+
कोरोना: मोदी सरकार का राहत पैकेज क्या आँकड़ों की बाज़ीगरी है!

कोरोना: मोदी सरकार का राहत पैकेज क्या आँकड़ों की बाज़ीगरी है!

कोरोना वायरस के कारण लागू किये गये लॉकडाउन के चलते गांवों-कस्बों में लोग परेशान हैं। सरकारी घोषणाओं का लाभ उन तक पहुंचाना बड़ी चुनौती है। 

कोविड-19 यानी कोरोना वायरस आज भारत समेत पूरी दुनिया के लिए भीषण मानवीय त्रासदी बन चुका है। हाथ जोड़ कर लॉकडाउन का एलान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से कहा था कि लोग हरगिज घर से बाहर न निकलें। उन्होंने लोगों को आश्वस्त किया था कि उन्हें दवाएं तथा ज़रूरी वस्तुएं उपलब्ध कराई जाएंगी। लेकिन लोग भ्रम, भय और आश्चर्य में हैं कि घर से बाहर निकले बगैर उन्हें ज़रूरी चीजें कैसे मिलेंगी। 

सरकार ने वायरस को रोकने के लिये 21 दिन तय किए। चीन के बाद क्रमशः अमेरिका, इटली, फ्रांस, आयरलैंड, ब्रिटेन, डेनमार्क, न्यूजीलैंड, पोलैंड और स्पेन ने अपने यहां कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए इसी तरीके को अपनाया था।

चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल

हमारे यहां लॉकडाउन के सभी कदम एपिडेमिक डिजीज एक्ट, डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, आईपीसी और सीआरपीसी के तहत उठाए जा रहे हैं। चूंकि ये क़दम सख्त हैं, इसलिए हर जगह गजब की अफरा-तफरी मची हुई है। रात आठ बजे अचानक घोषित हुए लॉकडाउन के चलते लोगबाग रोजमर्रा की ज़रूरत का सामान भी नहीं जुटा सके और अब कस्बों व गांवों में सब्जियों तथा राशन की दुकानों को लॉकडाउन से छूट होने वाली बात महज जुमला साबित हो रही है। मार्च-अप्रैल की बढ़ती गर्मी में दूध, फल और सब्जियां तेजी से खराब होने का खतरा भी बढ़ गया है। 

मजदूर वर्ग की हालत बेहद खराब

दूसरी तरफ रबी की पकी हुई फसल खलिहान की बाट जोह रही है लेकिन किसान खेत पर जाने से डर रहा है। कर्मचारी वर्ग घर में कैद होने को मजबूर है। सड़कों, दुकानों और बाज़ारों में सन्नाटा पसरा हुआ है और यातायात के साधन ठप हैं। फेरी लगाना, रेहड़ी-पटरी पर ठेले लगाना और होम डिलिवरी तक मना है। कल-कारखाने बंद हो चुके हैं, लिहाजा रोज कुआं खोदने और रोज पानी पीने वालों की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है। गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘कवितावली’ की पंक्तियां साकार हो उठी हैं- “खेती न किसान को/ भिखारी को न भीख बलि/बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी/ जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस/कहैं एक एकन सों, कहां जाई का करी।”

वे तसवीरें सिहरन पैदा करती हैं, जिनमें सैकड़ों मील पैदल चलकर गांव लौटने वाले बेबस लोगों के काफिले नजर आ रहे हैं। इन काफिलों में बच्चे, गर्भवती महिलाएं, बीमार व बुजुर्ग लोग और सिर पर गठरियां लादे नौजवान शामिल हैं।

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने कोरोना से निपटने की सरकारी तैयारियों को लेकर संसद में बार-बार सवाल उठाए और ट्वीट पर ट्वीट करके चेतावनी दी, लेकिन केंद्र सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। न समय पर हवाई अड्डे और बंदरगाह सील किए गए, न परदेसियों की उचित जांच हुई, न ही विदेशों से आने वालों को समाज में घाल-मेल करने से रोका गया। 

डब्ल्यूएचओ की चेतावनी 

अब जबकि कोरोना भारत में तीसरे चरण की दहलीज पर है, डब्ल्यूएचओ फिर चेतावनी दे रहा है कि भारत स्वास्थ्य-सेवा कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाए, संदिग्ध मामलों का पता लगाने के लिए तंत्र विकसित करे, उनकी जांच में तेजी लाए, कोरोना वायरस स्वास्थ्य-केंद्रों का निर्माण करे, सत्यापित मामलों के क्वारेंटीन के लिए योजना तैयार करे और वायरस को निष्प्रभावी बनाने पर ध्यान केंद्रित करे लेकिन क्या हम वाकई इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं

कहां है एनडीआरएफ़

लॉकडाउन कोई उपचार नहीं, महज एहतियाती क़दम है। स्वास्थ्य से जुड़े तमाम मामले राज्यों से छीन कर अपने हाथ में लेने के लिए केंद्र सरकार पहली बार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (एनडीएमए) भी लागू कर चुकी है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में एनडीआरएफ़ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उसकी बटालियनों को जगह-जगह मदद के लिए भेजा जाता है। लेकिन अभी एनडीआरएफ़ कहीं नजर नहीं आ रही है। 

लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों पर एनडीएमए की धारा 51 से 60 और भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत कार्रवाई हो रही है, जिसमें छह महीने की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। यहां सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार ने वे तमाम व्यवस्थाएं कर दी थीं, जिससे लोगों को लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर विवश न होना पड़े 

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये का राहत पैकेज घोषित किया है, वह आंकड़ों की बाजीगरी से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार द्वारा उज्ज्वला योजना के तहत 8 करोड़ महिला लाभार्थियों को तीन महीने तक मुफ्त सिलेंडर देने की बात कही गई। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि इस योजना की लाभार्थियों ने सामान्य से भी महंगे इन सिलेंडरों को कब की तिलांजलि दे रखी है। 

सरकार पर बकाया है मजदूरी 

इसी तरह स्वयं सहायता समूहों को दिया जाने वाला लोन 10 लाख से 20 लाख रुपये कर दिया गया है लेकिन इस साल के लिए बजट में स्वीकृत लगभग 9,000 करोड़ में से अब तक इन्हें केवल 1,500 करोड़ की राशि ही आवंटित की गई है। मनरेगा की मजदूरी को 182 से 202 रुपये कर देने यानी 20 रुपये बढ़ाने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है क्योंकि करोड़ों मजदूर इसका काम छोड़ चुके हैं और सरकार पर मजदूरों के 1,856 करोड़ रुपये बकाया हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के 75% से ज्यादा मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, सरकारी दस्तावेजों में उनकी कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती। ऐसे में सवाल यह है कि केंद्र द्वारा घोषित राहत पैकेज के लाभ इन कामगारों तक कैसे पहुंचेंगे

सरकार ने ईपीएफ में कर्मचारी और कंपनी का 12-12% हिस्सा अगले तीन महीने तक खुद डालने का एलान किया है। लेकिन यह सिर्फ उन्हीं कंपनियों पर लागू होगा, जहां 100 से कम कर्मचारी हैं और उनके 90% कर्मचारियों का वेतन 15 हजार रुपये से ज्यादा नहीं है। बुजुर्गों, निराश्रितों और विकलांगों के पेंशन की मद में केंद्र और राज्य सरकारें पहले ही राशि दे रही हैं, जो उन्हें बार-बार चक्कर लगाने के बावजूद समय पर नहीं मिलती, जबकि इस राहत पैकेज में उन्हें 1,000 रुपये अतिरिक्त देने की घोषणा की गई है। 

देश के  22 लाख स्वास्थ्य कर्मचारियों और 12 लाख डॉक्टरों को आगामी तीन माह तक 50 लाख रुपये का बीमा कवर देने का आश्वासन दिया गया है, जबकि बिहार की राजधानी पटना के नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एनएमसीएच) के 83 जूनियर डॉक्टरों ने कोरोना वायरस से संक्रमित होने को लेकर चिंता जताई है और खुद को 15 दिनों के लिए क्वारंटीन करने की अपील की है। 

देश के कई स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य कर्मचारी निजी सुरक्षात्मक उपकरण (पीपीई), रेस्पिरेटर्स, एन-95 मास्क, दस्तानों और सुरक्षात्मक गाउन के बिना ही सेवाएं देने में जुटे हुए हैं।

सरकारी-तंत्र को किया जाये दुरुस्त

असल ज़रूरत सरकारी-तंत्र को चाक-चौबंद करने और असल चुनौती घोषणाओं का लाभ लक्षित व्यक्ति तक पहुंचाने की है। मात्र घोषणा कर देने से ग़रीबों तक सहायता नहीं पहुंचती। हमारे देश के बारे में तो यह मशहूर है कि कोई भी आपदा अधिकारियों के लिए एक सुनहरा मौका बनकर आती है। 

आज हालात यह हैं कि मिड-डे मील पाने वाले बच्चे भी घरों में कैद हैं और स्कूल न खुलने की वजह से मां-बाप के दिहाड़ी बजट पर बोझ बन गए हैं। लोग बेहद गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं। दुनिया के भूखे लोगों की करीब 23 फीसदी आबादी भारत में रहती है। भारत में 19 करोड़ लोग कुपोषित हैं। देश में प्रतिदिन 3000 बच्चे भूख से मर जाते हैं। देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पहले से ही जर्जर है, ऐसे में आबादी के हर स्तर पर कम्युनिटी किचन संचालित करने की जरूरत है। लेकिन पुलिस और प्रशासन सड़कों पर डंडा फटकारने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रहा है। 

यह सच है कि इतनी बड़ी आपदा का मुकाबला कोई एक व्यक्ति या कोई सरकार अपने दम पर नहीं कर सकती और इसके लिए हर नागरिक का सहयोग मिलना परम आवश्यक है। 

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें