+
सेनारी नरसंहारः 34 कत्ल, कातिल कोई नहीं- हाई कोर्ट का फ़ैसला

सेनारी नरसंहारः 34 कत्ल, कातिल कोई नहीं- हाई कोर्ट का फ़ैसला

पटना से लगभग 90 किलोमीटर दूर दक्षिण सेनारी में 18 मार्च 1999 को हुए नरसंहार में निचली अदालत से सजायाफ्ता एक दर्जन से अधिक लोगों को बीते शुक्रवार को पटना हाई कोर्ट ने बरी कर दिया।

पटना से लगभग 90 किलोमीटर दूर दक्षिण सेनारी में 18 मार्च 1999 को हुए नरसंहार में निचली अदालत से सजायाफ्ता एक दर्जन से अधिक लोगों को बीते शुक्रवार को पटना हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। इस नरसंहार में सवर्ण समाज के 34 लोगों की गला रेतकर हत्या कर दी गयी थी। इस फ़ैसले के बाद सोशल मीडिया और अन्य जगहों पर यह सवाल खड़ा किया जा रहा है कि सारे अभियुक्त निर्दोष साबित हुए तो आखिर इस नरसंहार का मुजरिम कौन है और सरकार कोर्ट में साक्ष्य क्यों नहीं जुटा पायी।

बिहार सरकार के एडवोकेट जनरल ललित किशोर की सलाह पर सूबे के कानून मंत्री प्रमोद कुमार ने कहा है कि इस फ़ैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाएगी। 

हाई कोर्ट ने पलट दिए फ़ैसले

सेनारी गांव उस समय जहानाबाद जिले में था जो अब उससे कटकर बने अरवल जिले में है। उसी अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे में 30 नवंबर 1997 को 58 दलितों का नरसंहार हुआ था, उसके भी सभी सजायाफ्ता हाई कोर्ट से 2013 में बरी कर दिये गये थे। सेनारी से सटे औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 35 दलितों की हत्या कर दी गयी थी। इस मामले में भी निचली अदालत से सुनायी गयी सजा हाई कोर्ट में नहीं टिक सकी और 2013 में ही 10 में से नौ अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। 

अरवल जिले के ही रामपुर चौरम में 1998 में नौ दलितों की सामूहिक हत्या कर दी गयी थी। इस मामले में भी निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनायी थी लेकिन 2015 में हाई कोर्ट ने उसके फ़ैसले को उलटते हुए सभी चौदह अभियुक्तों को बरी कर दिया। 

अरवल से सटे भोजपुर, औरंगाबाद और गया में अन्य नरसंहार भी हुए और अपवादों को छोड़कर अभियुक्त बरी होते गये।

सेनारी में क्या हुआ था?

18 मार्च की रात की शुरुआत में ही प्रतिबंधित संगठन एमसीसी- माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के सैकड़ों सदस्यों ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया था। कोई उनकी गिनती डेढ़-दो सौ बताता है तो कोई लगभग पांच सौ। उनके हाथों में तेजधार हथियार भी थे। 

गांव वालों के अनुसार, दर्जनों लोगों को उनके घरों से खींचकर गांव के ठाकुरबाड़ी के पास ले जाया गया, उन्हें तीन समूहों में बांटा गया और फिर एक-एक का गला रेत दिया गया। कुछ का पेट भी चीर दिया गया। उस रात कुल 34 पुरुषों की हत्या हुई थी।

स्थानीय लोगों के अनुसार हाई कोर्ट के तत्कालीन रजिस्ट्रार पद्मनारायण सिंह का गांव भी सेनारी था। उनके परिवार के आठ लोग मारे गये थे। जब वे गांव पहुंचे तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे बच नहीं सके। उस समय बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं लेकिन आक्रोश के कारण वे घटनास्थल पर नहीं जा सकी थीं। 

 

सेनारी नरसंहार मामले में कुल 45 लोग अभियुक्त बनाये गये थे लेकिन मुकदमा 35 लोगों पर चला। इनमें 16 को जहानाबाद की अदालत ने नवंबर 2016 को दोषी करार दिया और 11 को फांसी की सजा सुनायी जबकि तीन को उम्रकैद में भेज दिया। शेष दो गिरफ्तार नहीं हो सके।

नरसंहार में क्यों नहीं मिलते कुसूरवार? 

हाई कोर्ट के सीनियर एडवोकेट मोहम्मद खुर्शीद आलम कहते हैं कि निचली अदालतें आम तौर पर सुरक्षात्मक रवैया अपनाते हुए नरसंहार के अभियुक्तों को दोषी ठहराती हैं। यही मामला जब हाई कोर्ट पहुंचता है तो वहां साक्ष्य पर जिरह होती है। जिरह में उन साक्ष्यों का टिकना मुश्किल होता है तो हमें ताज्जुब होता है। 

पुलिस के काम पर सवाल 

एडवोकेट आलम कहते हैं कि अक्सर पुलिस की अकर्मण्यता के कारण हाई कोर्ट में सही साक्ष्य नहीं मिल पाता। पुलिस साक्ष्य जुटाने के बदले साक्ष्य गढ़ने में लग जाती है और ऐसे गढ़े हुए साक्ष्य स्वाभाविक रूप से जिरह में नहीं टिकते। एफआईआर में तात्कालिक शांति के लिए कई ऐसी बातें लिख दी जाती हैं जो बाद में साबित नहीं हो पातीं। इसीलिए हमारे यहां औसत जुर्म साबित होने की दर काफी कम है।

वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की राय यह है कि पुलिस का बतौर संगठन ऐसा चरित्र है कि वह न्याय दिलाने के प्रति बहुत आग्रही नहीं रहती। पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है। वे कहते हैं कि हमारे समाज में और राजनैतिक दलों में यह बात देखी जाती है कि उनकी प्रतिक्रिया यह देखकर सामने आती है कि पीड़ित सवर्ण वर्ग के थे या दलित वर्ग के। होना यह चाहिए कि पीड़ित को न्याय नहीं मिले तो उसके लिए बिना किसी भेदभाव के आवाज उठे। 

अजय कुमार कहते हैं कि ऐसा न हो कि एक नरसंहार के अभियुक्त बरी हो जाएं तो सवाल करें और दूसरे पर चुप्पी साध लें। हम ऐसे मामलों में भी वर्गीय स्वार्थ से बंधे रहते हैं, इसलिए पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए आवाज मजबूत नहीं हो पाती।

एडवोकेट आलम की राय है कि संदेह का लाभ तो अभियुक्त को दिया ही जाता है, यह काम तो पुलिस का और अभियोजन पक्ष का है कि वे ऐसे साक्ष्य दें कि उस पर कोई संदेह न रहे। जब तक फंसाने-बचाने की नीयत से मुकदमा होगा, न्याय मिलने की संभावना कम ही रहेगी। वे कहते हैं कि पुलिस और अभियोजन पक्ष को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अलावा वैज्ञानिक अनुसंधान से काम लेना चाहिए, सिर्फ बयान संकलन से आरोप सिद्ध करना मुश्किल होगा। 

फ़ैसले में इतनी देर क्यों? 

सेनारी नरसंहार के मामले में निचली अदालत से फ़ैसला आने में 17 साल लगे। इसके बाद हाई कोर्ट में भी इस मामले पर करीब पांच साल बाद फ़ैसला आया। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट जाएगा तो पता नहीं कितना और वक्त लगे। ऐसे ही नरसंहारों के कई मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।

जजों की जबरदस्त कमी 

आलम कहते हैं कि पुलिस प्रक्रिया पूरी करने में समय लेती है तो दूसरी तरफ अदालतों में जजों की कमी है। ऐसे में देरी होना अचरज की बात नहीं। उन्होंने बताया कि अभी की जरूरत के हिसाब से पटना हाई कोर्ट में करीब 110 जज होने चाहिए जबकि स्वीकृत पद करीब 52 हैं और कार्यरत तो करीब 23 ही हैं। ऐसे में मुकदमों के निपटारे में देरी होती है। ऐसे में न्याय कहाँ से होगा और कौन करेगा? 

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें