भारत विभाजन-2: बँटवारे के विरोधी रहे जिन्ना कैसे बने पाक के पैरोकार?
पिछली कड़ी में हमने बात की कि भारत में ‘दो क़ौमों का सिद्धांत’ 19वीं सदी के अंतिम दशकों में सबसे पहले मुसलिम समाज सुधारक सर सैयद अहमद ख़ाँ ने दिया था जिनको लगता था कि यदि अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गए तो हिंदू बहुमत वाले भारत में मुसलमानों के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। डॉ. सैयद अहमद ख़ाँ के विचारों से प्रेरित और प्रभावित कुछ लोगों ने 1906 में मुसलिम लीग की स्थापना की और तत्कालीन ब्रिटिश वाइसरॉय मिंटो से मिलकर माँग की कि भारत के शासन से जुड़ा कोई भी भावी परिवर्तन हो तो उसमें मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल के तहत सीटें सुरक्षित की जाएँ ताकि ‘असहानुभूतिशील’ बहुसंख्यक हिंदुओं से उनकी सुरक्षा हो सके।
उनकी इस माँग का विरोध किया था तब के एक जाने-माने बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना ने, जिनका कहना था कि एक तो मुसलिम लीग के ये नेता मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते और दूसरे, उनकी यह माँग देश को तोड़ने वाली है। ध्यान दीजिए, यह बात जिन्ना ने कही थी कि मुसलमानों के लिए अलग सीटों की व्यवस्था देश को तोड़ने का काम होगा। जिन्ना 1896 से ही कांग्रेस से जुड़े हुए थे और वे कांग्रेस पार्टी की समावेशी विचारधारा के समर्थक थे। लेकिन वे लंबे समय तक अपने इन विचारों पर पूरी तरह क़ायम नहीं रह सके।
मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल का विरोध करने वाले जिन्ना 1909 में बॉम्बे की ऐसी ही एक सीट से चुनकर इंपीरियल लेजिस्लेटिव असेंबली (एक तरह से केंद्रीय विधानसभा) के सदस्य बने। हालाँकि यह एक संयोग था क्योंकि उस सीट के लिए दो दावेदार थे और दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हट रहा था तो जिन्ना को सर्वसम्मत उम्मीदवार बना दिया गया। लेकिन मुसलिम लीग की तरफ़ उनका झुकाव बढ़ रहा था। 1912 में वह मुसलिम लीग के वार्षिक अधिवेशन में शामिल हुए और वहाँ भाषण भी दिया। अगले साल वह उसके सदस्य भी बन गए हालाँकि उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि लीग की सदस्यता उनकी दूसरी प्राथमिकता है, पहली प्राथमिकता देश की आज़ादी है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह कांग्रेस के सदस्य भी बने रहे और 1913 में कांग्रेस की तरफ़ से बातचीत करने के लिए गोपालकृष्ण गोखले के साथ लंदन भी गए। गोखले ने उनके बारे में बाद में कहा, ‘जिन्ना सारे सांप्रदायिक पूर्वग्रहों से मुक्त हैं जिसकी वजह से वह हिंदू-मुसलिम एकता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि साबित होंगे।’
राजनीति के उस दौर में कांग्रेस और मुसलिम लीग एक-दूसरे की घोर प्रतिद्वंद्वी थीं और किसी भी विषय पर दोनों में सहमति असंभव-सी बात थी। लेकिन जिन्ना ने इस दूरी को पाटने की कोशिश की और 1916 में दोनों के बीच लखनऊ पैक्ट कराया जिसमें विभिन्न प्रांतीय विधानसभाओं के लिए हिंदू और मुसलिम कोटे पर सहमति बनी। बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 29 दिसंबर 1916 को लखनऊ अधिवेशन में इसे मंज़ूरी दी तो जिन्ना के नेतृत्व में मुसलिम लीग द्वारा 31 दिसंबर 1916 को इसे स्वीकार किया गया। लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के नरम और गरम दल भी एक हो गए।
कांग्रेस-मुसलिम लीग एकता
लखनऊ पैक्ट को हालाँकि पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका, लेकिन इसके तहत कांग्रेस ने न केवल मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को स्वीकार किया बल्कि हर प्रांतीय विधानसभा में उनके लिए एक-तिहाई सीटें अलग करने पर भी सहमति जताई भले ही उस प्रांत में मुसलमानों की आबादी एक-तिहाई से कम हो। इसके साथ ही कांग्रेस ने इसपर भी रज़ामंदी दी कि किसी समुदाय से जुड़े ऐसे किसी विषय पर तब तक कोई क़ानून पास नहीं किया जाएगा जब तक कि उस समुदाय का तीन-चौथाई हिस्सा उससे सहमत न हो।
