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धर्म निजी मामला तो प्रधानमंत्री मोदी की पूजा का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यों?

धर्म निजी मामला तो प्रधानमंत्री मोदी की पूजा का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम के प्रसारण के लिए बड़े स्तर पर प्रयास क्यों किए गए?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ’काशी-विश्वनाथ धाम’ में पूजा की वीडियो क्लिप सोमवार को सरकारी प्रसारक प्रसार भारती न्यूज सर्विस पर देखने के बाद क्या यह सहज सवाल किया जा सकता है कि धर्म-आस्था-पूजा यदि निजी मामला है तो उसका सार्वजनिक प्रदर्शन क्यों? इस वीडियो क्लिप में मस्तक पर तिलक लगाये प्रधानमंत्री को मंत्र पढ़ते और शिवलिंग पर जल अर्पण करते हुए देखा जा सकता है।

निस्संदेह यह उनका अधिकार है और सामान्य तौर पर इसकी कोई तसवीर-ख़बर सार्वजनिक हो जाए तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? परंतु इन नितांत निजी पलों को सार्वजिनक करने के लिए प्रचार के माध्यमों का इस्तेमाल पता नहीं किसके आदेश-अनुदेश पर हुआ है।

क्या स्वयं प्रधानमंत्री मोदी को यह बात असहज नहीं करेगी कि उनके और उनके आराध्य के बीच का मामला सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए क्यों लाया गया? क्या प्रधानमंत्री मोदी अब भी हिन्दू हृदय सम्राट तक स्वयं को सीमित रखना चाहते हैं या भारत हृदय सम्राट के रूप में स्वयं को देखना पसंद करेंगे?

मगर प्रधानमंत्री ने इस लोकार्पण के अवसर पर दिये गये अपने वक्तव्य में कहा कि काशी विश्वनाथ धाम का यह नया परिसर सिर्फ एक भव्य भवन भर नहीं, यह भारत की सनातन संस्कृति का प्रतीक है। तो क्या भारत की सरकार महज सनातन संस्कृति वालों के लिए है और क्या भारत के प्रधानमंत्री के लिए सनातन संस्कृति के प्रति यह संवैधानिक जिम्मेदारी है? 

दूसरी ओर उन्होंने देश के लिए तीन संकल्प मांगे- स्वच्छता, सृजन और आत्मनिर्भर भारत। लेकिन क्या एक सनातन संस्कृति की बात कर ये संकल्प पूरे किये जा सकते हैं?

ऐसा नहीं है कि किसी धार्मिक आयोजन में संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति के पूजा करने या चादर चढ़ाने की तसवीर पहले नहीं छपी है। मगर वह तसवीर एक साधारण खबर या तसवीर की तरह छपी। उसका ऐसा प्रदर्शन नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जल अर्पित करती हुई तसवीर के साथ दो पेज का विज्ञापन भी 13 दिसंबर को ’श्री काशी विश्वनाथ धाम के नव्य एवं भव्य स्वरूप के लोकार्पण’ को लेकर विभिन्न अख़बारों में प्रकाशित हुआ है। यह विज्ञापन उत्तर प्रदेश के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से दिया गया है। साथ ही यह सूचना भी दी गयी है कि इस कार्यक्रम का प्रसारण डीडी न्यूज, डीडी नेशनल, डीडी उत्तर प्रदेश, डीडी के यू ट्यूब चैनल, उत्तर प्रदेश के यू ट्यूब चैनल और फ़ेसबुक पेज व ट्विटर हैंडल पर लाइव देखा जा सकता है।

इस विज्ञापन के अगले पेज पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बड़ा सा बयान भी छपा है। दोनों पेजों पर उत्तर प्रदेश सरकार का वह नारा भी छपा है जिसका इस्तेमाल चुनावी रैलियों में देखा गया है- ‘सोच ईमानदार, काम दमदार।’ योगी आदित्यनाथ के बयान में लिखा गया है कि श्री काशी विश्वनाथ मन्दिर के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक गौरव की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से माननीय प्रधानमंत्री जी के मार्गदर्शन में श्री काशी विश्वनाथ धाम परिसर निर्मित कराया गया है। यह प्रोजेक्ट लगभग 650 करोड़ रुपये का बताया गया है।

