मानसून की संसद और संसद का मानसून
देश की संसद में मानसून कल यानी 20 जुलाई से आएगा और 11 अगस्त तक बरसेगा। मौजूदा सरकार का ये आखिरी मानसून सत्र होगा। इस सत्र में सरकार कितनी भीगेगी या विपक्ष को कितना भिगोएगी, ये देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि विपक्ष अब एक नए नाम के साथ संसद में उपस्थित होने जा रहा है। संसद के इस महत्वपूर्ण और रोचक सत्र में एनडीए के बादल इंडिया के बादलों का मुकाबला करेंगे। संसद के मानसून सत्र की गड़गड़ाहट संसद के बाहर तो आप सुन ही रहे थे, अब भीतर भी सुनेंगे।
देश में मानसून को चातुर्मास कहते हैं लेकिन संसद में ये मानसून को कुछ नहीं कहते। इस बार संसद का मानसून सत्र केवल 17 दिन का है। इन सत्रह दिनों में कितने दिन काम होगा और कितने दिन हंगामा इसकी भविष्यवाणी करना कठिन है। वैसे भी मानसून सत्र के हंगामेदार रहने के आसार हैं। एक ओर जहाँ सत्ता पक्ष महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने का प्रयास करेगा, वहीं दूसरी ओर विपक्ष मणिपुर हिंसा, रेल सुरक्षा, महंगाई और अडानी मामले पर जेपीसी गठित करने की मांग सहित अन्य मुद्दों पर सरकार को घेरने की कोशिश करेगा। लोकसभा सचिवालय के एक बुलेटिन के अनुसार, संसद के मानसूत्र सत्र यानी 17वीं लोकसभा के 12वें सत्र के दौरान लिये जाने वाले सरकारी कार्यों की संभावित सूची में 21 नये विधेयकों को पेश व पारित करने के लिए शामिल किया गया है।
संसद के मानसून सत्र में सबसे ज़्यादा सत्ता पक्ष की ओर से प्रधानमंत्री जी को ही गरजना-बरसना है। सबसे ज्यादा हंगामा तो दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन विधेयक 2023 पर होना है। यह विधेयक संबंधित अध्यादेश का स्थान लेने के लिए पेश किया जाएगा। आम आदमी पार्टी इस मुद्दे को लेकर सरकार पर निशाना साध रही है। आम आदमी पार्टी ने इस अध्यादेश के विरोध में समूचे विपक्ष का समर्थन हासिल कर लिया है। सरकार के लिए भी ये मुद्दा प्रतिष्ठा का है, भले ही इस अध्यादेश को क़ानून बनाने से संघीय ढांचा चरमरा जाये। मुझे लगता है कि सरकार विपक्ष के विरोध की परवाह किये बिना इस विधेयक को हंगामे के बीच ध्वनिमत से पारित करा लेगी। उसे अब विपक्ष से सीधे टकराने में कोई परहेज नहीं है।
देश में मानसून हालाँकि अक्सर केरल से बनता है किन्तु इस बार का सियासी मानसून बेंगलोर से बना है। बेंगलोर में ही विपक्ष का नया गठबंधन 'इंडिया' के नाम से प्रकट हुआ है।
आम बोलचाल की भाषा में इसे आप नयी बोतल में पुरानी शराब कह सकते हैं। शराब इसलिए क्योंकि आज की सियासत भी एक तरह का मद है। गैर भाजपाई गठबंधन में आप को छोड़ कोई नया दल शामिल नहीं हुआ है। फिर भी विपक्ष की एकजुटता पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा दिखाई दे रही है। विपक्ष की एकजुटता यदि केंद्र सरकार को दिल्ली अध्यादेश को विधेयक में बदलने से रोक पायी तो ये उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, लेकिन ऐसा कर पाना आसान काम नहीं है। सत्ता पक्ष ने भी विपक्ष को डराने के लिए अपने कुनबे में तमाम जले-अधजले चिराग शामिल कर लिए हैं।
संसद का ये मानसून सत्र मौजूदा संसद भवन में सम्भवत अंतिम सत्र है। इसके साथ ही 1927 में बने इस संसद भवन में कोई संसदीय कार्य नहीं होगा। क्योंकि नया संसद भवन बन चुका है। उसका उद्घाटन हो चुका है।
उसे शायद नयी लोकसभा के गठन तक के लिए इस्तेमाल करने से बचा जा रहा है। कायदे से संसद का ये मानसून सत्र हंसी-ख़ुशी आयोजित किया जाना चाहिए किन्तु पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक अदावतें बढ़ी हैं उसे देखकर नहीं लगता कि ऐसा कुछ हो पायेगा। संसद के मानसून सत्र के पहले होने वाली सर्वदलीय बैठक के स्वरूप से इसके संकेत मिल रहे है। राजयसभा के प्रमुख तो ये बैठक आयोजित कर ही नहीं पाए। अब सत्तापक्ष और विपक्ष के सांसद संसद में गले मिलते और हाथ मिलाते नज़र ही कहाँ आते हैं। सब एक दूसरे से कन्नी काटते दिखाई देते हैं।
पिछले 9 साल में संसद का स्वरूप तेजी से बदला है। संसदीय महाभारत में संसद कौरव -पांडवों की सेना की तरह दिखाई देते हैं। सौजन्य तो अब जैसे सिरे से गायब हो गया है। और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है, ये बताने की ज़रूरत नहीं है। संसद में सौजन्य बनाये रखने की ज़िम्मेदारी हालाँकि सभी दलों की होती है किन्तु सत्ता पक्ष और संसदीय कार्यमंत्री विशेष रूप से जबाबदेह होते हैं। प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता भी सौजन्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते आये हैं लेकिन हाल के वर्षों में ये परम्परा टूट गयी है। कांग्रेस के राहुल गांधी ने एक बार प्रधानमंत्री के गले मिलने की कोशिश की भी तो उसका मजाक उड़ाया गया। बहरहाल, अपने-अपने टीवी सेट ठीक करा लीजिये ताकि आप संसद के आखिरी सत्र में होने वाली सियासी बरसात के साक्षी बन सकें। ये मौक़ा बार-बार आने वाला नहीं है।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक से साभार)