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पीएम मोदी अपने वादे पूरे करने में अभी तक क्यों असफल रहे 

पीएम मोदी अपने वादे पूरे करने में अभी तक क्यों असफल रहे 

एक ऐसा प्रधानमंत्री जो देश की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय धार्मिक कर्मकांडों को महत्व देता हो, वो असफल नहीं होगा तो क्या होगा। आपके पास मणिपुर जाने के लिए समय नहीं है लेकिन उत्तराखंड जाकर पूजा करने और पहाड़ निहारने का समय है। सवाल आपकी प्राथमिकताओं का है। प्राथमिकताएं ही बता देती हैं कि आप असफल हैं या सफल हैं। मीडिया के चंद टुकड़ाखोर पत्रकार किसी प्रधानमंत्री को सफल नहीं बना सकते। स्तंभकार वंदिता मिश्रा की तीखी कलम से निकला यह लेखः

मध्य प्रदेश समेत 5 राज्यों में विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं। भारतीय जनता पार्टी केंद्र में पिछले 9 सालों से शासन कर रही है, और मध्यप्रदेश में यह शासन 2003 से 2018 तक एक मुश्त चलता रहा और फिर जब 2018 के चुनाव में यह पार्टी खराब प्रदर्शन के कारण सत्ता से बाहर हुई तो उसने ‘पिछले दरवाजे’ और ‘महामारी’ का सहारा लेकर काँग्रेस की एक साल की सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। 

2018 के चुनाव में जनता ने काँग्रेस को भाजपा से अधिक सीटें भी दी थी लेकिन इसके बावजूद जनता की इच्छा को नकारते हुए, विधायकों की अंतर-पार्टी अवैध आवाजाही के बलबूते सत्ता को भाजपा द्वारा हथिया लिया गया। निश्चित रूप से जनता मन मसोस कर रह गई होगी, निश्चित रूप से उसे भाजपा का यह चरित्र पसंद नहीं आया होगा। लोकतंत्र की अपनी सीमाएं हैं, और निर्णयात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए एक निश्चित समय तय किया गया है। अब 2023 में जबकि चुनाव आयोग ने चुनावों की घोषणा कर दी है, वह निर्णयात्मक समय बिल्कुल करीब आकर खड़ा हो गया है।

मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार की तमाम असफलताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों की अनंत कहानियों की वजह से भाजपा के लिए चुनावी जीत की संभावनाएं लगातार कमजोर पड़ती जा रही हैं। ऐसे में पार्टी ने अपने राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम का ही प्रचार करना ज्यादा बेहतर समझा है। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने कहीं न कहीं यह स्वीकार कर लिया है कि मध्य प्रदेश की लगभग 7.5 करोड़ जनसंख्या में कोई भी ऐसा साफ-सुथरा नेता नहीं है जिसे भाजपा राज्य में अपना चेहरा चुन सके। लगभग 20 सालों के शासन के बाद भी एक भी नया चेहरा न खोज पाना, भाजपा की प्रशासनिक मशीनरी व पार्टी की बदहाल अन्तःपार्टी लोकतंत्र की स्थिति की ओर संकेत कर रहा है। 

जहां तक पीएम मोदी का प्रश्न है तो चुनाव जीतने की अपनी कला के इतर वह लगभग हर मोर्चे पर एक असफल प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। भाजपा ने मध्य प्रदेश में ‘मोदी जी की चिट्ठी’ नाम से एक पत्र को लगभग सभी पोलिंग बूथ में पढ़कर सुनाने का फैसला किया है। अपने अलोकतांत्रिक तरीकों के अनुरूप यहाँ भी प्रधानमंत्री मोदी ने सिर्फ ‘अपनी मन की बात’ की चिट्ठी में कहना उचित समझा, वह इतना भी साहस नहीं जुटा पाए कि जनता के साथ सीधे संवाद कर लेते ताकि मध्यप्रदेश में भाजपा के 18 सालों के तथाकथित स्वर्णकाल के विषय में उन्हे प्रत्यक्ष तौर पर कुछ सटीक जानकारी प्राप्त हो जाती।

केंद्र समेत लगभग पूरे देश के लगभग हर राज्य में ‘नेतृत्व के संकट’ से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी के लिए नरेंद्र मोदी एक सहारा साबित होंगे या बोझ यह तो चुनाव के परिणामों के बाद ही पता चलेगा।

पीएम मोदी अपनी इस खुली चिट्ठी में अपने चिरपरिचित अंदाज में ‘संभावनाएं’ और ‘वादे’ बांटते नजर आ रहे हैं। “...मेरा दृढ़ विश्वास है कि आप (लोकसभा की तरह) राज्य विधानसभा चुनावों में भी इसी तरह मुझे सीधा समर्थन देंगे और एक बार फिर भाजपा पर आपके अटूट विश्वास से डबल इंजन की सरकार बनेगी”। हर राज्य में पहुंचकर बहुत जिम्मेदारी से आगे बढ़कर, मुख्यमंत्री से पहले अपना चेहरा सामने करने वाले पीएम मोदी वोट पाने के लिए हर वादा करने को तैयार रहते हैं। वो स्वयं के लिए सीधा समर्थन मांग रहे हैं। प्रदेश की पूरी जिम्मेदारी भी कुछ सेकंडस में ही ले डालते हैं, भले ही दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ कितना भी सामाजिक अन्याय हो, उन्हे यह कहने से कि “आज, किसानों, दलितों, आदिवासियों और युवाओं के पास विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के कारण बेहतर जीवन है और उन्हें बेहतर भविष्य दिख रहा है”, कोई रोक नहीं सकता। क्योंकि वास्तविक धरातल में ‘कहने और करने’ के अंतर को उन्होंने सहज ही आत्मसात कर लिया है। कथनी और करनी का यह अंतर जितना बड़ा होता है, चापलूस मीडिया द्वारा पीएम मोदी उतने ही सफल साबित किए जाते हैं। 

जबकि हकीकत इससे बिल्कुल जुदा है। यही पीएम मोदी फरवरी 2022 में मणिपुर विधानसभा चुनावों के दौरान कहते हुए पाए गए कि “ये खूबसूरत धरती और इस पर आने का आनंद कुछ और ही होता है”। लेकिन जब यह पूरा प्रदेश हिंसा की भीषण चपेट में था और अभी भी है, तब पीएम मोदी ‘चुप्पी’ के बंकर में जा छिपे और आज भी कुछ नहीं कहते। 5 मई से शुरू हुई हिंसा जो अभी भी जारी है इसकी कोई भी जिम्मेदारी न लेने वाला एक असक्षम मुख्यमंत्री सैकड़ों की लाशों पर बैठा रहा लेकिन पीएम मोदी को अपने किसी भी चुनावी वादे का ध्यान नहीं आया और न ही मणिपुर की खूबसूरत धरती का आनंद ही उन्हे याद आया।

अपने भाषणों में अलंकार, अलंकरणों से भरपूर शब्दों का इस्तेमाल करने वाले पीएम मोदी ने मणिपुर को “पराक्रमी धरती” कहते हुए यह भी ध्यान दिलाया कि राज्य की “बहनें और बेटियाँ उन्हे आशीर्वाद देने आई हैं”। पर आज वह यह नहीं बताते कि उस आशीर्वाद के बदले पीएम मोदी और उनकी डबल इंजन सरकार ने उन महिलाओं की सुरक्षा के लिए क्या किया? जिन्हे माँताएं और बहने कहते वे थकते नहीं, जब उनकी इज्जत सड़कों पर उछाली जा रही थी तब उनकी सरकार किस तहखाने में जा छिपी थी? कम से कम अब ही बता दें कि मणिपुर कब तक ‘नॉर्मल’ अवस्था में आने वाला है? या फिर जनता जब तक इस तथाकथित ‘डबल इंजन’ मॉडल के सारे खामियाजे नहीं भुगत लेगी और अपना सर खुद ही दीवार में मारकर खुद को घायल कर लेगी तब तक स्थितियाँ नहीं सुधरेंगी? मैं जानना चाहती हूँ कि इतनी संवेदनहीनता कहाँ से ले आते हैं ये डबल इंजन वाले?

कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान भाजपा कोई राजनैतिक दल नहीं बल्कि ‘झूठी सूचनाएं’ तैयार करने वाली एक फैक्ट्री मात्र है।


मणिपुर को ही ले लें, पीएम मोदी ने फरवरी,2022 में चुनावी रैली के दौरान कहा था कि "मणिपुर ने अपने गठन के 50 साल पूरे किए। इस अवधि के दौरान, राज्य ने कई सरकारें और उनके काम देखे। लेकिन दशकों के कांग्रेस शासन के बाद, मणिपुर को केवल असमानता मिली”। यदि पीएम के शब्दों को ही ठीक मान लें तो कॉंग्रेस के कार्यकाल में मणिपुर को ‘असमानता’ मिली लेकिन भाजपा की डबल इंजन सरकार में तो राज्य को मौत, बलात्कार, अस्थायित्व और असुरक्षा के अतिरिक्त कुछ मिला ही नहीं। पीएम मोदी हिंसा के बाद की खबरों के बाद मणिपुर झाँकने तक नहीं गए। नेताओं में यह साहस सिर्फ कॉंग्रेस नेता राहुल गाँधी में ही क्यों दिखा?

मैं सोच रही थी कि अगर वो कैलाश के सामने खड़े और बैठकर फोटो खिंचवा सकते हैं तो मणिपुर जाकर फोटो क्यों नहीं खिंचवा सकते? क्या उन्हे डर है कि मणिपुर के आज के हालातों में उनकी तस्वीर उतनी फोटजेनिक नहीं लगेगी, जितनी बर्फीले कैलाश पर हल्की हल्की धूप पड़ने के बाद लगती? मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि जब तक एक पूरा प्रदेश रो रहा हो, बच्चे और औरतें सुरक्षित न हों, सैकड़ों हजारों की संख्या में लोग अभी भी कैंपों में रह रहे हों, तब तक कैसे भारत का प्रधानमंत्री साफ सुथरी कैलाश की तस्वीरों में खो सकता है? जबकि देश का प्रधानमंत्री तो भारत की समस्याओं को नेस्तनाबूत करने के लिए चुना गया था लेकिन पीएम मोदी शायद ऐसा नहीं मानते। सत्ता जाने का भय उन्हे ‘अधिक हिन्दू’ बनने के लिए प्रेरित कर रहा है, शायद!

एमपी में जो चिट्ठी पढ़कर सुनाई जा रही है उसको लेकर वहाँ के भाजपा नेताओं का कहना है कि वो "प्रधानमंत्री की भावनाओं को लोगों तक पहुंचाना" चाहते हैं। एक प्रधानमंत्री जो नागरिकों की सुरक्षा के बीच खड़ा नहीं हो सकता, जो सबसे तनावपूर्ण समय में, जब जनता को पीएम की आवाज चाहिए, उसका समर्थन चाहिए तब वह ‘खामोश’ रहकर जनता को परेशान छोड़कर रैलियों में व्यस्त हो जाता है। ऐसे पीएम की कौन सी भावनाएं जनता तक पहुंचनी चाहिए? 

एक मजबूत और सफल प्रधानमंत्री वह होता है जो अपने कार्यों, योजनाओं और अपनी दूरदर्शिता से लोगों को प्रभावित करता है न कि वह, जो अपनी ‘धार्मिक छवि’ से लोगों में जगह बनाना चाहता हो। धर्म जैसे व्यक्तिगत कार्य को राजनैतिक लाभ का साधन बनाने वाले को मजबूत प्रधानमंत्री कैसे माना जा सकता है?


मध्यप्रदेश में पीएम मोदी को लेकर चल रहा नारा ‘मोदी के मन में बसे एमपी, एमपी के मन में मोदी’ सिर्फ एक जुमला है इसे विभिन्न घटनाओं से समझा जा सकता है। पीएम के मन में महिला पहलवान भी थीं और मणिपुर भी लेकिन इन दोनो का क्या हाल हुआ है इसके लिए मुझे यहाँ कुछ लिखने की जरूरत नहीं है। 

देश में जिस तरह से घटनाएं घट रहीं हैं उससे लगता है कि भाजपा किसी भी तरह सत्ता में बनी रहना चाहती है। भारत में प्रधानमंत्री के रूप में पीएम मोदी का आगमन और देश की संस्थागत व्यवस्था का चरमराना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी को यह इत्तेफाक लग सकता है लेकिन जिन्हे ‘संदेह’ से संदेश देना आता है वह इस बात को समझते हैं कि भारत में पीएम मोदी का उदय ‘मीडिया की कब्रगाह’ बनने से जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र सूचकांक और प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की स्थिति नरेंद्र मोदी के उदय के परिणामों की ओर नजर डालने पर बाध्य करती है। एक एक करके उन नेताओं तक पुलिस और ईडी, सीबीआई का पहुंचना, जो पीएम मोदी और उनके मित्र गौतम अडानी को लेकर मुखर रहे हैं, कोई इत्तेफाक नहीं हैं।आजकल ट्रेंड में चल रहीं महुआ मोइत्रा कोई मुद्दा नहीं हैं बल्कि वह एक बड़ी ‘रणनीति’ का एक और पड़ाव हैं जहां से देश के सांसदों और नेताओं को यह संदेश पहुँचाया जाना है कि सत्ता का ‘मयूर’ अभी उन्हे अपने पास रखना है जिनके पास वर्तमान में है, और जो भी इस योजना के बीच आएगा उसे समानुपातिकपरिणाम भुगतने होंगे।

हर वो पत्रकार खतरा महसूस कर रहा है जो सत्ता के खिलाफ लिख रहा है, और अगर कोई इसी को नया भारत कह रहा है तो इसका अर्थ है कि वह भारत का अर्थ ही गलत समझ रहा है। 

आगामी विधानसभाओं के चुनावों के बाद लोकसभा चुनाव भी आने वाले हैं। और यदि पीएम को सिर्फ कुर्सी चाहिए तो यह देश अब इसके लिए तैयार नहीं है।

एक बार ओशो ने तत्कालीन पीएम मोरारजी देसाई के बारे में ब्लिट्स के संपादक आर.के. करंजिया को उत्तर देते हुए कहा था “मेरे प्रिय करंजिया, मैं व्यक्तिगत रूप से मोरारजी भाई देसाई के खिलाफ नहीं हूं। लेकिन मैं उस सड़ी हुई मानसिकता के खिलाफ हूं जिसका वह प्रतिनिधित्व करते हैं, मैं उस हिंदू अंधराष्ट्रवादी दिमाग के खिलाफ हूं जो उनके पास है। मैं उनके अड़ियल रवैये और दृष्टिकोण के खिलाफ हूं। मैं अपनी व्यक्तिगत सनक को पूरे देश पर थोपने की उनकी जिद के खिलाफ हूं। मैं उनके नौकरशाही, निरंकुश, तानाशाही तरीकों के खिलाफ हूं। मैं जीवन के प्रति उनके अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ हूं। मेरा मोरारजी भाई देसाई से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन ये सारी चीजें मिलकर देश के लिए एक आपदा हैं”। 

आज तो ओशो जीवित नहीं हैं लेकिन यदि वह आज जीवित होते और उनसे कोई ऐसा ही सवाल, आज के दौर के लिए पूछता तो क्या उनका जवाब यही रहता? मुझे नहीं पता! लेकिन इसका पता जरूर चलना चाहिए। 

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