पूजास्थलों का सरकार द्वारा निर्माण को भारत के प्रधानमंत्री का विजन बताना क्या सेकुलर संविधान की शपथ में संभव या सामान्य बात हो सकती है? मगर असामान्य बातों का इस कदर सामान्यीकरण हो गया है कि इस तरह के धार्मिक मामलों में सरकार के शामिल होने पर कोई सवाल नहीं किया जाता। भारत के संविधान की उद्देशिका से सेकुलर को भले ही औपचारिक रूप से बाहर नहीं किया गया हो लेकिन व्याहारिक रूप से यह शब्द निष्प्राण कर दिया गया है।

वास्वत में यह पहला मामला नहीं है जब प्रधानमंत्री मोदी सेकुलर संविधान की शपथ के बावजूद विशुद्ध रूप से एक धर्म विशेष के नेता के रूप में काम करते नज़र आये हैं। अभी भव्य काशी के शिल्पकार प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में बाबरी मसजिद को तोड़कर उस जगह बनाये जा रहे श्री राम मन्दिर के उद्घाटन समारोह में भी शामिल हुए और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी उसी तरह हुआ जैसा अभी काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के समय हुआ है। इसके अलावा भी प्रधानमंत्री मोदी की एक और धार्मिक यात्रा का सरकारी प्रदर्शन किया जा चुका है।

धर्म अगर निजी मामला है तो इसका आयोजन सरकारी खर्च पर क्यों होना चाहिए?

यह भी देखा गया है कि जिन अवसरों का संबंध धर्म से नहीं होता वहाँ भी धार्मिक रीति-रिवाज़ से शिलान्यास - उद्घाटन होता है जबकि उसमें पैसा सरकार का लगा होता है। वास्तव में धर्म पर भारतीय संस्कृति का मुलम्मा चढ़ाकर बहुत से धार्मिक कार्य सरकारी ख़र्च पर और सरकारी तरीक़े से कराये जाते रहे हैं लेकिन उसका जितना खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किया जा रहा है, वैसा पहले देखने में कम आया है। दूसरी ओर, भारत में इस समय एक अन्य धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शन पर बहस चल रही है। इस मामले में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने बेहद रूखे अंदाज़ में कहा है कि खुले में पढ़ी जाने वाली नमाज को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उनके समर्थन में कई लोग यह सवाल करते हैं कि नमाज निजी आस्था की बात है तो वह सार्वनिजक स्थल पर क्यों पढ़ी जानी चाहिए। सबको पता है कि यह नमाज सप्ताह में एक दिन और एक समय सरकार द्वारा निर्धारित स्थल पर पढ़ी जाती रही है। उसका मक़सद सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं बल्कि सामूहिक नमाज के लिए स्थल नहीं मिलने के कारण ऐसा किया जाता है।

दूसरी ओर सरकार के ख़र्च पर धार्मिक स्थल का निर्माण और फिर देश के प्रधानमंत्री की पूजा-अर्चना का सार्वजनिक प्रदर्शन न सिर्फ़ सेकुलर भारत में संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति पर सवाल है बल्कि हमारे सार्वजनिक दोहरेपन का भी परिचायक है।

कहने को भारत बहुधार्मिक व बहुसांस्कृतिक देश है लेकिन क्या प्रधानमंत्री का इस तरह एक धर्म में संकुचिलत हो जाना वास्तव में सेकुलर भावना के अनुरूप है? धर्म और राजनीति को अलग रखने की नीति के तहत क्या इस तरह का आयोजन मान्य होना चाहिए? क्या अब हमें यह मान लेना चाहिए कि धर्म का निजी होना इस बात पर निर्भर है कि उसका नाम क्या है? धर्म और राजनीति को अलग करना भी इस बात पर निर्भर है कि उस धर्म का नाम क्या है?

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