अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लंबे भाषण में कुछ ऐसे मुद्दों को कुरेदा है, जिसका प्रत्यक्षतः तो अविश्वास प्रस्ताव के विषय से सीधा संबंध नहीं था, लेकिन देश की वर्तमान राजनीति और अंततः उसके इतिहास और भविष्य से गहरा संबंध है।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण के दौरान कांग्रेस पर हमला करते हुए उसकी स्थापना पर ही सवाल उठा दिया। वैसे, वह संसद के बाहर और भीतर कांग्रेस पर हमलावर रहे हैं, मगर संभवतः उन्होंने पहली बार 1885 में स्थापित कांग्रेस की स्थापना पर सवाल उठाए हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस की स्थापना एक विदेशी ए. ओ. ह्यूम ने की थी। यह तथ्यात्मक रूप से सही है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। कांग्रेस की स्थापना एक रिटायर्ड आईसीएस एलन ओक्टेवियन ह्यूम जिन्हें ए.ओ. ह्यूम के रूप में जाना जाता है, ने की थी। ह्यूम आईसीएस थे और 1857 के विद्रोह के समय वह उत्तर प्रदेश के इटावा के कलेक्टर भी थे। बाद में उन्होंने भारत के स्वशासन के अधिकार की हिमायत की। दरअसल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पीछे यह विचार भी प्रबल था।
28 दिसंबर, 1885 को बॉम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में 72 प्रतिनिधियों की मौजूदगी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई। ए.ओ. ह्यूम को इसका महासचिव बनाया गया और एक भारतीय व्योमेश चंद्र बनर्जी को इसका अध्यक्ष बनाया गया।
जाहिर है, कांग्रेस की स्थापना सिर्फ एक विदेशी ने नहीं की थी। बल्कि अगले ही वर्ष 1886 में कलकत्ता में हुई बैठक में दादा भाई नौरोजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने, जिनकी भारतीयता पर कोई अज्ञानी ही सवाल करेगा। यह वही दादा भाई नौरोजी थे, जिन्होंने इससे एक दशक पहले 1876 में ही पॉवर्टी इन इंडिया नाम से लिखे अपने पर्चे में अंग्रेज शासन की धज्जियां उड़ा दी थीं। यही पर्चा 1901 में प्रकाशित उनकी महत्वपूर्ण किताब पॉवर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इंडिया का हिस्सा बन गया। वास्तव में दादा भाई नौरोजी ने ही सबसे पहले औपनिवेशिक शासन के शोषण में भारत की अंतर्निहित गरीबी को पहचाना था।
क्या प्रधानमंत्री मोदी उन्हीं दादा भाई नौरोजी पर भी तो सवाल नहीं उठा रहे थे?
निस्संदेह आज की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में फर्क है, मगर कांग्रेस की जड़ें वही हैं। आखिर प्रधानमंत्री ने आज की कांग्रेस के बहाने स्वतंत्रता आंदोलन की कांग्रेस पर ही हमला किया है। 1885 से आज तक की कांग्रेस के इतिहास को देखें, तो स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के भारत में अमूल्य योगदान करने वाले नेताओं की लंबी सूची है। उनमें ऐसे अनेक नाम हैं, जिनका ज़िक्र खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लंबे भाषण में मंगलवार को किया है। मसलन, महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलामआजाद, सुभाषचंद्र बोस और के कामराज इत्यादि।
नेहरू को तो छोड़ ही दीजिए, क्योंकि मोदी के पूरे भाषण का सार यही है कि इस देश में यदि कुछ भी गलत हुआ है, तो उसके लिए वही जिम्मेदार हैं!
मगर सवाल यही है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कांग्रेस पर हमला क्यों किया?
जून, 2013 में गोवा में हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया था। यह एक तरह से प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा थी। इसके तुरंत बाद मोदी ने ट्वीट किया था, ‘वरिष्ठ नेताओं ने मुझमें विश्वास जताया है। हम कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। आपके समर्थन और आशीर्वाद के लिए धन्यवाद।’
तब तुरंत तो अंदाजा नहीं था कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' भाजपा का केंद्रीय चुनावी स्वर बनने वाला है। हालांकि इसे चुनावी हथकंडे की तरह ही देखा गया। कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाजें उठ रही थीं, लिहाजा यह आम लोगों में चर्चा का मुद्दा भी आसानी से बन गया। उस समय तक इसे एक राजनीतिक दल को सत्ता से बेदखल करने के औजार की तरह देखा गया।
मगर अब साफ है कि इसमें सिर्फ 'राजनीतिक सत्ता' हासिल करने का ही नहीं, बल्कि अपनी 'वैचारिक सत्ता' कायम करने का संदेश छिपा हुआ है। इसलिए निशाने पर सिर्फ आज की ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन की कांग्रेस भी है। बात अब गांधी-नेहरू परिवार पर हमले से आगे निकल गई है। भाजपा और आरएसएस विभाजन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं, लेकिन संभवतः पहली बार प्रधानमंत्री ने संसद के भीतर इसे लेकर अत्यंत गंभीर बात कही है। मोदी ने कहा, देश के तीन टुकड़े कर दिए...। यह संसद के भीतर बैठे लोगों से कहीं अधिक संसद के बाहर टीवी या मोबाइल फोनों पर उनका भाषण देख-सुन रहे लोगों को संदेश था।
यह गजब उलटबांसी भी है, क्योंकि मोदी जिस तीसरे टुकडे़ की बात कर रहे थे, वह बांग्लादेश है, जिसके निर्माण में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अहम भूमिका थी और इसकी सराहना तब आरएसएस तक ने की थी। मैं यह जिक्र नहीं करूंगा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा कहा था या नहीं। ऐसी बातों से इतिहास बोध पर भी सवाल उठते हैं।
निस्संदेह प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का यह बहुत छोटा-सा हिस्सा था, लेकिन उसके संदेश दूरगामी हैं, जिन्हें सुनने और समझने की जरूरत है। इसे 2047 के भारत की उनकी कल्पना से जोड़कर देखने की जरूरत है। दरअसल, यह एक सिलसिले में हो रहा है, चुनावी जीत जिसमें सिर्फ एक माध्यम है।
(सुदीप ठाकुर स्वतंत्र पत्रकार और हाल ही में आई किताब 'दस साल जिनसे देश की सियासत बदल गई' के लेखक हैं)