नाकामियों के पहाड़ पर खड़े होकर उपलब्धियाँ गिना रहे हैं मोदी?
पाँच राज्यों में चुनावी चक्रव्यूह भेदने को बेक़रार प्रधानमंत्री मोदी ने 4 नवंबर को छत्तीसगढ़ के दुर्ग में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए 80 करोड़ ग़रीबों को हर महीने पाँच किलो मुफ्त राशन देने की योजना को पाँच साल और बढ़ाने का ऐलान किया। कोई और समय होता तो चुनाव आयोग आचार संहिता लागू होने के बाद इस तरह के नीतिगत फ़ैसले के ऐलान का संज्ञान ज़रूर लेता, लेकिन मोदीजी को इसका डर नहीं है। उन्होंने अपने साढ़े नौ साल के शासन में तमाम संवैधानिक संस्थाओं को इस लायक़ नहीं छोड़ा है कि वे सरकार पर अंकुश लगा सकें।
बहरहाल, पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के वादे उनकी असफलता की कहानी खुद कहते हैं। मीडिया के कैमरे उनकी छवि महामानव जैसी दिखाने के निर्धारित काम को पूरी निष्ठा से कर रहे हैं, लेकिन मोदी जी असफलताओं के जिस पहाड़ पर खड़े होकर लोगों को संबोधित कर रहे हैं, वह नज़र आ ही जाता है। मोदी जी का दूसरा कार्यकाल खत्म होने की ओर है। यह उनकी कॉपी जाँचने का सही समय है। लेकिन अपनी उपलब्धियों पर चर्चा के बजाय वे विपक्ष, खासतौर पर कांग्रेस और उसमें भी गाँधी परिवार पर व्यक्तिगत हमला करने में जुटे रहते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी कुछ दिन पहले तक मुफ्त योजनाओं को ‘रेवड़ी बाँटना’ बता रहे थे, लेकिन बीजेपी की राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक इस मामले में किसी से पीछे नहीं है। ग़रीबों को मुफ्त राशन की योजना के पीछे यूपीए के शासन काल में बना भोजन गारंटी क़ानून है, लेकिन मोदीजी इसे अपनी निजी योजना की तरह पेश कर रहे हैं। अगर उन्होंने देश की तरक्की को रफ्तार दी होती तो इस योजना के आकार में निश्चित कमी आती। यानी पहले की तुलना में अपना भोजन अपनी कमाई से न जुटा पाने वालों की तादाद घटती। लेकिन मोदी जी फिर 80 करोड़ को मुफ्त राशन देने की बात कहकर खुद बता रहे हैं कि गरीब़ और ग़रीबी जस की तस है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ताजा रैंकिंग भी इसका सबूत है। इसमें भारत को 125 देशों की सूची में 111वें नंबर पर रखा गया है। पिछले साल 121 देशों की रैंकिंग में भारत 107वें नंबर पर था, 2021 में 101वें और 2020 में 94वें नंबर पर था। मोदी जी के आगमन के समय 2014 की रिपोर्ट में भारत 76 देशों में 55वें स्थान पर था। मोदी जी के राज में भुखमरी के शिकार लोगों की तादाद किस क़दर बढ़ी है, ये आँकड़ा उसकी खुली गवाही है।
अर्थव्यवस्था की दूसरी कसौटियों पर भी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार का प्रदर्शन दयनीय ही कहा जाएगा। विपक्ष में रहते जिस डॉलर की क़ीमत की होड़ वे कभी तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उम्र से देखते थे, वो अब 83 रुपये को पार कर गया है। हर साल दो करोड़ नौकरियों का उनका वादा सार्वजनिक चुटकुला बन गया है।
सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के ताज़ा आँक़ड़े बेरोज़गारी के भयावह हालात का सबूत हैं। सीएमआईई के मुताबिक़ भारत की बेरोज़गारी दर अक्टूबर में दो साल के उच्चतम स्तर 10.09 फ़ीसदी पर पहुँच गयी है। तमाम सर्वे बताते हैं कि बेरोज़गारी की वजह से युवा नाउम्मीद हो चले हैं। अपनी युवा आबादी को बड़ी सामाजिक पूँजी मानने वाले देश के लिए यह गंभीर स्थिति है। सीएसडीएस सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 15 से 34 वर्ष के भारतीयों के लिए बेरोज़गारी सबसे बड़ी समस्या है जबकि 2016 में यह आँकड़ा 18 फ़ीसदी थी।
प्रधानमंत्री मोदी यह कहते हुए अक्सर पीठ ठोकते हैं कि भारत जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। लेकिन सवाल तो लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने का है। वरना, 2013 में ही विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था घोषित कर दिया गया था।
2011 के बैंक्स इंटरनेशनल कैंपेरिज़न प्रोग्राम (आईसीपी) के तहत यह घोषणा की गयी थी। इसमें क्रय शक्ति को आधार बनाया गया था। 2005 में भारत इस कसौटी पर दुनिया में दसवें नंबर पर था। मौजूदा हालत क्या है इसका पता प्रतिव्यक्ति आय के आंकड़ों से चलता है। दुनिया के 197 देशों में प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत 142वें स्थान पर है। भारत में सालाना प्रति व्यक्ति आय 2601 डॉलर है जबकि दुनिया के जिन देशों को भारत अर्थव्यवस्था के आकार में पीछे छोड़ने का दावा कर रहा है, वहाँ की प्रति व्यक्ति आय इसका कई गुना है। जर्मनी और कनाडा की प्रति व्यक्ति आय भारत से 20 गुना, युनाइटेड किंगडम की 18 गुना, फ्रांस की 17 गुना ज्यादा है। जापान और इटली की औसतन प्रति व्यक्ति आय भारत से 14 गुना है।
