क्या ‘मनुस्मृति दहन’ के लिए डॉ. आंबेडकर को भी जेल भेजते योगी?
- 25 दिसंबर 1927: भारत में अंग्रेज़ सम्राट किंग जॉर्ज पंचम के प्रतिनिधि बतौर वायसराय लॉर्ड इरविन का शासन था। डॉ. आंबेडकर ने महाराष्ट्र के कोलाबा में मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया। कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया। पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. आंबेडकर के ख़िलाफ़ लेख लिखे गये, लेकिन सरकार ने इसे अपराध नहीं माना।
- 25 दिसंबर 2024: दिल्ली में नरेंद्र मोदी और यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी गठबंधन की सरकार है। पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के 13 विद्यार्थी जिनमें तीन छात्राएँ भी हैं, गिरफ़्तार किये गये। भगत सिंह छात्र मोर्चा से जुड़े ये छात्र-छात्राएँ विश्वविद्यालय के आर्ट्स फैकल्टी ग्राउंड में ‘मनुस्मृति’ पर चर्चा के लिए इकट्ठा हुए थे। पुलिस का आरोप है कि इनका इरादा मनुस्मृति जलाने का था। रात भर थाने में रखे जाने के बाद इन सभी विद्यार्थियों को 14 दिन की न्यायिक हिरासत के तहत जेल भेज दिया गया।
यानी अंग्रेज़ी राज में डॉ. आंबेडकर शूद्र और स्त्रियों की ग़ुलामी के दस्तावेज़ मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन कर सकते थे, लेकिन 97 बरस बाद मोदी-योगी राज में मनुस्मृति पर विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएँ चर्चा भी नहीं कर सकते। दिलचस्प बात है कि बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में मनुस्मृति पर रिसर्च के लिए फ़ेलोशिप प्रोग्राम चलता है। इसकी आलोचना का जवाब यह कहते हुए दिया गया था कि विश्वविद्यालय में हर विषय पर अध्ययन और शोध होना चाहिए। लेकिन मनुस्मृति पर चर्चा करने वाले छात्र-छात्राओं पर पुलिसिया कार्रवाई का अर्थ यह है कि यूपी में मनुस्मृति की ‘प्रतिष्ठा’ तो की जा सकती है, उसकी आलोचना नहीं।
पुलिस का आरोप है कि आरोपी विद्यार्थी सिर्फ़ चर्चा नहीं कर रहे थे, उनका इरादा मनुस्मृति दहन का भी था। सवाल ये है कि यह इरादा ‘आपराधिक’ कैसे हो गया? क्या योगी सरकार मानती है कि यूपी में मनुस्मृति का दहन करना अपराध है? क्या ऐसा करके डॉ. आंबेडकर ने अपराध किया था? 25 दिसंबर को देश भर में तमाम दलित संगठन ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ के रूप में मनाते हैं तो क्या वे अपराधी हैं? ड़ॉ. आंबेडकर के सम्मान की क़समें खाने वाले बीजेपी नेताओं के पास इस बात का क्या जवाब है कि अगर डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति जलायी थी तो उनके अनुयायियों का ‘मनुस्मृति दहन’ का इरादा रखना भी अपराध कैसे हो गया? बनारस का नागरिक समाज ये तमाम सवाल लेकर सड़कों पर है। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है कि 13 नौजवान लड़के-लड़कियाँ डॉ. आंबेडकर के विचारों पर चर्चा के कारण इस भीषण ठंड में जेल में हैं। दूर-दराज़ से आये उनके अभिभावक ज़मानत के लिए भटक रहे हैं।
सामाजिक न्याय की दृष्टि से अंग्रेज़ी राज से भी गयी-गुज़री साबित हो रही मोदी-योगी सरकार ने साफ़ कर दिया है कि वह डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा के सामने तो सिर झुकाएगी। उनके नाम पर संस्थान और स्मारक भी बनवायेगी, लेकिन डॉ. आंबेडकर के विचारों पर चर्चा करने वालों को वह सामाजिक सद्भाव के लिए ख़तरा मानते हुए जेल में डाल देगी। वह भूल गयी है कि डॉ. आंबेडकर के बनाये संविधान में नागरिकों को ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ भी दी गयी है और जिन्हें लगता है कि मनुस्मृति उन्हें ग़ुलाम बनाने को धर्मसम्मत बताती है तो वे उसकी आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं!
