स्टीव जॉब्स, एप्पल कंप्यूटर के संस्थापकों में से एक थे। उन्हें आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी और नव-संचार के क्षेत्र के महानतम विचारकों में से एक माना जाता है। उनसे जुड़ी कहानियाँ, उनके विचार और उनके उद्धरण दुनिया भर में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उनका एक उद्धरण आज भी बेहद लोकप्रिय है कि ‘आप आगे देखकर बिन्दुओं को परस्पर जोड़ नहीं सकते; उन्हें जोड़ने के लिए आपको पीछे देखना ही होगा।’
जॉब्स का यह उद्धरण लोगों को उनके वर्तमान संघर्षों के साथ दृढ़ रहने के लिए प्रेरित करना है; तथा उन्हें यह विश्वास दिलाता है कि वर्तमान के ये संघर्ष भविष्य में अपनी अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करेंगे। दूसरे शब्दों में अतीत के कर्म निश्चित रूप से भावी परिणाम की रूप-रेखा निर्धारित करते हैं। लेकिन, स्टीव जॉब्स का यह उद्धरण दुनिया भर की कई लोकतांत्रिक सरकारों के पतन की प्रक्रिया और नागरिक स्वतंत्रता को धीरे-धीरे सीमित कर तानाशाह राज्य बनने की प्रक्रिया की तरफ़ भी इशारा करता है।
एक लोकतान्त्रिक राज्य का तानाशाही राज्य में बदलना रातोंरात नहीं होता, बल्कि सरकार के द्वारा सुनियोजित तरीक़े से धीरे-धीरे लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन और जनता के अधिकारों में कटौती एक तानाशाही राज्य की रूप-रेखा तैयार करती है।
दुनिया भर में सभी अलोकतांत्रिक सरकारों की कार्यशैली लगभग एक सी होती है। अलोकतांत्रिक सरकारें जनता में ‘भय और असुरक्षा’ का माहौल तैयार करती हैं; तथा जो लोग निर्वाचित प्रतिनिधियों या सरकार से जवाब मांगने की हिम्मत करते हैं, उन्हें जेल में डाल दिया जाता है। ऐसी सरकारें जनता जनार्दन के प्रति नहीं बल्कि स्वयं के प्रति जवाबदेह होती हैं।
अलोकतांत्रिक सरकारों के इन दमनकारी क़दमों का प्रभाव सिर्फ़ मानव स्वतंत्रता के निलंबन तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनके दूरगामी प्रभाव बेहद विध्वंशकारी होते हैं। ऐसा कोई भी देश जहाँ की सरकारों से कठिन प्रश्न पूछने वाली संस्थाएँ; तथा सरकार को उसकी ग़लतियों के लिए जवाबदेह ठहराने वाली साहसी आम जनता अपने कर्तव्य भूल जाती है, सरकारें निरंकुश होकर समस्त देश को विनाश के गर्त में धकेल देती हैं।
सन 1958 और 1962 के दौरान माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक अति महत्वाकांक्षी आर्थिक और सामाजिक अभियान के माध्यम से चीन की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने की कवायद शुरू की थी। लेकिन, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘डर’ के प्रति भरोसा जताया और अपनी सरकार के ख़िलाफ़ हर आलोचना को सेना के बूट के तले दबा दिया। लोग भयभीत होकर खामोश हो गए। सत्ता की हनक ने सरकारी अधिकारियों की जबान पर ताला जड़ दिया।
बाद के अध्ययनों में पाया गया कि लोगों की आवाज़ अनसुनी करने की क़ीमत अंततः सारे चीन की आम जनता को चुकाना पड़ा। हर आलोचना को राज-द्रोह घोषित करना और जनता की आवाज़ को बंद करना वास्तव में चीन के भीषण अकाल का प्राथमिक कारण था।
चीन के इस भीषण अकाल के परिणामस्वरूप होने वाली मौतों की कुल संख्या 55 मिलियन तक मानी जाती है।
