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पेगासस जासूसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में क्या-क्या हुआ?

पेगासस जासूसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में क्या-क्या हुआ?

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सरकार की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताए जाने का मतलब यह नहीं है कि न्यायपालिका मूकदर्शक बनी रहे। 

संसद से सड़क तक बवाल के बाद पेगासस स्पाइवेयर से जासूसी का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल 27 अक्टूबर को इस मामले की जांच के लिए 3 सदस्यों की एक कमेटी बनाई थी। कमेटी में डॉ. नवीन कुमार चौधरी, डॉ. प्रभाहरन पी. और डॉक्टर अश्निन अनिल गुमस्ते को शामिल किया गया था। 

कमेटी के कामकाज पर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज आरवी रविंद्रन को नज़र रखने का आदेश दिया गया था। रविंद्रन की मदद के लिए आलोक जोशी, डॉ. संदीप ओबेराय को नियुक्त किया गया था।

इस मुद्दे को लेकर संसद के शीतकालीन सत्र में जमकर हंगामा हुआ था। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने इस पर चर्चा कराने की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन किया था। 

शीर्ष अदालत में दायर याचिकाओं में इस मामले की स्वतंत्र जांच कराने की मांग की गई थी। इस मामले में एम. एल. शर्मा, पत्रकार एन. राम और शशि कुमार, परंजय गुहाठाकुरता, एस. एन. एम. आब्दी, एडिटर्स गिल्ड, टीएमसी नेता यशवंत सिन्हा सहित कई लोगों की ओर से याचिका दायर की गई थी। 

याचिकाकर्ताओं ने शीर्ष अदालत से यह भी मांग की थी कि वह सरकार को निर्देश दे कि वह इस बात को बताए कि उसने पेगासस स्पाइवेयर ख़रीदा या नहीं। 

'राष्ट्रीय सुरक्षा' का तंज

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सरकार की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताए जाने का मतलब यह नहीं है कि न्यायपालिका मूकदर्शक बनी रहे। 

अदालत ने कहा था, “किसी लोकतांत्रिक देश में, जहां क़ानून का शासन हो, वहां किसी की भी जासूसी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।” अदालत ने कहा था कि भारत सरकार ऐसे मामलों में जानकारी देने से इनकार कर सकती है, जो सुरक्षा से जुड़े हों लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हर वक़्त राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा खड़ा कर दिया जाए। 

सुप्रीम कोर्ट ने निजता और तकनीक की अहमियत पर भी टिप्पणी की थी और कहा था कि अगर तकनीक का इस्तेमाल लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है तो इसका इस्तेमाल लोगों की निजता पर हमले के लिए भी हो सकता है।

बुनियादी हक़ों का उल्लंघन 

अदालत ने यह भी कहा था कि जासूसी कराए जाने का मामला बुनियादी हक़ों के उल्लंघन का है। अदालत ने कहा कि कई मौक़े दिए जाने के बाद भी केंद्र सरकार इस मामले में तसवीर साफ नहीं कर सकी और न ही केंद्र की ओर से इसका कोई स्पष्ट रूप से खंडन किया गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्याय न सिर्फ़ होना चाहिए बल्कि यह होते हुए दिखना भी चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर केंद्र सरकार ने इस मामले में अपना स्टैंड क्लियर किया होता हम पर बोझ कम होता।

सुनवाइयों के दौरान सीजेआई एनवी रमना ने केंद्र से कहा था, “सरकार ने संतुष्ट नहीं किया कि पेगासस का इस्तेमाल हुआ या नहीं।” शीर्ष अदालत ने सरकार को आदेश दिया था कि वह एक शपथपत्र यानी ए़फ़िडेविट दायर कर यह बताए कि इस जासूसी का आदेश किस एजेंसी ने दिया था और जिसने जासूसी की, वह इसके लिए अधिकृत था या नहीं।

जबकि दो पेज के हलफ़नामे में केंद्र सरकार ने कहा था कि इस मामले में दायर याचिकाएं अनुमानों, अप्रमाणित मीडिया रिपोर्टों या अपुष्ट सामग्री पर आधारित हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि मीडिया में छपी ख़बरें सही हैं तो ये आरोप गंभीर हैं।

सीजेआई एनवी रमना ने कहा था कि यह आश्चर्य की बात है कि पेगासस स्पाइवेयर से जासूसी का मामला 2019 में सामने आया था और किसी ने इस बारे में सत्यापन लायक सामग्री को जुटाने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की। 

2 जनवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट की एक समिति ने एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया था जिसमें उन लोगों से विवरण मांगा गया था, जिन्हें लगता है कि उनके फ़ोन में पेगासस के जरिये जासूसी की गई है। समिति ने लोगों से यह भी बताने को कहा था कि क्या वे अपने मोबाइल की जांच की अनुमति देने की स्थिति में हैं।

क्या है मामला?

फ्रांसीसी मीडिया ग़ैर-सरकारी संगठन फॉरबिडेन स्टोरीज़ ने स्पाइवेयर पेगासस बनाने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ के लीक हुए डेटाबेस को हासिल किया तो पाया कि उसमें 10 देशों के 50 हज़ार से ज़्यादा लोगों के फ़ोन नंबर हैं।

इनमें से 300 नंबर भारतीयों के हैं। फॉरबिडेन स्टोरीज़ ने 16 मीडिया कंपनियों के साथ मिल कर इस पर अध्ययन किया। इसमें भारतीय मीडिया कंपनी 'द वायर' भी शामिल है। 

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