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प्रधानमंत्री जी, सिर्फ ‘मन की बात’ करना अलोकतांत्रिक है! 

प्रधानमंत्री जी, सिर्फ ‘मन की बात’ करना अलोकतांत्रिक है! 

दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताई जा रही भारतीय जनता पार्टी का कोई शीर्ष नेता क्या चुप रहकर भी संवाद कर सकता है। यह नामुमकिन है। भाजपा में नाम का राष्ट्रीय अध्यक्ष है। पार्टी की पहचान मोदी और अमित शाह से ही है। ऐसे में नंबर 1 नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री चुप रहकर कैसे संवाद कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार वंदिता मिश्रा के मन की बात सिर्फ सत्य हिन्दी परः 

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के नेता हैं। दावा किया जाता है कि भाजपा,सदस्यों की संख्या के लिहाज से देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के अनुसार 2019 में पार्टी में सदस्यों की संख्या 19 करोड़ पहुँच चुकी थी। जबकि 2015 में यह संख्या लगभग 11करोड़ थी, इस अनुपात में वर्तमान, 2023 में यह संख्या 20-21 करोड़ तक तो होनी ही चाहिए। इतनी बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता अपने सदस्यों से ‘चुप’ रहकर तो संवाद नहीं कर सकते, न ही खामोशी की आड़ में संगठन की देखभाल कर सकते हैं। 

1975, गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन के समय बनी लोक संघर्ष समिति के महासचिव पद की हैसियत से अपने राजनैतिक जीवन की आधिकारिक शुरुआत करने वाले नरेंद्र मोदी रैलियों में भाषण के दौरान, व्यक्तिगत बातचीत और हर किस्म के ‘मोनोलॉग’ में जी भर के बोलते रहे हैं और आज भी बोलते हैं। ऐसा ही उनका व्यक्तिगत कार्यक्रम ‘मन की बात’ है जिसको वे 3 अक्टूबर 2014 से आकाशवाणी के माध्यम से चला रहे हैं। रेडियो फॉर्मैट के इस पहले से रिकार्ड किए गए कार्यक्रम में उनका चेहरा नहीं दिखता, उनकी भावभंगिमाएं नहीं दिखतीं बस आवाज सुनाई देती है। इसी कार्यक्रम के 100वें अंक का प्रसारण 30 अप्रैल 2023 को हुआ। 

मन की बात प्रसारण के पहले देशभर में भाजपा के द्वारा बड़े स्तर पर तैयारियां की गई। तैयारियों का मिज़ाज कुछ ऐसा था कि मानो भारत की स्वतंत्रता की घोषणा होने वाली हो, भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया हो या जैसे भारत महिला अपराधों से मुक्त राष्ट्र घोषित हो चुका हो लेकिन दुर्भाग्य से ये तैयारियां ऐसे किसी भी वृहद लक्ष्य की प्राप्ति की ओर इशारा नहीं करतीं।


वास्तव में ये तैयारियां एक प्रधानमंत्री द्वारा उसके अपने ‘मन की बात’ को 100 बार किए जाने के उपलक्ष्य में हैं। यह शोभा तो नहीं देता कि हर वक्त देश को मूल समस्याओं से दूर करके एक आभासी त्योहार में झोंक दिया जाए। आभासी खुशियों से अच्छा था कि जमीन पर कार्य किया जाता लेकिन वैश्विक प्रसन्नता रिपोर्ट 2023 यकीनन भारत में खुशियों के घटते स्तर की ओर संकेत कर रही है जिसे सरकार अनदेखा करना चाहती है। 137 देशों में से 126वां स्थान पाना और जीवन प्रत्याशा, जीवन विकल्प बनाने की स्वतंत्रता, उदारता और भ्रष्टाचार के संबंध में बनती हुई प्रतिकूल स्थितियाँ भारतीयों में वास्तविक खुशियों को आने से रोक रही हैं। परंतु कोई बात नहीं यदि किसी प्रधानमंत्री को उत्सव अच्छे लगते हों, प्रचार प्रसार पसंद आता हो! कोई प्रधानमंत्री अपनी उपस्थिति कैसे दर्ज कराएगा यह प्रधानमंत्री की अपनी सोच और विज़न पर भी तो निर्भर करता है, उसे इतनी स्वतंत्रता तो दी ही जानी चाहिए। 

प्रधानमंत्री द्वारा अपनी व्यक्तिगत क्षमता में, सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्र को संबोधित करना थोड़ा चिंताजनक है। क्योंकि प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम में उनके और उनकी सरकार को असहज करने वाले किसी मुद्दे पर कोई चर्चा कभी नहीं की जाती है। देश चाहे जिस आंदोलन और समस्या को लेकर सड़कों पर खड़ा हो परंतु प्रधानमंत्री और उनकी टीम 140 करोड़ की आबादी से मात्र 10-12 उदाहरण लाकर देश में ‘सकारात्मक’ माहौल के प्रमेय को सिद्ध करने में लगे हुए हैं। 

‘मन की बात’ कार्यक्रम के संबंध में इसके 100वें प्रसारण से पहले सरकारी प्रसारणकर्ता, आकाशवाणी और आईआईएम रोहतक द्वारा एक शोध भी सामने लाया गया है। इस शोध के अनुसार, देश की लगभग 96% जनता मन की बात कार्यक्रम के संबंध में जानती है; औसतन लगभग 23 करोड़ लोग हर बार इस कार्यक्रम को सुनते हैं; ज्यादातर सुनने वालों को लगता है कि सरकार काम कर रही है और 73% लोग देश की प्रगति को लेकर सकारात्मक हैं; 63% लोगों ने ‘राष्ट्र-निर्माण’ के काम के लिए उत्सुकता दिखाई है; 44.7% लोग इस कार्यक्रम को टीवी पर और 37.6% लोग मोबाईल पर देखते हैं जबकि मात्र 17.6% लोग इसे रेडियो पर सुनते हैं। इसके अतिरिक्त सर्वे में लोगों ने यह भी कहा कि "प्रधानमंत्री ज्ञानी हैं", "दर्शकों के साथ भावनात्मक संबंध स्थापित करते हैं", "वह शक्तिशाली और निर्णायक हैं"।

आईआईएम रोहतक द्वारा किए गए सर्वे में इस्तेमाल किए जाने वाले ‘शब्द’ एवं परिणाम और लोकनीति-CSDS के 2022 के सर्वे से इसकी तुलना इस सर्वे को पब्लिसिटी स्टंट के करीब ले जाती है। इस बात को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। 

पहला, जब प्रधानमंत्री बोलते हैं तो पूरा देश सुनता है खासकर तब जब देश को नया प्रधानमंत्री मिला हो और उसने एक नया कार्यक्रम शुरू किया हो जो रविवार को छुट्टी के दिन सबके जागने और तैयार होने के बाद 11 बजे शुरू होता हो, तो इस कार्यक्रम के बारे में जानकारी 96% नहीं 100% लोगों को होनी चाहिए। हर व्यक्ति के ईमेल और मोबाईल नंबर के मैसेज बॉक्स में इस कार्यक्रम के संबंध में हर बार संदेश पहुँचाया जाता है। 86% टेलीडेन्सिटी वाले देश में 96% लोगों तक बात पहुंचाना देश के प्रधानमंत्री के लिए कोई बड़ा मुद्दा नहीं है।

दूसरा, जिस राजनैतिक दल के अपने सदस्यों की संख्या ही 21 करोड़ के आसपास हो उस दल से संबंधित अब तक के सबसे बड़े नेता द्वारा प्रसारित किए जाने वाले उसके सबसे पसंदीदा कार्यक्रम को, व्हाट्सऐप युग में 23 करोड़ लोगों द्वारा नियमित देखा जाना किसी उत्सव का मुद्दा तो है ही नहीं है। बल्कि यह तो शोध का विषय है कि इतना प्रचार प्रसार के बाद भी पार्टी की संख्या से इतर एक बड़ी जनसंख्या इस कार्यक्रम को क्यों नहीं देखना चाहती? क्या इस कार्यक्रम में दिखाई जा रही सकरात्मकता लोगों के दैनिक जीवन में आ रही महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी की समस्या से मेल नहीं खा रही है?

