मंगलवार तड़के यह ख़बर आयी कि भारतीय वायुसेना ने लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) के उस पार जैश-ए-मुहम्मद के बालाकोट (ख़ैबर पख़्तूनख़्वा) ठिकानों पर हमले किए। शुरुआती समाचारों में बालाकोट, मुज़फ़्फ़राबाद पर हमले की बात आ रही थी जो कि एलओसी के काफ़ी नज़दीक है। कुछ और जगहों पर भी हमले की बात हो रही है। इस पूरे ऑपरेशन में कुछ बातें सामने निकल कर आ रही हैं जिससे यह पता लग रहा है कि किस तरह इक्कीसवीं सदी का भारत अपने शान्ति दूत कहलाने की इतिहास की विवशता और झिझकते शौर्य को निकाल फेंक विश्व समुदाय में अपनी जगह लेने को आतुर है।
यह बालाकोट एलओसी से क़रीब 200 किलोमीटर अंदर है और यह पाक अधिकृत कश्मीर नहीं, पाकिस्तान का एक सूबा है। हमारी वायु सेना वहाँ घुस कर मार रही है तो इसके पीछे ना सिर्फ़ सेनाओं का अभेद्य साहस है, बल्कि एक शानदार कूटनीतिक तैयारी एवं युद्ध कौशल के साथ नए तकनीकों का इस्तेमाल का भी परिणाम है। यह एक संकेत है कि भारत ने अब ख़ुद को गम्भीरता से लेना शुरू तो किया है। भारत की स्पेस सैटेलाइट का ज़बर्दस्त इस्तेमाल हुआ और आतंकवादी कैम्पों के सही ठिकाने पूरे को-ऑर्डिनेशन के साथ वायु सेना के पास रहे होंगे। आकाश के ऊपर ही इंधन भरने वाला आइएल-78 जहाज़ भी साथ में उड़ रहा था। मतलब साफ़ कि पूरी और लम्बी तैयारी के साथ गए थे।
पिछले दिनों एक बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में मिली।
सर्वसम्मति से सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव लाकर जैश-ए-मुहम्मद को ज़िम्मेदार मानते हुए पुलवामा के हमले की न सिर्फ़ निंदा की बल्कि भारत को इसके दोषियों पर कार्रवाई करने का अधिकार भी दिया और इस पर विश्व समुदाय को भारत की मदद करने को कहा गया।
पाकिस्तान का मित्र चीन भी इस प्रस्ताव को वीटो नहीं कर पाया और देखता रह गया। इस ख़बर पर पाकिस्तानी चैनल पर उनके विशेषज्ञ सर पीटते, मातम करते देखे गए। पता नहीं भारतीय चैनल पर यह कोई बड़ी ख़बर क्यों नहीं थी। यह हमारे विदेश सेवा के अधिकारियों की अगाध मेहनत का नतीजा है। आज़ादी के बाद हमने कितनी जंगें लड़ीं और कितने ही आतंकवादी हमले हुए। पर कभी भी सुरक्षा परिषद ने हमारे पक्ष में कोई भी इस तरह का प्रस्ताव नहीं लाया। उलटे हमारे ऊपर ही अमेरिकी प्रभाव के अंदर सुरक्षा परिषद हमारे ख़िलाफ़ प्रस्ताव लाते रहे जिसमें रूस वीटो कर हमें बचाता रहा। यह पहली बार हुआ है कि पश्चिमी देश भी भारत का आतंकवाद के मुद्दे पर एक साथ समर्थन देते दिख रहें हैं। उसके बाद भारतीय दूतावासों ने पचास से ज़्यादा देशों में पुलवामा हमले के बाद सबको अपने विश्वास में लिया। विदेश मंत्रालय सभी बड़े देशों के राजदूतों को पुलवामा हमले में पाकिस्तान के हाथ होने के सबूत दिए। अब आलम यह है कि अमेरिका हमारे आत्मरक्षा के अधिकार को स्वीकार करता है और फ़्रान्स अज़हर मसूद को आतंकवादी घोषित करने के लिए नया प्रस्ताव ला रहा है।
क्या यह पुलवामा हमले का बदला नहीं?
यह हमला कोई युद्ध की शुरुआत नहीं है, बल्कि भारत ने यह जान कर कि जैश फ़िर हमले करने वाला है, अपने बचाव में जैश के ठिकानों पर प्री-एम्पटिव स्ट्राइक (हमले के शिकार होने के पहले का हमला) की है। तकनीकी रूप से जैसा कि विदेश सचिव ने प्रेस कॉन्फ़्रेन्स ने कहा कि हमने पुलवामा का बदला नहीं, बल्कि आगे दुबारा वैसा हमला ना हो उसके लिए अपने बचाव में आक्रमण किया है। अगर इस हमले को अन्तरराष्ट्रीय क़ानून की नज़र से देखें तो यह बिल्कुल ही जायज़ है और एक तरह से सुरक्षा परिषद की इसकी अनुमति भी है।
पैंतीस साल पुराने मिराज-2000 से हमला
यह हमला पैंतीस साल पुराने मिराज 2000 से किया गया। अगर यह किसी रफ़ाल से हुआ होता तो नज़ारा कुछ और होता। मिराज कम ऊँचाई पर उड़ सकता है और प्रिसिज़न गाइडेड मिसाइल से हमले कर सकता है। पर दुश्मन के रडार से इसे ख़ुद बचना है। पर रफ़ाल आपको रडार और पहाड़ों के बीच से स्वयं निकाल ले जाने में सक्षम है। हमारी वायु सेना में क़रीब ढाई सौ जहाज़ों की कमी है। अभी छत्तीस रफ़ाल आने हैं और उस पर ही मार काट मची है। बात यह है कि हमारी वायु सेना की क्षमता सीमित है और हम अपने पायलट के साहस और ट्रेनिंग के बलबूते पर ही लड़ रहें हैं। हमारी सरकारें वोट के लिए पैसे तो लुटाती है पर रक्षा व्यय पर हाथ सख़्त होते हैं और घमासान भ्रष्टाचार मचा होता है। क्या सभी दल रक्षा व्यय और सौदे के मामले में एकमत नहीं हो सकते जितना इस जंग के समय दिख रहे हैं?
अभी तो खेल शुरू हुआ है। अगर पाकिस्तानी कुछ और बेवक़ूफ़ी करते हैं तो दूसरे मोर्चे पर पूर्ण युद्ध की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। पर आज़ादी की क़ीमत है और चुकानी पड़ेगी।