है। सियासत अब सत्ता की पुण्यसलिला है । इसमें डुबकी लगाकर आप कैसी भी वैतरणीय हो, पार कर सकते हैं। अब आपको वैतरणीय पार करने कि लिए गाय की पूछ पकड़ने की जरूरत नहीं है, इसके लिए आपके गले में किसी सियासी दल का दुपट्टा काफी है।
सियासी दलों कि दुपट्टे आजकल मुफ्त में मिलते हैं, साथ में प्रोत्साहन राशि तथा पद भी मिलते है। आपको मेरा यकीन न हो तो हमारे सूबे कि महाराज ज्योती बाबू से पूछ लीजिये। आने वाले दिन सियासी दलों की लिए बिकवाली का त्यौहारी सीजन हैं। मुल्क के पांच सूबों में विधानसभाओं कि चुनाव होना हैं ।
चुनावी मौसम में हर माल बिक जाता है, शर्त एक ही है की आपके पास वादों की पैकिंग आकर्षक हो। सारा खेल पैकंज और पॅकेज का है। जो इस सूत्र को समझ गया उसका कल्याण तय है। सियासत के कारोबार में सिर्फ पैकिंग और पैकेज से ही काम नहीं चलता । इसके लिए माननीय मोदी जी और माननीय राहुल गांधी जैसा सेल्समैन भी चाहिए। सियासी दलों की दुकानें उनकी हैसियत कि हिसाब से आकार लेती है। किसी कि पास पांच सितारा होटलों जैसे माल है। सदस्य्ता से लेकर दूसरे उत्पाद तक ऑनलाइन उपलब्ध हैं और किसी को सड़क पर आवाज लगा -लगाकर आवाज दे -देकर अपना माल खपाना पड़ रहा है । आपको शायद यकीन न हो लेकिन मै सच कह रहा हूँ कि मैंने दुनिया के तमाम बाजार देखे है। सभी में 'लोशन ' और इमोशन ' दोनों चीजें बिकतीं है। इसलिए हमेशा खरीदार को 'प्रिकॉशन ' बरतना चाहिए। ज़रा सी लापरवाही भारी पड़ सकती है।
दुनिया के बाजार में असली सेल्समेन को पहचानना आसान काम नहीं है, क्योंकि सेल्समैन पता नहीं किस वेश में और कहाँ आपसे टकरा जाये ! कोई सेल्समेन फकीर के वेश में हो सकता है तो कोई सेल्समेन एकदम कॉमनमैन के वेश में सफेद टीशर्ट और जींस पहने भी मिल सकता है। कोई आपको लच्छेदार बातों में उलझा सकता है तो कोई अपनी मासूमियत के बूते आपकी अंटी ढीली करा सकता है। किस के हाथ में धर्मध्वजा हो सकती है तो किसी के पास रेशमी रूमाल।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)