लखनऊ समझौता हिंदू-मुसलिम एकता की दिशा में एक उम्मीद की किरण लेकर आया। यह पहली बार था कि हिंदुओं और मुसलमानों ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए एक आवाज़ में माँग उठाई हो। इसके बाद कांग्रेस और मुसलिम लीग के रिश्तों में काफ़ी सुधार आया। मुसलिम लीग भारत की स्वायत्तता के लिए कांग्रेस द्वारा लड़ी जा रही जंग में शामिल हो गई।
लेकिन यह सहमति बहुत लंबी नहीं चली। समय के साथ कांग्रेस के नेता बदले और उनके विचार भी। लखनऊ पैक्ट के कोई 12 साल बाद जब ब्रिटेन के भारत मंत्री लॉर्ड बर्कनहेड ने साइमन कमिशन का विरोध कर रहे भारतीय नेताओं से कहा कि आप ख़ुद संवैधानिक सुधारों पर अपने सुझाव लेकर आओ तो मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में एक सर्वदलीय समिति बनी। इस समिति ने लखनऊ पैक्ट की सारी सहमतियों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया और सुझाव दिया कि चुनाव क्षेत्रों का गठन भौगोलिक आधार पर हो न कि सामुदायिक आधार पर। समिति का मानना था कि इस तरह समुदाय उम्मीदवारों की जीत के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहेंगे और उनमें भाईचारा बढ़ेगा।
जिन्ना का 14 सूत्री फ़ॉर्म्युला
जिन्ना जो धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचक मंडलों के हामी हो गए थे, इस मुद्दे पर कांग्रेस से कुछ शर्तों पर समझौता करने को तैयार थे लेकिन दोनों दलों में बात बन नहीं पाई। चूँकि कांग्रेस की तरफ़ से, जिसमें ज़्यादातर हिंदू थे, हिंदुओं की बात सामने आ गई थी, इसलिए ब्रिटिश हुकूमत के सामने मुसलमानों का पक्ष रखने के लिए जिन्ना ने अपनी तरफ़ से एक 14 सूत्री माँगपत्र पेश किया जिसका मक़सद भारत के किसी भी भावी स्वरूप में मुसलमानों के हितों की सुरक्षा करना था। इसमें कई बातें लखनऊ पैक्ट वाली ही थीं। लेकिन कांग्रेस ने उनके इस 14 सूत्री माँगपत्र को सिरे से नकार दिया और जवाहरलाल नेहरू ने तो उन्हें ‘हास्यास्पद’ तक कह डाला। इसके बाद कांग्रेस और मुसलिम लीग में संबंध फिर से ख़राब हो गए और दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली।
आइए, देखते हैं कि जिन्ना के 14 सूत्री फ़ॉर्म्युले में क्या-क्या बिंदु थे।
भावी संविधान का ढाँचा परिसंघीय होना चाहिए और अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतों के पास सुरक्षित रहनी चाहिए।
सभी प्रांतों को एक तय सीमा तक स्वायत्तता की गारंटी हो।
देश की सभी विधानसभाओं और अन्य निर्वाचित निकायों को ऐसे तय सिद्धांत के आधार पर गठित किया जाए जिससे हर प्रांत में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त और प्रभावशाली प्रतिनिधित्व मिले लेकिन ऐसा करते हुए यह ध्यान रखा जाए कि उस प्रांत के बहुसंख्यक कहीं अल्पसंख्यक या समसंख्यक न हो जाएँ।
केंद्रीय विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व एक-तिहाई से कम नहीं हो।
सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व पृथक निर्वाचक मंडलों की मौजूदा व्यवस्था की तरह ही जारी रहे लेकिन किसी भी समुदाय को यह अधिकार हो कि भविष्य में कभी भी पृथक निर्वाचक मंडल के स्थान पर साझा निर्वाचक मंडल का विकल्प स्वीकार कर ले।
भविष्य में किया जाने वाला कोई भी ज़रूरी भूमि वितरण मुसलिम बहुसंख्यकता को प्रभावित नहीं करे।
सभी समुदायों को संपूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता - अर्थात आस्था, पूजा, धर्मपालन, धर्मप्रचार, सम्मिलन और धर्मशिक्षा की स्वतंत्रता - की गारंटी हो।