जब योगीराज की पुलिस कहती है कि मनुस्मृति पर चर्चा या दहन करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जाएगा तो वह स्वीकार कर लेती है कि समाज का कोई हिस्सा इससे आहत होता है। यानी वह मनुस्मृति के पक्ष में है। यानी उत्तर प्रदेश शासन शपथ तो संविधान की लेता है लेकिन अपराध मनुस्मृति की निंदा को मानता है। वह भूल गया है कि मनुस्मृति जैसे विधानों को दफ़नाकर ही संविधान की रचना संभव हुई थी।
डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति ऐसे ही नहीं जलाया था। महाराष्ट्र में पेशवाशाही में जिस तरह शूद्रों पर अत्याचार हुए थे, वह लोगों की स्मृति में ताज़ा थे। डॉ. आंबेडकर से पहले ज्योतिबा फुले जैसे क्रांतिकारी समाज सुधारक ने मनुस्मृति की तीखी आलोचना की थी।
वे मानते थे कि हिंदू मानस में असमानता को ‘धर्मसम्मत’ बनाने में इस ग्रंथ का बड़ा हाथ है। ज्योतिबा फुले ने 1873 में प्रकाशित अपनी मशहूर पुस्तक ‘गुलामगीरी’ में अंग्रेज़ी राज की यह कहकर प्रशंसा की है कि उन्होंने अमानवीय और अत्याचारी ब्राह्मणी विधान को मान्यता नहीं दी है। उन्होंने इसकी प्रस्तावना में लखा है कि 'ब्राह्मणों ने मक्कारी और छल-प्रपंच का सहारा लेकर और ईश्वरीय कोप का भय दिखाकर अपने को सर्वोपरि घोषित किया।’
लेकिन यह मानना भी ठीक नहीं है कि सभी ब्राह्मण या कथित ऊँची जाति के लोग मनुस्मृति दहन या इसकी निंदा करने से नाराज़ हो जाते हैं और इससे सद्भाव बिगड़ता है। बीएचयू के जो विद्यार्थी जेल में हैं उनमें कई ब्राह्मण और अन्य ऊँची कही जानी वाली जातियों में जन्मे हैं। हक़ीक़त ये है कि मनुस्मृति दहन का प्रस्ताव भी डॉ. आंबेडकर के एक ब्राह्मण जाति के सहयोगी गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे ने दिया था। यही नहीं, महाड के चावदार तालाब के किनारे मनुस्मृति जलाने की सूचना पाकर लोकमान्य तिलक के बेटे श्रीधर पंत ने टेलीग्राम भेजकर बधाई दी थी।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कट्टर सनातनी ब्राह्मण माने जाते थे। जातिप्रथा का समर्थन करते थे। डॉ. आंबेडकर ने उनकी काफ़ी तीखी आलोचना की थी। यहाँ तक कहा था कि ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ कहने वाले लोकमान्य तिलक दरअसल ‘ब्राह्मण स्वराज्य’ की बात कर रहे हैं। लेकिन उन्हीं तिलक के बेटे श्रीधर पंत डॉ. आंबेडकर के अनन्य सहयोगी थे। यहाँ तक कि उन्होंने पुणे में अपने घर ‘गायकवाड़ बाड़ा’ पर एक बोर्ड लगा दिया था जिस पर ‘चातुर्वर्ण्य विध्वंसक समिति’ लिखा था। 8 अप्रैल 1928 को इसी गायकवाड़ बाड़ा में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में ‘समाज समता संघ’ की स्थापना हुई थी जिसमें भाषण देते हुए श्रीधर पंत ने कहा था, “हिंदू धर्म की स्थिति कीचड़ में फँसे हाथी की तरह हो गयी है। समाज समता संघ रूपी विष्णु ही इस हाथी को कीचड़ से बाहर निकालने का काम कर सकता है। चातुर्वर्ण्यजन्य से जो असमानता हिंदू समाज में व्याप्त है, उसे नष्ट करने के विशिष्ट उद्देश्य से इस संघ की स्थापना हो रही है।”
स्वाभाविक था कि पुणे और महाराष्ट्र के कट्टर सनातनी श्रीधर पंत का ज़बरदस्त विरोध करते। इसी के साथ लोकमान्य तिलक के बनाये ‘केसरी-मराठा ट्रस्ट’ में अपनों की दग़ाबाज़ी से दुखी श्रीधरपंत ने 25 मई 1928 को ट्रेन से कटकर आत्महत्या कर ली। डॉ. आंबेडकर ने श्रीधर पंत को ‘अपना महत्वपूर्ण सहयोगी’ बताते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।
आशय ये है कि मनुस्मृति का पक्ष-विपक्ष में होना किसी की ‘जन्मना जाति' से तय नहीं होता। इस बात से तय होता है कि कोई व्यक्ति संविधान के पक्ष में है या असमानता की सदियों पुरानी सामाजिक व्यवस्था में ‘राष्ट्रीय गौरव’ ढूँढ रहा है। मोदी और योगी आदित्यनाथ जिस ‘हिंदू-राष्ट्र’ का स्वप्न दिखा रहे हैं, वह यही बताता है और संविधान को दफ़नाकर ही संभव है। यूपी पुलिस का बीएचयू के विद्यार्थियों को गिरफ़्तार करना बताता है कि उसके लिए संविधान नहीं मनुस्मृति महत्वपूर्ण है और इसके विरोधियों को जेल में डालने की ‘महाराज जी’ यानी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इच्छा को ही उसने पूरा किया है।
सवाल है कि क्या इस योगी राज में डॉ. आंबेडकर भी मनुस्मृति दहन के आरोप में गिरफ़्तार होते? अमित शाह के संसद में डॉ. आंबेडकर को दिये बयान को अपमान मानते हुए देश भर में लोग पहले से आंदोलित हैं, ऐसे में योगी सरकार का डॉ. आंबेडकर के अनुयायियों को जेल भेजना उसके दलित, स्त्री और संविधान विरोधी रवैये पर मुहर की तरह है।