अध्ययनों से पता चलता है कि स्थानीय अधिकारियों ने सजा के भय से अनाज उत्पादन के आँकड़ों को बढ़-चढ़ा कर पेश किया, ताकि चेयरमैन माओ की कठोर सजा से बच सके। इन झूठे आँकड़ों के परिणामस्वरूप, चीन की तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार अकाल-पूर्व सही वस्तुस्थिति का आकलन करने में विफल रही, तथा अकाल के संभावित ख़तरे को भांप ही नहीं पायी।
कहा जाता है कि अकाल शुरू होने बाद भी चीनी सरकार इसी मुगालते में थी कि उसके गोदाम अनाज से भरे हुए हैं। सरकार के पास जो भी सूचनायें भेजी जा रही थीं वे पूरी तरह से अधिकारियों के झूठे आँकड़ों पर आधारित थीं। जब तक सरकार तक सही सूचनाएँ पहुँचतीं, तब तक लाखों लोग भूख से मर चुके थे।
नागरिक स्वतंत्रता
पिछले सात वर्षों से हमारे देश में भी नागरिक स्वतंत्रता में लगातार गिरावट देखी जा रही है। बीजेपी सरकार ने ‘ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम’ के तहत उन लोगों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की है, जिन्होंने सरकार की नीतियों के बारे में सवाल उठाने की कोशिश की है। उनके ख़िलाफ़ उन क़ानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया है जो आमतौर पर आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधी तत्वों से निपटने के लिए किया जाता है।
आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय तथा सीबीआई का इस्तेमाल सरकार विरोधी जन-आक्रोश को दबाने के लिए किया जा रहा है। अनुराग कश्यप और तापसी पन्नू का मामला सरकारी शक्ति के दुरुपयोग का ताज़ातरीन मामला है।
कश्यप और पन्नू की गिनती सरकार की नीतियों के मुखर आलोचक के रूप में होती है। उनके घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर आयकर विभाग के छापे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर रहे हैं; लेकिन, फिर भी अगर कोई यह मानता है कि आयकर विभाग क़ानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन कर रहा है, तो भी सरकार को जवाब देना होगा कि इस प्रकार की कार्यवाहियाँ सिर्फ़ सरकार के आलोचकों पर ही क्यों हो रही है? सरकार के समर्थकों पर क्यों नहीं? उदाहरण के लिए, कहा जाता है कि अर्णब गोस्वामी जो एक टीवी के विवादास्पद एंकर हैं, भयावह पुलवामा हमलों से सम्बंधित संवेदनशील रहस्यों से अवगत थे। और, उन्हें यह संवेदनशील जानकारी (वाट्सऐप पर लीक बातचीत के रिकॉर्ड के अनुसार) कथित तौर पर सरकार में उच्च रैंकिंग वाले अधिकारियों द्वारा प्रदान की गई थी। यह संवेदनशील जानकारी, भारत के दुश्मनों द्वारा हासिल की जा सकती थी, और भारत के सैनिकों के जान माल की भारी हानि हो सकती थी। कश्यप और पन्नू पर अनावश्यक रूप से ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामक बीजेपी सरकार ने अर्णब गोस्वामी से जुड़े इस गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित मुद्दे पर चुप्पी साध ली है।