किसी भी विधानसभा या निर्वाचित निकाय में किसी भी समुदाय से जुड़े ऐसे किसी भी मामले पर कोई विधेयक या प्रस्ताव या उसका अंश स्वीकृत नहीं किया जाएगा यदि उस निकाय में मौजूद उस समुदाय के तीन-चौथाई सदस्यों का मानना हो कि उससे उस समुदाय के हितों को नुक़सान पहुँचेगा। या फिर ऐसे मामलों से निबटने के लिए अन्य कोई उपाय तय किया जा सकता है जो व्यावहारिक और अमली जामा पहनाने लायक हो।
सिंध को बॉम्बे प्रेसिंडेंसी से अलग कर दिया जाए।
पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और बलूचिस्तान में भी बाक़ी प्रांतों जैसे ही सुधार लागू किए जाएँ।
राज्य की सभी सेनाओं में तथा स्थानीय स्वशासी निकायों में शेष भारतीयों के साथ-साथ मुसलमानों का भी पर्याप्त हिस्सा सुनिश्चित करने का प्रावधान संविधान में किया जाए लेकिन ऐसा करते समय ज़रूरी कौशल की अनदेखी न की जाए।
संविधान में मुसलिम संस्कृति की रक्षा और मुसलिम शिक्षा, भाषा, धर्म, निजी क़ानून व मुसलिम धर्मार्थ संगठनों की सुरक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय हों। साथ ही उसमें इस बात की भी पक्की व्यवस्था हो कि राज्य एवं स्वशासी निकायों द्वारा दिए जाने वाले अनुदानों में उनको अपना उचित हिस्सा मिले।
केंद्र या प्रांत में जो भी मंत्रिमंडल बने, उसमें मुसलमान मंत्रियों की हिस्सेदारी कम-से-कम एक-तिहाई हो।
केंद्रीय विधानसभा भारतीय परिसंघ के सदस्य राज्यों की सहमति के बिना संविधान में कोई भी बदलाव नहीं करेगी।
जिन्ना द्वारा प्रस्तावित इन 14 बिंदुओं में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु ये थे - सभी समुदायों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल, केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं और मंत्रिमंडलों में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई प्रतिनिधित्व, सभी प्रांतों के लिए सुनिश्चित स्वायत्तता और संविधान में किसी भी परिवर्तन के लिए प्रांतों की मंजूरी।
जिन्ना और पृथक निर्वाचक मंडल
जिन्ना मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की जो माँग कर रहे थे, यह जिन्ना के अपने दिमाग़ की उपज नहीं थी। उस दौर पर पृथक निर्वाचक मंडलों का चलन आम था जो 1918 के मॉन्टग्यू-चेल्म्ज़फ़र्ड सुझावों से पहले भी लागू था और उन सुझावों के बाद 1920 से लेकर 1946 तक जितने भी चुनाव हुए, उन सबमें भी पृथक निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था थी। पृथक निर्वाचक मंडल इसलिए होते थे ताकि हर प्रभावशाली समूह की बातें और शिकायतें ऊपर तक पहुँचें हालाँकि ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। उनको तो वोट तक देने का अधिकार नहीं था। उन दिनों भारत की कुल वयस्क आबादी के 13% से लेकर 20% तक को ही वोट देने का अधिकार था और वह अधिकार शिक्षा, संपत्ति, भूमि के स्वामित्व और इनकम टैक्स की अदायगी आदि के आधार पर तय होता था।
दूसरे, जिन्ना ने सभी विधानसभाओं और कैबिनेटों में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई प्रतिनिधित्व की माँग इसलिए की थी कि तब के भारत में हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी का अनुपात तक़रीबन 2:1 का था। हालाँकि सिख, आदिवासी और दलितों को यदि हिंदू आबादी में शामिल कर लें तो यह अनुपात 3:1 का होता था।
ख़ैर, जिन्ना के ये 14 बिंदु कांग्रेस ने तो अस्वीकार कर ही दिए थे, ख़ुद मुसलिम लीग भी इनपर एकमत नहीं हो पाई। अपने प्रयासों के नाकाम होने के बाद जिन्ना काफ़ी मायूस हो गए और 1930 में वह इंग्लैंड चले गए और अगले कुछ सालों तक वहीं रहे। कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय राजनीति से उनका मन उचाट हो गया था और वह ब्रिटेन की संसद में भागीदारी करना चाहते थे। कुछ और का कहना है कि वह कुछ समय तक भारतीय राजनीति से दूर रहना चाहते थे। सच चाहे जो हो, जिन्ना कुछ सालों के बाद ही भारत लौटे। वह किसके कहने पर लौटे और लौटने के बाद क्या हुआ, इसके बारे में हम बात करेंगे अगली कड़ियों में।