योग्य एससी-एसटी डॉक्टरों को एम्स में नौकरी नहीं दी गई?
अनुसूचित जाति, जनजाति जैसे वर्गों को मिले आरक्षण को ख़त्म करने की वकालत करने वालों को एक संसदीय पैनल की रिपोर्ट से निराशा हाथ लग सकती है। इस पैनल ने साफ़ तौर पर कहा है कि दिल्ली एम्स जैसे संस्थानों में भी नौकरी देने में एससी-एसटी वर्ग के लोगों के साथ भेदभाव बरता गया।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण पर संसदीय समिति ने कहा है कि एम्स में एड-हॉक यानी तदर्थ आधार पर कई वर्षों तक काम करने वाले अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों को नियमित करने के समय रिक्त पदों के लिए नहीं चुना गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कारण यह बताया गया कि कोई भी उम्मीदवार प्रवेश के लिए उपयुक्त नहीं पाया गया।
इस बात पर चिंता जताई गई है कि एम्स जैसे संस्थान में वंचित तबक़े के डॉक्टरों के साथ ऐसा बर्ताव होता है।
संसदीय समिति का यह आकलन और ये सिफारिशें अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास में केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, आईआईएम, आईआईटी, चिकित्सा संस्थानों, नवोदय विद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों की भूमिका पर एक रिपोर्ट का हिस्सा हैं। इसमें एम्स में आरक्षण नीति के कार्यान्वयन का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया है।
टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि कुल 1111 संकाय पदों में से एम्स में 275 सहायक प्रोफ़ेसर और 92 प्रोफ़ेसर के पद रिक्त हैं।
संसदीय पैनल ने अपनी रिपोर्ट में यह भी आरोप लगाया है कि 'उचित पात्रता, योग्यता होने के बावजूद पूरी तरह से अनुभवी एससी-एसटी उम्मीदवारों को देश के प्रमुख मेडिकल कॉलेज में प्रारंभिक चरण में भी संकाय सदस्यों के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं मिली'।
समिति ने कहा है कि सभी मौजूदा रिक्त पदों को अगले तीन महीनों के भीतर भरा जाना चाहिए। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से उसी समय-सीमा के भीतर एक कार्य योजना मांगी गई है। पैनल ने कहा है कि भविष्य में सभी मौजूदा रिक्त पदों को भरने के बाद अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किसी भी संकाय की सीट को किसी भी परिस्थिति में छह महीने से अधिक समय तक खाली नहीं रखा जाए।
पैनल ने आगे कहा है कि एमबीबीएस और अन्य स्नातक पाठ्यक्रमों और विभिन्न एम्स में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में एससी और एसटी के प्रवेश का कुल प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% के ज़रूरी स्तर से काफी नीचे है। इसको देखते हुए समिति ने सिफारिश की है कि एम्स को सभी पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत को सख्ती से बनाए रखना चाहिए। समिति ने इस तथ्य पर फिर से जोर दिया कि एससी और एसटी के लिए अधिक अवसर सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण का प्रतिशत बनाए रखना ज़रूरी है।
समिति ने पाया कि आरक्षण को सुपर-स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों में लागू नहीं किया गया है। इस वजह से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को अभूतपूर्व और अनुचित रूप से वंचित किया गया है। समिति की रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा गया है कि सुपर-स्पेशियलिटी क्षेत्रों में अनारक्षित संकाय सदस्यों का एकाधिकार है।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थिति
वैसे, यदि बात केंद्रीय विश्वविद्यालयों की हो तो वहाँ भी आरक्षण के हालात ऐसे ही हैं। पिछले साल ही एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश के 44 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6,074 पद रिक्त थे, जिनमें से 75 प्रतिशत पद आरक्षित श्रेणी के थे। अन्य पिछड़े वर्ग के आधे से ज़्यादा पद खाली पड़े थे। प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट में ओबीसी, एससी, एसटी की स्थिति और ख़राब थी, जहाँ इस वर्ग के लिए सृजित कुल पदों में 60 प्रतिशत से ज़्यादा खाली पड़े थे, जबकि अनुसूचित जनजाति के 80 प्रतिशत पद खाली थे।
तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 15 मार्च 2021 को लोकसभा में पूछे गए कई सवालों के जवाब में इसका से ब्योरा दिया था।