+
धारा 377, व्यभिचार क़ानून बहाल की जा सकती है: रिपोर्ट

धारा 377, व्यभिचार क़ानून बहाल की जा सकती है: रिपोर्ट

जिन क़ानूनों को सुप्रीम कोर्ट पाँच साल पहले ही अवैध घोषित कर चुका है क्या उसको फिर से लागू करने की तैयारी है? यदि ऐसा तो क्या समाज को पीछे धकेलने जैसा नहीं होगा?

समय के साथ समाज बदलता है और इसके साथ सामाजिक मान्यताएँ, मूल्य व विचार भी। लेकिन क्या ऐसा बदलाव पीछे ले जाने वाला होना चाहिए? समलैंगिकता से जुड़ी धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले और रद्द किए जा चुके व्यभिचार क़ानून को लेकर जो मीडिया रिपोर्टें आ रही हैं वे इसी ओर इशारा कर रही हैं। 

मौजूदा आपराधिक कानूनों को बदलने के लिए तीन विधेयकों की समीक्षा कर रहे एक संसदीय पैनल ने ऐसे बदलाव के संकेत दिए हैं। इंडिया टुडे ने सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट दी है कि अपनी मसौदा रिपोर्ट में बीजेपी सांसद बृजलाल की अध्यक्षता वाली गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने व्यभिचार कानून को वापस लाने की सिफारिश की है। समिति ने इसमें लिंग-तटस्थ प्रावधान जोड़ने के साथ-साथ पुरुषों, महिलाओं या ट्रांसपर्सनों के बीच बिना सहमति के यौन संबंध को अपराध मानने की सिफारिश की है। लिंग-तटस्थ का अर्थ है कि पुरुष और महिला दोनों को सजा का सामना करना पड़ सकता है।

यानी समिति व्यभिचार (आईपीसी की धारा 497) को फिर से अपराधीकरण करने की सिफारिश कर रही है। इसे 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपराधमुक्त कर दिया था। व्यभिचार के अलावा आईपीसी की धारा 377 को भी बहाल करने की सिफारिश की जा सकती है। धारा 377 पहले समलैंगिकता को अपराध मानती थी। 2018 में सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फ़ैसले में आंशिक रूप से रद्द कर दी गई थी। हालाँकि, कानून के कुछ प्रावधान लागू हैं।

2018 में समलैंगिकता से जुड़ी धारा 377 पर सुनवाई में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। इस फ़ैसले से पहले समलैंगिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत एक आपराधिक जुर्म था।

मसौदा रिपोर्ट में यह सिफारिश करने की संभावना है कि व्यभिचार को फिर से एक आपराधिक अपराध बनाया जाए - या तो 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किए गए कानून को बहाल करके या एक नया कानून पारित करके।

2018 में पांच सदस्यीय पीठ ने फ़ैसला सुनाया था कि व्यभिचार अपराध नहीं हो सकता और न ही होना चाहिए।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा था, 'यह तलाक के लिए एक सिविल ऑफेंस का आधार हो सकता है।' उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि 163 साल पुराना, औपनिवेशिक युग का कानून पति को पत्नी का मालिक मानने की अमान्य अवधारणा पर आधारित है।

बता दें कि कानून में तब कहा गया था कि यदि एक पुरुष ने एक विवाहित महिला के साथ उसके पति की सहमति के बिना यौन संबंध बनाया तो दोषी पाए जाने पर पांच साल की सजा हो सकती है। महिला को सज़ा नहीं होगी।

मसौदा रिपोर्ट में बिना मंजूरी वाले विरोध या प्रदर्शन करने पर सज़ा को मौजूदा दो साल से घटाकर अधिकतम एक साल करने का भी सुझाव दिया गया है। इसके अतिरिक्त, समिति लापरवाही के कारण मौत के मामलों में सज़ा को मौजूदा छह महीने से बढ़ाकर पांच साल करने का प्रस्ताव करती है।

बता दें कि भारत में आपराधिक न्यायशास्त्र को पूरी तरह से बदलने के उद्देश्य से तीन प्रस्तावित आपराधिक कानूनों को अगस्त में संसद के मानसून सत्र में पेश किया गया था। केंद्र ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को क्रमशः भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम से बदलने की पेशकश की है।

समय के साथ समाज बदलता है और इसके साथ सामाजिक मान्यताएँ, मूल्य व विचार भी। यानी एक समय में जिसे समाज ग़लत मानता हो कोई ज़रूरी नहीं कि आने वाले समय में भी उसे ग़लत ही माना जाए। समलैंगिकता से जुड़ी धारा 377 और व्यभिचार क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने यही साबित किया था। लेकिन यदि अब फिर से इन्हें अपराध की श्रेणी में लाया जाता है तो फिर इसे क्या कहा जाएगा?

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें