गैंगरीन की तरह सड़ती जा रही देश की अर्थव्यवस्था, निजीकरण की बाढ़ से जूझते जन असंतोष, सुरसा सी बढ़ती बेरोज़गारी, हाड़ तोड़ने वाली महंगाई और चकनाचूर हो चुका स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के पास इन सभी बीमारियों से निबटने के 2 ही इलाज हैं। वे या तो देश को धार्मिक ध्रुवीकरण का इंजेक्शन देना जानते हैं या जातिवादी विभाजन का कैप्सूल खिलाना।
चूंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अभी 7 महीने का वक़्त बचा है लिहाज़ा 'कैप्सूल' के साथ बीते मंगलवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना चुनावी अभियान शुरू किया। इस बार किसी विरोधी राजनीतिक दल पर निशाना लगाने की जगह इस बार उन्होंने ‘जाति’ का आखेट किया। जाट परिवार में जन्म लेने राजा महेंद्र प्रताप का नाम जप कर उन्होंने अलीगढ़ में एक नए राज्य विश्वविद्यालय की आधारशिला रख दी और इस करतब से उस विद्रोही जाट विरोध की रीढ़ तोड़ने की कोशिश की जो उनकी निगाह में इन दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन की रीढ़ बनी हुई है!
स्थानीय हिन्दू अस्मिता को अल्पसंख्यक चरित्र वाली 'अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी' के विरुद्ध भड़काने का बीजेपी का अभियान ख़ासा पुराना है। जिन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का नाम लेकर हिन्दू संवेदनाओं का तिलिस्म खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, वह ‘मोहम्मडन-एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज’ (कालांतर में यही 'एएमयू' कहलाया) के ‘एल्युमनाई’ रहे हैं। 1970 के दशक में अपने स्वर्ण जयंती समारोह में उन्हें सम्मानित करके इसी विश्विद्यालय ने ख़ुद को 'गौरवान्वित' माना था।
सन 1929 में, ‘एएमयू’ की स्थापना के समय परिसर की भूमि के एक टुकड़े को इन्हीं राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अपने पास से दान में दिया था। बीजेपी कई सालों से इसी आधार पर 'एएमयू' के नाम को राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के नाम पर करने की मांग करके स्थानीय जाटों की संवेदनाओं को सहलाती रही है। नए विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ पीएम ने एक तीर से दो शिकार करने की जुगत बैठायी है। एक ओर जहाँ उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर हरियाणा और पंजाब के जाट समुदाय के सन्तुष्टिकरण का प्रयास किया है वहीं दूसरी ओर बीजेपी के स्थायी मुसलिम विरोधी स्वरों को फिर से अलाप में ढालने की कोशिश की है, किसान आंदोलन की अग्नि के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो हालिया महीनों में भस्म हो चुका है।
राजा महेन्द्रप्रताप सिंह मूलतः प्रगतिशील विचारों के स्वतंत्रता सेनानी थे। वह ब्रिटिश साम्राजयवाद के कट्टर विरोधी थे। 1915 में फ़रारी अवस्था में उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में 'निर्वासित भारत सरकार' की स्थापना की थी। भारतीय राजनीति में गाँधी के उदय के बाद से वह आजीवन उनके अहिंसा के विचारों के कट्टर समर्थक बने रहे। मज़ेदार बात यह है कि राजा महेन्द्र प्रताप आरएसएस और बीजेपी की पूर्ववर्ती पार्टी ('भारतीय जनसंघ') के भी धुर विरोधी थे।
दूसरे आम चुनाव (1957) में मथुरा की लोकसभा सीट से महेंद्र प्रताप ने निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से 'भारतीय जनसंघ' के प्रत्याशी अटल बिहारी वाजपेयी को बुरी तरह से हराया था। वाजपेयी के संसदीय जीवन में यह एक मात्र चुनाव था जिसमें उनकी ज़मानत ज़ब्त हुई थी।
1920 में मंगोलिया के दौरे में वहाँ के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा गया उनका वह वक्तव्य समय-समय पर उद्धृत किया जाता रहा है जिसमें उन्होंने कहा था- "मैं सभी धर्मों की एकता में यक़ीन रखता हूँ और मेरा एक धर्म इसलाम भी है।"
अलीगढ़ प्रदेश के उन 6 ज़िलों में शामिल है जिनका नाम बदल डालने को बीजेपी कृतसंकल्प है। हाल ही में उसकी बहुमत वाली ज़िला परिषद ने अलीगढ़ का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित करके शासन के पास भेजा है। बीजेपी सूत्रों के दावे को सच मानें तो आगामी विधानसभा चुनावों से पहले-पहले यह 'हरिगढ़' बन जायेगा।
नए विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में पीएम सिर्फ़ राजा महेन्द्र प्रताप सिंह तक ही नहीं रुके, अपने भाषण में उन्होंने बड़ी 'श्रद्धा' से जाट आइकन सर छोटूराम और चौधरी चरण सिंह का भी गुणगान किया। स्थानीय जाट समुदाय इस बात को लेकर ताज्जुब में है कि कैसे प्रधानमंत्री के फीडबैक विभाग से चूक हो गयी वरना वह राजा सूरजमल (अठारवीं सदी की भरतपुर जाट रियासत के संस्थापक) की वीरता का बखान करना न भूलते और न बिना 'गिर्राज महाराज' (स्थानीय जाट समुदाय में प्रचलित श्रीकृष्ण का नाम) की जय बोलकर उनके द्वारिका (गुजरात) कनेक्शन के साथ ही अपना भाषण समाप्त करते।
उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में जाट आबादी 7-8 प्रतिशत है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा 18 प्रतिशत तक पहुँच जाता है। कहने को तो प्रदेश की 120 विधानसभा सीटों में जाट बिखरे लेकिन 50 से कुछ अधिक सीटों पर ये अन्य जातीय समीकरणों के मेल से निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में होते हैं। इस बार की प्रदेश विधानसभा में 14 जाट विधायक हैं जिनमें 13 बीजेपी से सम्बंधित हैं।
‘मंडल आयोग' की घोषणाओं के बाद से उत्तर भारत की राजनीति में बीजेपी का जो जातीय गुणा-भाग चला, उसमें जाट निरंतर उसके निकटतर होते चले गए। 2013 के मुज़फ्फरनगर और अपर' दोआब के प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों ने हिन्दू-मुसलिम जाटों के बीच सदियों से चले आ रहे प्रेम और सौहार्द को छिन्न-भिन्न कर डाला था। बीजेपी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। मौजूदा किसान आंदोलन ने उससे उसकी इसी उपलब्धि को ही छीन लिया। बीजेपी की चिंता का सबसे बड़ा सबब यही है।
इतनी बड़ी 'क्षति' हो जाने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी अपने इस प्रचार को क्यों नहीं बंद कर रहे हैं जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन को केवल जाटों तक सीमित बताता है।
किसान आंदोलन को विभिन्न विशेषणों के साथ जोड़ने का प्रधानमंत्री, बीजेपी और आरएसएस का दुराग्रह कोई नया नहीं है। 9 महीने से चल रहे इस आंदोलन को अपने 'आईटी सेल' से लेकर तथाकथित मुख्यधारा मीडिया के ज़रिये कभी 'जाटों का आंदोलन' कहकर उसे उसके विस्तार से अलग थलग करने की कोशिशें हुईं तो कभी 'आतंकवादी', 'देशद्रोही' और' अर्बन नक्सल' आदि शब्दों में बांध कर देश के निजीकरण के बड़े सवालों से जूझते इसके व्यापक चरित्र को संकीर्ण बनाकर पेश करने के सिलसिले चलते रहे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की किसान पंचायतों में सभी जातियों और मुसलमानों की बड़ी तादाद में शिरकत ने बीजेपी और उनकी चापलूस मीडिया के इस 'जाट प्रेम' की कलई खोल कर रख दी।
किसान आंदोलन जातीयता के किन्हीं सामाजिक मुद्दों को लेकर खड़ा होने वाला आंदोलन नहीं। यह बड़े आर्थिक सवालों के साथ खड़ा हुआ एक राजनीतिक आंदोलन है। ऐसे समय में जब वामपंथ और दक्षिणपंथ से चिपटे सभी राजनीतिक दल या तो देश की अर्थव्यवस्था के निजीकरण के कट्टर समर्थक बन कर उभरे हैं या फिर उनमें से कई मौन हैं जो उनकी अप्रत्यक्ष सहमति को दर्शाता है।
किसान आंदोलन ने पहली बार निजीकरण के विरोध को मज़बूत स्वर दिए हैं। उन्होंने न सिर्फ़ कृषि क्षेत्रों में निजीकरण का प्रतिरोध किया है बल्कि देश की परिसम्पत्तियों को कौड़ी के मोल निजी हाथों में बेचे जाने के मुद्दों को भी बेहद गंभीरता से उठाया है। आगामी 25 सितम्बर को होने वाले किसानों के 'भारत बंद' के आह्वान के समर्थन में जिस तरह से 2 दर्जन से ज़्यादा राष्ट्रीय ट्रेड यूनियनें कूद कर आगे आयी हैं, वह इस दिन देश के बड़े पैमाने पर ठप्प हो जाने का संकेत देता है।
मोदी और उनके बाक़ी सिपहसालारों को बड़े और ज्वलंत सवालों को हल करने के लिए उनकी तह में जाए बिना फौरी जोड़-तोड़ से उन्हें टालने की आदत पड़ गयी है। काफ़ी मामलों में वे कामयाब भी होते आये हैं लेकिन 7 साल के बीजेपी शासनकाल में पहली बार किसान आंदोलन उनके गले में फाँस बन कर अटक गया है। वे इस फांस को न उगल पा रहे हैं और न निगल पा रहे हैं। तब क्या एक राष्ट्रीय क़द और अपने विरोधी विचारों वाले संघर्षशील स्वतंत्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप सिंह को 'जाट आइकन' घोषित करके वे एक बहुत बड़े आंदोलन को निगल पाने में सफल हो सकते हैं? क्या मोदी की इस छोटी सी प्रशासनिक कार्रवाई से एक बहुत बड़े राजनीतिक परिदृश्य को बदल डालने का हसीन सपना देखना जायज़ है?