तीसरा, क्या सर्वे में प्रधानमंत्री को ‘ज्ञानी’ कहा जाना उस समस्या का समाधान खोजने की कोशिश है जिसके तहत स्वयं प्रधानमंत्री के द्वारा चुने गए, उनके विश्वासपात्र और जम्मू एवं कश्मीर, गोवा और मेघालय के राज्यपाल रह चुके सत्यपाल मलिक, जो प्रधानमंत्री को ‘ज्ञानी’ के उलट ‘इल-इन्फोर्म्ड’ अर्थात ‘ज्ञान की कमी’ से ग्रस्त कहते हैं? सर्वे में जिस तरह युवाओं द्वारा ‘राष्ट्र-निर्माण’ के प्रति उत्सुकता के बारे में बताया गया है यह शब्दावली किसी संगठन और विचारधारा विशेष से प्रभावित नजर आती है। 

चौथा, लोकनीति-CSDS के 2022 के सर्वे के अनुसार हर दस में से मात्र एक व्यक्ति ही ‘मन की बात’ कार्यक्रम सुनता है। CSDS द्वारा छापे गए शोध पत्र- ‘मीडिया इन इंडिया- एक्सेस, प्रैक्टिसेस, कंसर्न्स एण्ड इफेक्ट्स’ के अनुसार देश के 3/5 आबादी ने कभी भी ‘मन की बात’ कार्यक्रम सुना ही नहीं है। इसी सर्वे के अनुसार 5% से अधिक लोग ‘मन की बात’कार्यक्रम को हर महीने नहीं सुनते हैं।

यह तथ्य कान खड़े करने वाला है, देश के लिए भी और प्रधानमंत्री के लिए भी। प्रधानमंत्री और भाजपा के लिए समस्या यह है कि उनका कार्यक्रम उनके पार्टी के सारे सदस्य भी नहीं देखते हैं। मतलब यह है कि उनका संचार तंत्र और विचारधारा का नैतिक बल कार्यकर्ताओं की निजी जिंदगी की उलझनों के सामने फीका पड़ रहा है और लगभग यही कहानी आम भारतवासियों के साथ है जिसे आईआईएम रोहतक के सर्वे के माध्यम से झुठलाने की कोशिश हो रही है। 

जहां लोकनीति-CSDS का सर्वे भारत के प्रख्यात समाज विज्ञानियों द्वारा किया गया है वहीं यह नया सर्वे आईआईएम रोहतक और एक पब्लिक ब्रॉडकास्टर के द्वारा संचालित किया गया है। आईआईएम रोहतक के निदेशक धीरज शर्मा, जिनके द्वारा यह सर्वे जारी किया गया है, यह नहीं पता कि वह सर्वे में शामिल थे या नहीं लेकिन संस्थान के निदेशक की हैसियत से उनके द्वारा इस पर दखल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। खासकर तब जबकि धीरज शर्मा के खिलाफ न्यायालय में उनको उनके पद से हटाए जाने को लेकर कार्यवाही लंबित हो। 

धीरज शर्मा पर आरोप है कि उन्होंने आईआईएम ऐक्ट के तहत आवश्यक ऐकडमिक अर्हताओं को सरकार से छिपाया। निदेशक बनने के लिए उनके पास स्नातक की प्रथम श्रेणी की डिग्री होनी चाहिए थी लेकिन उन्होंने अपनी द्वितीय श्रेणी की डिग्री को निदेशक बनने के लिए छिपा लिया। ताज्जुब की बात तो यह है कि पूरी सरकार इतने बड़े संस्थान के निदेशक पद के लिए चुने जाने वाले व्यक्ति की डिग्री की जांच भी नहीं कर पाई। यही नहीं धीरज शर्मा गलत सूचना के बावजूद अपना दूसरा कार्यकाल भी शुरू कर चुके हैं। अब मार्च 2023 में सरकार ने न्यायालय में यह माना है कि उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। ‘मन की बात’ के सर्वे के बाद फैल रही उसकी आभासी वाहवाही के बाद भी धीरज शर्मा पर कार्यवाही हो पाएगी यह जानना अहम होगा। वैसे भी झूठी डिग्रियाँ इस सरकार के लिए न कोई अपराध की बात है और न ही कोई संवेदनशील मुद्दा! लेकिन महिलाओं का शोषण भी शायद इस सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं है।

