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विपक्षी मुख्यमंत्रियों में प्रधानमंत्री इतने अलोकप्रिय क्यों हैं? 

विपक्षी मुख्यमंत्रियों में प्रधानमंत्री इतने अलोकप्रिय क्यों हैं? 

विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्री आखिर क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बेरूखी भरा व्यवहार कर रहे हैं? क्या इसके लिए प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले सप्ताह 26 मई को जब तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद पहुँचे तो राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव उनकी अगवानी के लिए मौजूद नहीं थे। वे प्रधानमंत्री के हैदराबाद पहुंचने से कुछ घंटे पहले ही बेंगलुरू के लिए रवाना हो गए, जहां उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से मुलाकात की। 

प्रधानमंत्री इसी साल 5 फरवरी को जब संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण करने हैदराबाद पहुंचे थे तब भी मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव उनकी अगवानी करने न तो हवाई अड्डे पर पहुंचे थे और न ही बाद में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में शामिल हुए थे।

हालांकि उस समय तेलंगाना में या हैदराबाद शहर में कोई चुनाव भी नहीं हो रहा था, जो यह माना जाए कि राजनीतिक कारणों से मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री की तेलंगाना यात्रा का बहिष्कार किया। 

प्रधानमंत्री एक धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने हैदराबाद गए थे, इसलिए प्रधानमंत्री के पद का मान और अपने पद की मर्यादा रखते हुए मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव को मोदी की अगवानी करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने इस सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार का पालन नहीं किया।

बहरहाल, चंद्रशेखर राव पहले ऐसे विपक्षी मुख्यमंत्री नहीं हैं, जिन्होंने अपने सूबे में आए प्रधानमंत्री का इस तरह बहिष्कार किया हो। कुछ ही दिनों पहले (25 अप्रैल को) भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के बीच जारी तनातनी के बीच प्रधानमंत्री मोदी जब लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार ग्रहण करने मुंबई पहुंचे थे तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी उनकी अगवानी के लिए हवाई अड्डे पर नहीं गए। 

बाद में वे उस कार्यक्रम में भी शामिल नहीं हुए जिसमें लता मंगेशकर के परिजनों ने प्रधानमंत्री मोदी को सम्मानित किया था। 

हालांकि शिव सेना की ओर से इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा गया था, लेकिन अनौपचारिक तौर पर बताया गया था कि पुरस्कार समारोह के निमंत्रण पत्र में मुख्यमंत्री का नाम नहीं था, जिसे उद्धव ठाकरे ने अपना और राज्य की जनता का अपमान माना और इसीलिए वे उस कार्यक्रम में नहीं गए। यह भी बताया गया था कि लता मंगेशकर के परिजनों ने भाजपा और शिव सेना के तनावपूर्ण रिश्तों के मद्देनजर निमंत्रण पत्र में मुख्यमंत्री का नाम नहीं डाला था। अलबत्ता मंगेशकर परिवार के दो सदस्य मुख्यमंत्री को आमंत्रित करने उनके सरकारी निवास पर जरूर गए थे। 

महाराष्ट्र में भी यह पहला मौका नहीं था जब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने सूबे में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम से इस तरह दूरी बनाई हो। उससे दो महीने पहले 6मार्च को जब प्रधानमंत्री पुणे में मेट्रो रेल परियोजना का उद्घाटन करने पहुंच थे तब भी उद्धव ठाकरे उस कार्यक्रम से भी दूर रहे थे। उस वक्त शिव सेना की ओर से बताया गया था कि मुख्यमंत्री का ऑपरेशन हुआ है और डॉक्टरों ने उन्हें अभी कुछ दिन आराम करने को कहा है। 

पंजाब का मामला 

इस वाकये से ठीक दो महीने पहले 5 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी पंजाब के बठिंडा पहुंचे थे तो वहां भी उनकी अगवानी के लिए सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मौजूद नहीं थे। प्रधानमंत्री को हुसैनीवाला में शहीद स्मारक पर जाना था और कुछ परियोजनाओं का शिलान्यास करना था। 

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लेकिन मुख्यमंत्री ने अपनी अस्वस्थता का हवाला देकर किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने में पहले ही असमर्थता जता दी थी। यह अलग बात है कि किसान आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री की वह यात्रा पूरी नहीं हो सकी थी और कथित सुरक्षा चूक के मामले से भारी विवाद पैदा हो गया था। 

पश्चिम बंगाल का मामला 

उससे पहले पिछले साल पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही हुआ था। प्रधानमंत्री 28 मई को चक्रवाती तूफान का जायजा लेने जब बंगाल पहुंचे थे तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनके साथ समीक्षा बैठक में शामिल नहीं हुई थीं। प्रधानमंत्री उनका इंतजार करते रहे थे लेकिन ममता बनर्जी ने आकर उन्हें नमस्ते किया था और कुछ जरूरी कागज उन्हें थमा कर चली गई थीं। 

