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कोरोना पर सुलगते सवालों से बचने के लिए लेना पड़ा दिया-बाती का सहारा?

कोरोना पर सुलगते सवालों से बचने के लिए लेना पड़ा दिया-बाती का सहारा?

प्रधानमंत्री ने दिये जलाने का आह्वान तो कर दिया लेकिन उन्होंने डॉक्टर्स-नर्स को ज़रूरी चीजों के मुद्दे पर, लॉकडाउन से ग़रीबों को हुई परेशानी के बारे में बात क्यों नहीं की।

कोरोना वायरस संक्रमण की वैश्विक चुनौती के इस दौर में जब यूरोपीय राष्ट्रवाद का शीराजा बिखर रहा है, डोनल्ड ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रवाद भी सवालों के घेरे में आ चुका है, तब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राष्ट्रवाद का दिया जला कर तमाम जलते-सुलगते सवालों से बचने की हर मुमकिन कोशिश करते दिख रहे हैं।

दुनिया के तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपने-अपने देशों में स्वास्थ्य सेवाओं और आपदा प्रबंधन तंत्र को ज्यादा से ज्यादा सक्रिय और कारगर बनाने में जुटे हुए हैं। इस सिलसिले में वे डॉक्टरों और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा कर रहे हैं। अस्पतालों का दौरा कर हालात का जायजा ले रहे हैं। 

इसके अलावा वे प्रेस कॉन्फ्रेन्स में तीखे और जायज सवालों का सामना करते हुए लोगों की शंकाओं को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा कुछ भी करते नहीं दिख रहे हैं। बावजूद इसके कि यह महामारी हमारे यहां अघोषित रूप से तीसरे चरण में प्रवेश कर चुकी है। अघोषित रूप से इसलिए कि कई कारणों से सरकार इसके तीसरे चरण में प्रवेश को स्वीकार करने से बच रही है। 

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का खोखलापन और इस महामारी का मुकाबला करने के लिए ज़रूरी संसाधनों तथा सरकार की इच्छा शक्ति का अभाव पूरी तरह उजागर हो चुका है। ऐसे में प्रधानमंत्री ने सवालों से बचने के लिए अपनी चिर-परिचित उत्सवधर्मिता का सहारा लेते हुए इस आपदा काल को भी एक राष्ट्रीय महोत्सव में बदल दिया है। ऐसा महोत्सव जिसमें वे राष्ट्रवाद का तड़का लगाते हुए कभी ताली, थाली और घंटी बजाने का आह्वान करते हैं तो कभी दिया और मोमबत्ती जलाने का।

ताली, थाली, घंटा और शंख बजाने के आयोजन के बाद अब ‘मां भारती’ का अपने अंत:करण से स्मरण करते हुए रविवार की रात को नौ बजे, नौ मिनट तक दिया, मोमबत्ती, टॉर्च या मोबाइल फ़ोन की फ्लैश लाइट जलाने आह्वान किया गया है। 

झाड़-फूंक या तंत्र-मंत्र करने वाले किसी ओझा-तांत्रिक की तर्ज पर किया गया यह आह्वान राष्ट्रवाद का वह बाजारू संस्करण है, जो हमेशा ज़रूरी मसलों को कारपेट के नीचे सरका देता है।

लॉकडाउन से पैदा हुई मुसीबतें 

देश में इस समय तीन सप्ताह का लॉकडाउन चल रहा है। बिना किसी तैयारी के अचानक लागू इस लॉकडाउन की वजह से महानगरों और बड़े शहरों से लाखों प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांवों की ओर पलायन कर गए हैं। असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों के सामने न सिर्फ रोजगार का बल्कि लॉकडाउन की अवधि में अपना और अपने परिवार का पेट भरने का भी संकट खड़ा हो गया है। 

प्रधानमंत्री से उम्मीद थी कि वे देशवासियों से मुखातिब होते हुए इन लोगों के बारे में सरकार की ओर से कुछ फौरी उपायों का एलान करेंगे, कोरोना संक्रमण की चुनौती का सामना करने को लेकर सरकार की तैयारियों के बारे में देश को जानकारी देंगे और आश्वस्त करेंगे। 

उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री अपने संबोधन में इस बेहद चुनौती भरे वक्त में भी सांप्रदायिक नफरत और तनाव फैला रहे अपने समर्थक वर्ग और मीडिया को कड़ी नसीहत देंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया।

प्रधानमंत्री ने देश को इस बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी कि कोरोना संक्रमित लोगों का इलाज कर रहे डॉक्टर्स और नर्सों को एन-95 मास्क, पीपीई किट, सर्जिकल दस्ताने, एप्रिन, कोरोना जांच किट और अस्पतालों को वेंटिलेटर की पर्याप्त सप्लाई कब तक हो जाएगी।

संपन्न तबक़े तक सीमित आह्वान 

सवा ग्यारह मिनट के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने सिर्फ और सिर्फ इस संकट की घड़ी में देश की एकजुटता प्रदर्शित करने पर जोर दिया और इस सिलसिले में नौ मिनट तक अपने घरों की सारी लाइटें बंद कर दिया, मोमबत्ती, टॉर्च आदि जलाने का आह्वान किया। कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रधानमंत्री का यह आह्वान देश के खाए-अघाए तबक़े यानी संपन्न और मध्य वर्ग के लिए ही है, क्योंकि आर्थिक और मानसिक तौर यही वर्ग इस आह्वान का पालन करने में समर्थ है।

इंतजार कीजिए 5 अप्रैल की रात 9 बजने का, जब देश में लंबे समय से गृह युद्ध का माहौल बनाने में जुटे और सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहे तमाम न्यूज़ चैनलों के कैमरे उन लोगों के उत्साह से दमकते चेहरे दिखाएंगे, जिनके हाथों में डिजाइनर दीये या मोमबत्तियां होंगी, कीमती मोबाइल फोन्स के चमकते फ्लैश होंगे और होठों पर भारत माता की जय तथा वंदे मातरम का उद्घोष होगा। 

ऐसे समय में कुछ क्षणों के लिए वक्त का पहिया थम जाएगा, कोरोना के डरावने आंकड़े टीवी स्क्रीन से गायब हो जाएंगे और परपीड़ा का आनंद देने वाली पाकिस्तान की बदहाली की गाथा का नियमित पाठ भी थम जाएगा। भक्ति रस में डूबे तमाम चैनलों के मुग्ध एंकर हमें बताएंगे कि कैसे एक युगपुरुष के आह्वान पर पूरा देश एकजुट होकर ज्योति पर्व मना रहा है। 

कहने या बताने की ज़रूरत नहीं कि जिन इलाक़ों में लाइटें बंद नहीं होंगी और दिया, मोमबत्ती, टॉर्च या मोबाइल की फ्लैश लाइट की रोशनी नहीं होगी या जो लोग इस प्रहसन में शामिल नहीं होंगे, उन्हें देशद्रोही करार दे दिया जाएगा।

स्थगित क्यों नहीं की ट्रंप की यात्रा 

ताली-थाली के आयोजन के समय भी किसी ने नहीं पूछा था और इस ज्योति पर्व की गहमा-गहमी में भी कोई पूछने वाला नहीं है कि जब भारत में कोरोना का आगमन जनवरी महीने में ही शुरू हो गया था, तो हमारे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के अन्य जिम्मेदार लोग उस संकट के प्रति बेपरवाह होकर एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष और उसकी पत्नी व बेटी की आवभगत में क्यों बिछे हुए थे हालात की गंभीरता देखते हुए क्या अमेरिकी राष्ट्रपति की वह भारत यात्रा स्थगित नहीं की जा सकती थी 

राहुल ने दिलाया था ध्यान

देश के नीति-नियंता बने हुए लोगों की अपनी जिम्मेदारी से बेख़बरी और मगरुरी की यह इंतेहा ही कही जाएगी कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी लगातार ट्वीट कर सरकार को कोरोना के ख़तरे के प्रति आगाह कर रहे थे, लेकिन केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के तमाम प्रवक्ता उनकी चेतावनी को भ्रामक करार दे रहे थे, उन पर अफवाह फैलाने और लोगों को डराने का आरोप लगा रहे थे। राहुल गांधी की चेतावनियों को लेकर यही रवैया सरकार की शान में कूल्हे मटकाने वाली मीडिया का भी था। 

विपक्षी सरकारें गिराना ज़्यादा ज़रूरी!

