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प्रेम की तरह जनतंत्र के लिए जगह बनानी होगी

प्रेम की तरह जनतंत्र के लिए जगह बनानी होगी

जनतंत्र में सभी विषयों पर खुलकर बात होनी जरूरी है। लेकिन क्यों हम कई जगहों पर कश्मीर पर बात नहीं कर सकते? क्यों संवाद का दायरा सिकुड़ रहा है?

एक कवि कितना महत्वपूर्ण होता है? उस पर आप कितना वक्त दे सकते हैं? पिछले हफ़्ते पटना में दो दिनों में क़रीब 200 लोग 6 घंटे तक अशोक वाजपेयी को सुनते रहे। पहले उनकी जीवन यात्रा, फिर साहित्य, कलाओं के बारे में उनके विचार और फिर उनकी गद्य रचनाओं के साथ उनकी कविताएँ। इस सुनने और सुनाने से क्या हुआ होगा? 

लाखों की आबादी वाले शहर में 200 कोई बड़ी संख्या नहीं। एक कवि और उसके श्रोताओं के बीच का यह संवाद शहर की चेतना के समंदर में कंकड़ फेंकने जैसा है। लेकिन लेखक और उसके समाज का संबंध कुछ ऐसा ही होता है। 

शहर में उसका होना कोई खबर नहीं। उसके आने पर ढोल बाजे के साथ स्वागत करने वाले झुंड में नहीं आते। वह अख़बार और टी वी के पहले पृष्ठ पर नहीं होता या होती। उसकी इस इतिहास प्रमाणित नगण्यता के बावजूद यह भी सच है कि समाज अपने कवि या लेखक से पहचाने जाने में ही गौरव का अनुभव करता है। या यह भी एक प्रकार का भ्रम है? 

अपने जीवन में कम से कम लेखक को यह भ्रम नहीं होता। वह रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डे पर बेपहचाना चाय पीता रह सकता है। प्रशंसकों की भीड़ उसे घेरती नहीं। उसे इसका मलाल भी नहीं।

लेखक या कलाकार कह लें, समाज में अपनी अवस्था के प्रति सजग न हो, ऐसा नहीं। लेकिन उसे बिना किसी अहमन्यता के यह अहसास भी होता है कि अपने शहर या देश के लिए वह अनिवार्य है। उसका कृतित्व उसके समाज को परिभाषित करेगा, उस समय के ताकतवर राजनेता नहीं, यह यक़ीन उसे है। 

क्या यह सच नहीं कि 19वीं सदी के रूस के लिए दोस्तोव्स्की या तुर्गनेव ही संदर्भ हैं और आरंभिक या बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के रूस को भी समझना हो तो आन्ना आख्मतोवा या पास्तरनाक, इसाक बाबेल या गोर्की को ही पलटना होगा, लेनिन के मुक़ाबले?

अशोक वाजपेयी के साथ पटना के साहित्य प्रेमियों का यह संवाद शहर एक बीच पुराने संग्रहालय और ऐतिहासिक सिन्हा लाइब्रेरी के क़रीब के इंड्रस्टीज़ एसोसिएशन हॉल में संपन्न हुआ। इस हॉल में 200 लोग इत्मीनान से, और 250 बिना बहुत परेशानी के अँट सकते हैं। लेकिन इस पर हमने बहुत सोचा कि यह कार्यक्रम करें कहाँ! 

एक समय हम पटना कॉलेज के सेमिनार हॉल में गोष्ठियाँ किया करते थे। पिछले कुछ समय से दिल्ली, बेंगलुरू या हैदराबाद से प्रतियोगिता के भ्रम में पटना में मेट्रो की परियोजना शुरू हुई है, उसने पटना विश्वविद्यालय तक ले जाने वाली सड़क, जो पटना की मुख्य सड़क है, यानी अशोक राजपथ, उसपर चलना और कहीं वक्त से पहुँचना एक रोमांचक और दुस्साहसिक अनुभव में बदल दिया है। 