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मोदी और ममता के बीच संबंधों की यह तल्खी इसी साल 23जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के मौके पर कोलकाता में आयोजित कार्यक्रम में भी देखी गई। ममता बनर्जी के भाषण के दौरान प्रधानमंत्री की मौजूदगी में जय श्रीराम के नारे लगे थे, जिससे नाराज होकर वे अपना भाषण पूरा किए बगैर ही कार्यक्रम छोड़ कर चली गई थीं। इसी तरह पिछले साल मई के महीने में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रधानमंत्री ने कई मुख्यमंत्रियों को फोन किया था। 

हेमंत सोरेन की नाराजगी

उसी सिलसिले में उन्होंने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी टेलीफोन किया था तो उसके बाद मुख्यमंत्री सोरेन ने कहा था कि प्रधानमंत्री सिर्फ अपने मन की बात करते हैं, बेहतर होता कि वे काम की बात करते और काम की बात सुनते। यही शिकायत करते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी कहा था कि प्रधानमंत्री के मुख्यमंत्री की जो बैठकें होती हैं, उनमें सिर्फ वन-वे होता है। प्रधानमंत्री सिर्फ अपनी बात कहते हैं, मुख्यमंत्रियों की बात का कोई जवाब नहीं मिलता है। 

ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा और सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। 

सरकार के आठ साल 

सवाल है कि आखिर पिछले आठ साल में ऐसा क्या हुआ है, जो विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के प्रति ऐसा उपेक्षा या बेअदबी भरा बर्ताव कर रहे हैं? राजनीति में वैचारिक टकराव पहले भी रहा है और पहले भी केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रही हैं, लेकिन किसी प्रधानमंत्री के साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। 

तो सवाल यह उठता है कि अभी जो हो रहा है, क्या उसे भाजपा विरोधी पार्टियों की राजनीतिक असहिष्णुता या दुराग्रह मान कर खारिज किया जा सकता है या इसके कुछ गंभीर कारण हैं, जिनकी पड़ताल और निराकरण जल्द से जल्द होना चाहिए? 

असल में प्रधानमंत्री के प्रति देश के अलग-अलग राज्यों में उभर रही इस किस्म की प्रवृत्ति को गंभीरता से समझने की जरूरत है। आखिर ऐसा क्या हुआ है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं के मुख्यमंत्री इस तरह का बरताव कर रहे हैं? 

सबसे पहले इस तथ्य को रेखांकित करने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री के प्रति बेअदबी की लगभग सारी घटनाएं पिछले एक साल की है। उससे पहले राजनीतिक विरोध के बावजूद सामान्य शिष्टाचार था और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी होता था। 

विरोधी दलों और उनके नेताओं के प्रति प्रधानमंत्री की अपमानजनक बातें शुरू में जरूर अटपटी लगी थी। चूंकि भाजपा और मोदी ने काफी बडी जीत हासिल की थी, इसलिए विपक्षी नेताओं ने यह सोच कर बर्दाश्त किया कि जीत की खुमारी उतर जाने पर प्रधानमंत्री राजनीतिक विमर्श में सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार और भाषायी शालीनता का पालन करने लगेंगे। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ और लगने लगा कि यही मोदी की स्वाभाविक राजनीतिक शैली है और वे बदलने वाले नहीं हैं, तब विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूटा और उसमें सारे राजनीतिक शालीनता और मर्यादा बहती गई। 

देश में शायद ही कोई ऐसा विपक्षी मुख्यमंत्री या नेता होगा, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपमानजनक बातें नहीं की होगी। मोदी उन्हें भ्रष्ट, परिवारवादी, लुटेरा, नक्सली, आतंकवादियों का समर्थक और देशद्रोही तक करार देने में भी संकोच नहीं करते हैं।

मोदी ने यह सिलसिला सिर्फ चुनावी सभाओं तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि संसद में, संसद के बाहर विभिन्न मंचों पर और यहां तक कि विदेशों में भी वे विपक्षी नेताओं पर निजी हमले करने से नहीं चूकते हैं। फिर विपक्ष शासित राज्यों के प्रति उनकी सरकार के व्यवहार ने भी केंद्र और राज्यों के बीच खटास पैदा की है। केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी नेताओं और उनके परिजनों के यहां छापे मार रही हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ कर कार्रवाई की जा रही है, खास कर चुनावों के वक्त। लेकिन जैसे ही आरोपी नेता भाजपा में शामिल हो जाता है, वैसे ही उसके खिलाफ जांच बंद हो जाती है, उसे क्लीन चिट मिल जाती है।

प्रधानमंत्री ने तमाम विपक्षी दलों को अपने, अपनी पार्टी और देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित किया और उन्हें खत्म करने का खुला ऐलान किया है। वे हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार करते हैं, जैसे विपक्ष की सारी सरकारें जनविरोधी, देश विरोधी और विकास विरोधी हैं। प्रधानमंत्री की इस राजनीति ने विपक्षी पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर किया। इसलिए आज अगर प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर आंच आ रही है और पद की बेअदबी हो रही है तो इसके लिए प्रधानमंत्री का अंदाज-ए-हुकूमत और अंदाज-ए-सियासत ही जिम्मेदार है।

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