सामाजिक सद्भावना किसी देश के विकास की शर्त होती है लेकिन बीजेपी की चुनावी सफलता ही सद्भाव को दफनाने की रणनीति पर आश्रित है। मोदी सरकार के काल में धार्मिक विद्वेष बढ़ने की चर्चा दुनिया भर में है। अल्पसंख्यकों का दमन सरकारी नीति बन चुका है। जिस अमेरिका के पाले में मोदी सरकार हर वक्त खड़ी रहती है वहाँ के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने लगातार चौथे साल भारत को विशेष चिंता वाले देश (सीपीसी) की सूची में शामिल करने की सिफ़ारिश की है। यूएससीआईआरएफ की 2023 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति बिगड़ती जा रही है। राज्य ने धार्मिक रूप से भेदभावपूर्ण नीतियों को बढ़ावा दिया और उन्हें लागू किया। आयोग ने इस सिलसिले में धर्मांतरण, अंतरधार्मिक संबंधों, हिजाब पहनने और गोहत्या को निशाना बनाने वाले कानूनों का ज़िक्र करते हुए कहा है कि ये मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, दलितों और आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।
विदेशनीति के सवाल पर भी मोदी सरकार बुरी तरह घिरी हुई है। औपचारिक रूप से केंद्र सरकार इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच तटस्थता दिखा रही है लेकिन बीजेपी कार्यकर्ता पूरे देश में इज़राइली हमले के पक्ष में डुगडुगी बजा रहे हैं। हाल ये है कि बीजेपी शासित राज्यों में हज़ारों महिलाओं और बच्चों की जान लेने वाले इज़राइली हमले के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना अपराध माना जा रहा है। ऐसा करने पर पुलिस एक्शन का सामना करना पड़ता है। पड़ोसी देशों से संबंध अपने सबसे निचले स्तर पर हैं। चीन और पाकिस्तान की तो बात ही क्या, नेपाल और मालदीव जैसे देश में भी भारत विरोधी भावनाएँ उफान पर हैं। हाल ही में मालदीव से भारतीय सैनिकों को निकाला जाना चुनावी मुद्दा बना हुआ था। चुनाव प्रचार के दौरान ‘इंडिया आउट’ का नारा देने वाले मोहम्मद मुइज्जू राष्ट्रपति चुने गये हैं और हर भारतीय सैनिक को मालदीव से निकालने का ऐलान कर रहे हैं। वहीं, भूटान डोकलाम को लेकर चीन के साथ समझौता करने की ओर है जो भारत की सामरिक स्थिति को कमज़ोर करेगा। चीन ने भारत की हज़ारों किलोमीटर ज़मीन दबा ली है, यह कोई राजनीतिक आरोप नहीं है। इसी साल की शुरुआत में दिल्ली में पुलिस महानिदेशकों के अखिल भारतीय वार्षिक सम्मेलन में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी पी.डी. नित्या ने अपना शोधपत्र पढ़ा था जिसके मुताबिक़ भारत ने पूर्वी लद्दाख में 65 पेट्रोलिंग प्वाइंट में से 26 पर अपनी उपस्थिति खो दी है। यानी भारतीय गश्ती दल वहाँ नहीं जा सकते, जहाँ पहले जाते थे। मोदी सरकार ने चीन को लेकर रहस्यमय चुप्पी साध रखी है।
उत्तर पूर्व में लगी आग मोदी सरकार की नाकामी की एक और दास्तान है। प्रधानमंत्री मोदी का मिज़ोरम में प्रचार करने के लिए न जाना बताता है कि केंद्र को लेकर वहाँ कैसी भावनाएँ उबाल मार रही हैं। मणिपुर छह महीने से जल रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री ने कोई ऐसी चिंता नहीं जतायी या एक्शन नहीं लिया जिससे पता चलता कि वे स्थिति को बदलाना चाहते हैं। ऐसा लगा कि मणिपुर की आग बुझाने की नीयत ही नहीं है। नतीजा ये है कि एनडीए में शामिल होने के बावजूद मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ने कह दिया कि वे प्रधानमंत्री मोदी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। मिजोरम के मुख्यमंत्री मानते हैं कि मणिपुर में ईसाइयों पर हमले बीजेपी सरकार द्वारा प्रायोजित हैं इसलिए ईसाई बहुल मिजोरम में बीजेपी के साथ दिखना नुकसानदेह होगा। चौबीस घंटे चुनाव प्रचार की मुद्रा में रहने वाले प्रधानमंत्री मोदी का मिज़ोरम न जाना सामान्य बात नहीं है।
कुल मिलाकर मोदी जी अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम दौर में असफलताओं के पहाड़ पर खड़े नज़र आ रहे हैं। इस पहाड़ को विज्ञापनों से ढंका गया है लेकिन जनता की तक़लीफ़ से पैदा हुई हवा इन विज्ञापनों को उड़ाये लिये जा रही है। हक़ीक़त सामने है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)