पद्मा सचदेव की शख्सियत ऐसी थी कि हर कोई कायल!
अलविदा पद्मा जी।
उन दिनों हम 'चौथी दुनिया' में थे, पूरे स्टाफ़ को निमंत्रण था, पद्मा जी के यहाँ रात्रि भोज पर। हस्बे मामूल अपनी आदत से मजबूर हम दफ्तर छोड़ कर निकल आये थे मंडी हाउस। भाई रंजीत कपूर या यम के
(रैना) का कोई प्ले था, उसे देखने। अभी वक़्त था सो हम श्रीराम सेंटर की कैंटीन में बैठ गए। इतने में किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा। पलट कर देखा तो पद्मा जी मुस्कुरा रही थीं।
-जल्दी आ जाना, टाइम पर
- कहाँ?
-संतोष (भारतीय) ने नहीं बताया, आज तुम सब लोंगो की पार्टी है, हमारे घर पर।
- हम तो पहले ही एक पार्टी में बुक हैं
- बकवास मत करो, कौन बुलायेगा तुम्हें?
- हमें कश्मीरी गुस्ताव खाना है, बहुत दिन हुए खाये हुए, यम के (रैना) के घर पार्टी है।
- बदमाशी नहीं, तुम्हें गुस्ताव मिल जाएगा।
उन दिनों पद्मा जी बंगाली मार्केट के प्रथम तल पर रहती थीं। इनके पतिदेव, भाई सुरिंदर सिंह मशहूर रहे क्लासिकल गायक के रूप में 'सिंह बन्धु' के नाम से। दोनों भाई साथ-साथ गाते थे, लेकिन माहिर थे ठहाका लगाने में। मजाक का खजाना। उसी रात्रि भोज का वाकया है- किसी ने यूँ ही पूछ दिया-
- आप गजल नहीं गाते?
- ना जी! बिल्कुल, छू नहीं सकता?
- क्यों?
- जगजीत की वजह से
- वो क्यों?
- गजल में आहिस्ता आहिस्ता होता है, किसी सरदार को देखा है, वह कभी, कुछ भी करना हो, आहिस्ता आहिस्ता करेगा?
-ये आहिस्ता क्या है?
-सुने नहीं हो? सरकती जाय है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता।
हंसी के ठहाके को पद्मा जी ने बालकनी का दरवाजा बंद करके रोका।
- ख्याल रखो यारो, पड़ोस में भी लोग रहते हैं।
...
कनॉट प्लेस में सभी रेस्टोरेंट महंगे हैं। हम अपनी एक महिला मित्र के साथ वहाँ पहुँचे और एक खाली टेबुल पर हम दोनों बैठ गए। क्या-क्या खाया जाए हम दोनों इसी के जद्दोजहद में लगे थे। उसकी पसन्द थी बटर चिकन, रुमाली रोटी और रायता। उसने मीनू कार्ड पर जोर से मारा और एलान किया। हमने विरोध किया- यार ये सब बकवास बनते हैं मसाला डोसा लिया जाय मजा आएगा।
- तुम्हारे पास पैसे नही हैं, पैसे में दूंगी
- नहीं यार सच कह रहा हूँ पैसे की कोई बात नहीं
- ठीक है ऑर्डर दे दो।
- एक मसाला डोसा।
लेकिन जब बैरा वापस आया तो बटर चिकन, रुमाली रोटी, रायता, सलाद। हम कहते रह गए कि यह हमारा ऑर्डर नहीं है, बैरा मानने को तैयार नहीं। बैरा चला गया। हमने वहीं से देखा सामने की टेबल पर हमारी तरफ़ पीठ किये बैठे भाई सुरिंदर सिंह अपने एक दोस्त
के साथ बैठे गपिया रहे हैं और खाये जा रहे हैं। हम समझ गए।
- भाई साब ! ये क्या किया आपने?
- खा लो, आइसक्रीम भी आएगी
- लेकिन ये तो ग़लत है
- उससे पूछो जिसने पुरष्कार दिया है
- किस को मिला है?
- पहले खा लो।
- इतने में ख़रीदारी करके लौटीं पद्मा जी हड़बड़ी में बोली- खा लिए हो तो चलो।
- उधर देखो कौन बैठा है, इनको कब निमंत्रित किया?
- हमने कब किया?
- नहीं किया तो भुगतान कर दो और हम लोग यहाँ से चलें।
- अब कोई पुरष्कार मत लेना, नहीं तो इसी तरह भुगतान करना होगा।
- ओके, एक, दो, तीन, चार। बैरा चार बड़े चाकलेट अलग अलग पैक कर दो।
यह थीं पद्मा जी और उनका माहौल।
…
वी पी सिंह की सरकार में जॉर्ज रेल मंत्री थे, हम जार्ज के सहायक थे। एक दिन एक फाइल आयी- रेलवे की हिंदी सलाहकार समिति। सौ के ऊपर नाम लिखे मिले। साहित्यकारों में मात्र एक नाम श्री नामवर सिंह जी का। बाद बाक़ी सब फर्जी। हमने लिस्ट देखा और उसे रोक लिया। दूसरी लिस्ट तैयार की और बोर्ड को भेज दिया। तब्दीली का बहुत दबाव बना लेकिन हम अड़े रहे गए। लिस्ट फाइनल होकर गजेट में लग गयी। इस हिंदी सलाहकार समिति में सबसे क़ीमती उप कमेटी होती है जो किताबों की खरीद कराती है। यही समिति किताबों का चयन करती है। इस समिति में हमने दो नाम दिए, एक भाई केदार नाथ सिंह और दूसरा पद्मा सचदेव जी का। इसका ज़िक्र हमने नामवर जी से किया बाक़ी किसी से कोई बात ही नहीं की।
- एक दिन पद्मा जी का फोन आया।
- तुम पर सरदार जी बहुत नाराज़ हैं
- वो क्यों?
- आफ़िस से सीधे घर आ जाना, वही बताएंगे।
शाम को उनके घर पहुंचा तो अच्छी भली महफ़िल लगी है, सरदार जी के चुटकुले और ठहाके चल रहे थे। हमें देखते ही भाई सुरिंदर सिंह उठ खड़े हुए- आओ मेरे दुश्मन! जिस मोकाम को हम आहिस्ता आहिस्ता हासिल करते उसे तुमने एक झटके में कर दिखाया।
- हुआ क्या?
-अच्छा काम दे दिया है तुम दोनों ने हमें। एक पल का चैन नहीं। अल सुबह से फोन की घण्टी, पद्मा जी हैं?
- हैं!
- बात कराओ
- नहीं कराऊंगा
- क्यों? कौन बोल रहे हो?
- वो दवा लेकर सोई हैं, हम उनके सेक्रेटरी, चपरासी, बावर्ची सब हैं। कई तो घर तक आ जाते हैं।
हंसी के ठहाके। रुका सुरिंदर भाई के सवाल से-
कुछ लोगे?
- क्या क्या मिलता है?
...
पद्मा जी लंदन से लौटी थीं। चेहरे पर अक्सर तनाव रहता। बात बात में दुखी हो जातीं। इसके पीछे जो वजह थी, वह था पाकिस्तान में मशहूर शिक्षा शास्त्री लेखक, व्यंग्यकार इब्ने इंशा की बिगड़ती तबियत। पद्मा जी इब्ने को भाई मानती थीं। दोनों की मुलाक़ात लंदन में हुई। पद्मा जी इब्ने इंशा को अनुवाद कर रही थीं। उन्हीं दिनों हमने इब्ने इंशा की मशहूर रचना 'उर्दू की आखिरी किताब' का रेखांकन पूरा किया था। राज कमल प्रकाशन ने उसे छापा था। उसकी बहुत चर्चा थी। पद्मा जी कई लोगों को वह किताब भेंट कर चुकी थीं।
आज जब पद्मा जी नहीं हैं उनका अनुवाद किताब की शक्ल में आपके सामने है-
दरवाजा खुला रखना।
अलविदा पद्मा जी!
(चंचल के फ़ेसबुक वाल से साभार)