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इसके अलावा यह भी सच है कि पटना विश्वविद्यालय में अब क़ायदे का कोई सभागार नहीं है तो उसका  ख़याल तर्क कर दिया गया। हालाँकि अगर हम छात्रों की भागीदारी चाहें तो इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता था कि कार्यक्रम वहीं करें।

एक वक्त था, जब आबिद रज़ा बेदार ने ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी में सभागार बनाया तो हम उसमें  गोष्ठियाँ या अन्य कार्यक्रम करने लगे। जब वे लाइब्रेरी के निदेशक थे, लाइब्रेरी एक जीवंत सांस्कृतिक केंद्र में बदल गई थी। बाद के निदेशकों ने सोचा कि यह तो लाइब्रेरी है, बाक़ी गतिविधियों की इसमें क्या जगह! उसके बाद गाँधी मैदान के एक कोने पर गाँधी संग्रहालय और अनुग्रह नारायण सामाजिक अध्ययन संस्थान के हॉल भी ध्यान में आते हैं। 

लेकिन गाँधी संग्रहालय ने इस भ्रम में कि सबको कष्ट देना ही गाँधीवाद है, अपने हॉल में कुर्सियों का कोई इंतज़ाम नहीं रखा। अब जाने क्या हाल है! 

महंगा होता किराया 

ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के  हॉल का इस्तेमाल हम लंबे अरसे तक करते थे। वहाँ तीन आकारों के सभागार थे। कोई 28 साल पहले जब अशोक वाजपेयी को हमने पटना बुलाया था तो यहीं उनसे बातचीत हुई और उनकी कविताएँ सुनी गईं।

यकायक इसका किराया इतना बढ़ा दिया गया कि हम जैसों के लिए वहाँ कुछ भी करना मुमकिन न रहा। तारामंडल के हॉल का किराया भी इतना अधिक है कि उसमें कविता पढ़ना अश्लील जान पड़ता है। पहले साहित्य सम्मेलन के हॉल में भी गोष्ठियाँ हुआ करती थीं लेकिन वह आहिस्ता-आहिस्ता अलग-अलग नुमाइशों के लिए इस्तेमाल होने लगा और पटना के बेढंगे ट्रैफ़िक के कारण वहाँ पहुँचना बहुत सुविधाजनक भी नहीं रह गया। 

पटना जैसी जगह में हम जैसों की औक़ात के भीतर के सभागार की ऐसी कमी क्या विचारणीय भी है? पटना के केंद्रीय स्थान पर रेडियो स्टेशन के क़रीब कभी विधान परिषद के सभापति जाबिर हुसैन का बँगला हुआ करता था। उन्होंने एक विचित्र सा लगनेवाला काम किया। उस बँगले को एक सांस्कृतिक परिसर में बदल दिया। विभिन्न आकारों के सभागार, कला दीर्घा और शहर में शोधकार्य या अन्य कारणों से आने वालों के लिए अतिथि गृह। लेकिन नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के बाद उसमें एक प्रबंधन संस्थान खोल दिया। हाल में दीखा कि वहाँ पटना समहारणालय की तख़्ती लगी हुई है। यानी वह बनते ही संस्कृतिकर्मियों से छीन लिया गया।

फिर गाँधी के नाम पर सरकार ने एक हॉल बनाया। उसका किराया भी इतना रख दिया कि अब उसमें गाँधी का नाम जाप ही किया जा सकता है। 

अशोकजी के साथ यह संवाद कहाँ रखें कि हर तरफ़ से लोग आ सकें, यह एक चिंता थी। दूसरी कि विद्यार्थियों की भागीदारी ज़रूर हो। विद्यार्थियों की भागीदारी में छात्राओं का होना मुश्किल अलग है। वे शाम को कैसे दूर आएँ? इस बार पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष तरुण कुमार ने छात्राओं के अभिभावकों को पत्र लिखकर उन्हें गोष्ठी में आने की अनुमति देने का अनुरोध किया। 

कहीं आप यह न मान बैठें कि यह पटना और बिहार के पिछड़ेपन का प्रमाण है इसलिए कहना ज़रूरी है कि यह दिल्ली की समस्या भी है। मेरी छात्राओं ने कई बार शिकायत की है कि शाम के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकतीं। यह मसला कितना पुराना है! मुझे 40 साल पहले के इप्टा के दिन याद आए।

हमेशा रिहर्सल के बाद महिला अभिनेत्रियों के रिक्शे की निगरानी करने साथ में साइकिल पर लड़के भेजे जाते थे। 

तरुणजी ने कहा कि यह ठीक है कि परिसर से बाहर शहर से विद्यार्थियों का संपर्क हो। इसलिए उनके लिए सुविधाजनक भले ही परिसर होता, परिसर से बाहर आना भी विद्यार्थियों को गुण ही करेगा। कष्ट भले हो, उन्हें शहर से मिलते रहना चाहिए।

कश्मीर पर चर्चा मुश्किल 

लेकिन एक दूसरी बात भी है। अब तक पटना में व्यक्ति या विषय के कारण जगह मिलने में संकट नहीं होता। आप कश्मीर पर या प्रोफ़ेसर साईबाबा की गिरफ़्तारी पर सभा कर सकते हैं। यह दिल्ली जैसे प्रगतिशील शहर में मुमकिन नहीं। याद है 4 साल पहले चेन्नई में कश्मीर पर एक सभा के लिए शहर के एक छोर पर प्रेस क्लब जाना पड़ा था। मालूम हुआ, कहीं ‘विवादास्पद’ विषय पर चर्चा के लिए हाल नहीं मिलता। हाल में मंगलोर जाना हुआ एक व्याख्यान के सिलसिले में। आयोजक डॉक्टर काक्किलाया ने बतलाया कि उन्हें विश्वविद्यालय ने इस व्याख्यान के लिए हॉल देने से इंकार कर दिया।

बिहार अभी राष्ट्रवादी दबाव में नहीं है। उत्तर प्रदेश दिल्ली की तरह ही है। हाल में लखनऊ जाने पर पता चला कि एकाध जगह छोड़ दें तो वहाँ भी विषय और वक्ता के कारण हॉल नहीं मिलता। दिल्ली में प्रेस क्लब तक अब कुछ विषयों पर चर्चा की अनुमति नहीं देता। पहले जो अनौपचारिक जगहें हुआ करती थीं, जैसे कंस्टीट्यूशन क्लब का लॉन, वह अब सुंदर बना दिया गया है और आप वहाँ बैठ क्या खड़े भी नहीं हो सकते। वहाँ भी कतिपय विषयों पर चर्चा नहीं हो सकती। विश्वविद्यालयों में तो अब मात्र राष्ट्रवादी आलाप ही लिया जा सकता है। 

‘बुलडोज़र राज’ पर सभा नहीं 

यह जो जगहों का सिकुड़ना है, इस पर हम बात नहीं करते। यह जनतंत्र को, संस्कृति को किस प्रकार बाधित या संकुचित करता है? क्या हम दिल्ली में किसी हॉल में घोषित तौर पर उमर ख़ालिद या शरजील इमाम की गिरफ़्तारी पर बात करने की सोच सकते हैं? कुछ महीने पहले गाँधी शांति प्रतिष्ठान में पुलिस का हुक्म आ गया कि वे ‘बुलडोज़र राज’ पर सभा नहीं कर सकते। धमकी दी गई कि आदेश न मानने पर प्रतिष्ठान पर ताला लगा दिया जाएगा।

देख रहा हूँ कि इतने ही कम वक्त में मैं काफ़ी भटक गया। मैं एक कवि और शहर के बीच के संवाद के बारे में सोच रहा था। अशोकजी ने ख़ुद कई शहरों में कविता या कला से शहर के संवाद की जगहें बनाई हैं। अपनी उम्र के इस पड़ाव पर उनके लिए यह देखना बहुत सुखद नहीं कि धीरे-धीरे आपसदारी की जगहें अब छीनी जा रही हैं। अपने पाठकों के आग्रह पर उन्होंने प्रेम के लिए जगह बनाने पर एक कविता सुनाई। जैसे प्रेम के लिए समाज से लड़कर जगह बनानी पड़ती है, बनाई जाती है, वैसे ही हमें जनतंत्र के लिए जगह बनानी होगी।

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