आईआईएम रोहतक के निदेशक धीरज शर्मा के खिलाफ 2018 में उसी संस्थान की एक महिला असिस्टेन्ट प्रोफेसर ने उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे जिसके बाद उस महिला को एक महीने के बाद ही संस्थान से बुरे एकेडमिक रिकार्ड के बहाने हटा दिया गया। चार सालों तक केस चलता रहा और अभी भी चल रहा है लेकिन धीरज शर्मा को उनके पद से नहीं हटाया गया। नैतिकता अदालतों की तारीखों और शक्तिसम्पन्न लोगों के आगे शर्मसार है लेकिन इस देश को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है।

यही शर्म तब भी महसूस की जा रही है जब देश की नामी गिरामी महिला रेसलरर्स जंतर मंतर में यौन शोषण के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं। यह प्रदर्शन कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद ब्रजभूषण सिंह के खिलाफ है। विश्व हॉकी चैंपियनशिप, ओलिम्पिक, कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स सहित दुनिया की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगिताओं में देश का प्रतिनिधित्व करने वाली और देश के लिए मेडल जीतकर लाने वाली महिलायें जंतर मंतर में सत्तारूढ दल के एक सांसद के खिलाफ यौन उत्पीड़न जैसे मामले को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं और दिल्ली पुलिस, जोकि केंद्र सरकार के अधीन है, उस सांसद के खिलाफ FIR तक दर्ज करने में इतनी शिथिल है कि सांसद पर FIR दर्ज हो इसके लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जरूरत पड़ी! यह भारत के लिए शर्म की बात है। 

देश का प्रधानमंत्री जो जंतर मंतर से कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर है वह इन महिला पहलवान खिलाड़ियों के दुखदर्द को नहीं बाँट सका, एक फोन कॉल भी नहीं कर सका, ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री किसी को फोन कॉल नहीं करते, विधायकों के चुनावों के लिए नेताओं को फोन करने वाले प्रधानमंत्री देश के गौरव को संभालने, सँवारने और प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली महिलाओं के साथ खड़े क्यों नहीं दिख रहे हैं?


इससे पहले भी बिलकिस बानो के मामले में बलात्कारियों को छोड़ने संबंधी दृष्टिकोण में कानूनी आड़ लेना शर्मनाक था। लगातार यह छवि बनती जा रही है कि वर्तमान सरकार, उसके मुखिया नरेंद्र मोदी, उनकी कैबिनेट की महिला मंत्री सभी महिलाओं के यौन शोषण के मुद्दे पर ‘मौन’ धारण कर लेते हैं। यह मौन तब और गहरा और पक्का हो जाता है जब यौन शोषण का आरोपी भारतीय जनता पार्टी से संबंधित होता है। बिलकिस बानो, उन्नाव की रेप पीड़िता और अब महिला पहलवानों के मुद्दे इस बात की तसदीक कर रहे हैं।   

यह सच है कि देश को सकारात्मक माहौल चाहिए लेकिन नरेंद्र मोदी को यह समझना चाहिए कि एक प्रधानमंत्री और एक ‘मोटिवेशनल स्पीकर’ में अंतर है। एक प्रधानमंत्री किसी राष्ट्र के अंतर्द्वद्व के बीच रहकर देश की समस्याओं को सुलझाता है न कि अपने राजनैतिक लाभ के लिए आभासी सकारात्मकता की आड़ में समस्याओं के ढेर को प्रोत्साहित करता है। 

‘मन की बात’ में देश की समस्याओं का जिक्र न होना इसके बाद भी पब्लिक ब्रॉडकास्टर के समय का इस्तेमाल करना आलोकतंत्रिक है! इस बात का भी कोई औचित्य नहीं कि पीएम अपने किस पसंदीदा चैनल में कब जाकर क्या बोले और उनका क्या विज़न है यदि उनके विज़न में वंचित और कमजोर तबके के लिए आवश्यक न्याय समाहित नहीं है ऐसा विज़न अधूरा है ।

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