यह मामला पिछले कुछ वर्षों से लगातार घट रही घटनाओं की एक कड़ी मात्र है। हाल ही में आम जनता के अभिव्यक्ति के अधिकार को नियंत्रित करने की मंशा से बीजेपी सरकार ने ‘सोशल मीडिया’ और समस्त डिजिटल प्लेटफॉर्म को नियंत्रित करने की कोशिश की है। जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने वाले सरकार द्वारा जारी ये ‘नियंत्रणकारी दिशा-निर्देश’ फ़ेसबुक, और वाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की मैसेजिंग सेवाओं पर लागू होते हैं और इन प्लेटफ़ॉर्म पर पोस्ट की गई सामग्री पर अधिक नियंत्रण रखने की कोशिश करते हैं। हाल के कटु अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने वाले ये सरकारी दिशा-निर्देश स्वाभाविक रूप से बीजेपी सरकार विरोधी केवल उन व्यक्तियों को निशाना बनायेंगे जो सरकार के मुखर आलोचक हैं तथा सरकार की नीतियों की सार्वजनिक मंचों पर आलोचना करते हैं। तथा, उन्हें किसी प्रकार का नुक़सान नहीं पहुँचायेंगे जो सरकार के समर्थक हैं।
देश में जारी किसान आन्दोलन से जुड़े तथाकथित टूलकिट मामले में सरकार ने एक युवा पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को इस आरोप के साथ गिरफ्तार किया कि वह दुनिया भर में भारत की छवि ख़राब कर रही है।
किन्तु, दिल्ली में नफ़रत की फैक्ट्री चलाने वाले कपिल मिश्रा के ख़िलाफ़ सरकार और उसके समस्त तंत्र की चुप्पी और निष्क्रियता हमारे डर को सही साबित करती सरकार के इन लोकतंत्र विरोधी आचरण तथा सरकार के प्रतिशोधात्मक पूर्वाग्रहों की जाँच करने वाली तथा उन्हें नियंत्रित करने वाली वैधानिक संस्थाओं की ख़तरनाक चुप्पी और अनिर्णय की अवस्था अति-दुर्भाग्यपूर्ण है।
‘कारवां’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, क़ानून और आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद, विदेश मंत्री एस जयशंकर और सरकार के अन्य प्रमुख सदस्यों सहित मंत्रियों के एक समूह ने सरकार से रिपोर्टिंग के आधार पर पत्रकारों के लिए ‘कलर कोड’ की माँग की। इस कलर कोड का आधार पत्रकारों द्वारा प्रस्तुत न्यूज़ रिपोर्ट की सामग्री होगी। मतलब, सरकार न सिर्फ़ पत्रकारों द्वारा प्रस्तुत न्यूज़ रिपोर्ट पर नज़र रखेगी बल्कि उसके आधार पर इन पत्रकारों की अलग-अलग श्रेणियों में कोडिंग भी करेगी।
पिछले सात सालों में बीजेपी सरकार ने जिस प्रकार संसद में विमुद्रीकरण क़ानून और तीन कृषि क़ानून पारित कराए हैं, उससे स्पष्ट होता है कि इस निरंकुश सरकार ने क़ानून निर्माण की प्रक्रिया में जन-सहभागिता और आम लोगों की राय को पूरी तरह से नकार दिया है।
यह बेहद चिंताजनक है कि नागरिक स्वतंत्रता के हनन और मनमाने क़ानून बनाने की प्रक्रिया में हमारा देश उन देशों के नक़्शे क़दम पर चल रहा है जहाँ की सरकारों का लोकतंत्र के मामले में बेहद ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड है।
उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए बीजेपी सरकार का दिशा-निर्देश, बांग्लादेश के एक क़ानून की प्रतिलिपि जैसा है, जिसे कुछ साल पहले वहाँ की सरकार ने पास किया था।
आख़िर में, सवाल यह है कि इन सब का समाधान क्या है? और एक नागरिक के रूप में हम क्या कर सकते हैं? चूँकि सरकारें शायद ही कभी अपनी ख़ुद की अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों की जाँच करती हैं, इसलिए, एक नागरिक के रूप में हमें अपनी नागरिक स्वतंत्रता और उसे कुचलने वाले कुचक्रों के बारे में विशेष रूप से जागरूक होने की आवश्यकता है। हमें अपनी सरकार से कठिन सवाल पूछना चाहिए और सरकार को भी ध्यान में रखना चाहिए कि राज्य प्रायोजित भय के कारण जनता और सरकार के बीच संवादहीनता की ख़तरनाक स्थिति न बन जाए और भारत भी चीन के भयानक अकाल जैसे किसी विनाशकारी घटना का शिकार हो न जाए।