महाबली ट्रंप के शाही स्वागत-सत्कार से फुर्सत पाने के बाद भी प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने कोरोना वायरस की चुनौती को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया। उसके बाद वे अपने दलीय राजनीतिक एजेंडे को प्राथमिकता में रखकर दल-बदल के जरिए विपक्षी दल की एक सरकार को गिराने का तानाबाना बुनने में जुट गए। अपने इस मिशन में पूरी तरह कामयाब होने के बाद ही कोराना वायरस की चुनौती पर उनका ध्यान गया।

अगर समय रहते ही एहतियात बरत लिया जाता और तमाम आपातकालीन उपाय कर लिए गए होते तो संक्रमित देशों से आने वाले विमानों पर रोक लग गई होती। 

जो लोग संक्रमित देशों से आ चुके थे, उन्हें हवाई अड्डों पर रोक कर ही उनकी स्क्रीनिंग कर ली जाती। उनमें से संक्रमित पाए जाने वाले लोगों को उनके स्वस्थ होने तक अलग-थलग रखने के लिए हवाई अड्डों के नजदीक हजारों एकड़ खाली पड़ी ज़मीन पर अस्थायी अस्पताल बना लिए होते। मगर ऐसा नहीं हुआ। 

प्रधानमंत्री ने एकाएक लॉकडाउन का एलान कर वही गलती दोहराई, जो उन्होंने तीन साल पहले नोटबंदी का एलान करते हुए की थी। जनजीवन में जैसी अफरा-तफरी और घबराहट अचानक किए गए इस लॉकडाउन से मची है, वैसी ही अफरा-तफरी बगैर तैयारी के नोटबंदी लागू करने से भी मची थी।

भारत गणराज्य राज्यों का संघ है यानी यूनियन ऑफ़ स्टेट्स। देश के संविधान में भारत सरकार और राज्य सरकारों के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन किया गया है। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य ये दो विषय ऐसे हैं, जो केंद्र और राज्य दोनों के ही अधिकार क्षेत्र में हैं। कोरोना वायरस की चुनौती स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है, लेकिन लॉकडाउन का मसला सीधे तौर पर क़ानून व्यवस्था से ताल्लुक रखता है। 

बिना तैयारी के लॉकडाउन क्यों

क्या यह नहीं हो सकता था कि लॉकडाउन लागू करने से पहले प्रधानमंत्री देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की आपात बैठक बुलाते। चार-पांच घंटे के नोटिस पर सभी मुख्यमंत्री कुछ घंटों के लिये दिल्ली आ जाते। प्रधानमंत्री के साथ उनकी बैठक होती। लॉकडाउन की स्थिति में पैदा होने वाली चुनौतियों से निबटने की आवश्यक तैयारी के लिए सभी मुख्यमंत्रियों को दो-तीन दिन का वक्त दे दिया जाता और फिर तीन दिन बाद रात में आठ बजे ही देशव्यापी लॉकडाउन का एलान किया जाता। 

कहने की ज़रूरत नहीं कि मोदी सरकार लगातार ग़लत फ़ैसले ले रही है, जिसका खामियाजा देश की बहुसंख्यक आबादी को भुगतना पड़ रहा है। सरकार अपने ग़लत फ़ैसले का औचित्य साबित करने के लिए उस पर राष्ट्रवाद की पॉलिश कर देती है और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के सुर में सुर मिलाकर भांगड़ा करने लग जाता है। सवाल यह है कि आखिर हम कब तक गंदगी को गलीचे के नीचे छुपाते रहेंगे और ग़लतियों से न सीखने की आपराधिक ग़लतियों का सिलसिला कब तक जारी रहेगा

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