ग्लासगो जलवायु सम्मेलन- बड़ी-बड़ी बातें, छोटे-छोटे क़दम

09:31 am Nov 13, 2021 | शिवकांत | लंदन से

पिछले दो सप्ताह से स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में चल रहा संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन समाप्त हो गया है। धरती और हमारे अस्तित्व की अंतिम आस माने जा रहे इस सम्मेलन से उन उपायों पर आम सहमति होने की उम्मीद थी जिनसे वायुमंडल का औसत तापमान औद्योगिक युग से पहले के औसत तापमान की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्शियस से आगे न बढ़ने पाए। सम्मेलन के घोषणापत्र पर अभी सौदेबाज़ी चल रही है लेकिन कई ऐसे समझौते हुए हैं जिनसे जलवायु परिवर्तन की रोकथाम की उम्मीद बँधी है। परंतु बहुत कुछ ऐसा भी है, जो नहीं हो सका जिससे चिंता और निराशा होती है।

चीन-अमेरिका के बीच समझौता

ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि चीन और अमेरिका के बीच हुआ जलवायु सहयोग का समझौता है। चीन और अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ हैं और तापमान बढ़ाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के 40% का उत्सर्जन यही दो देश करते हैं। 

एक साल से चल रही 30 बैठकों के दौर के बाद दोनों देशों ने फ़ैसला किया है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर सहयोग बढ़ाने के लिए दोनों एक कार्यदल बनाएँगे जो इस पूरे दशक में मिथेन गैस और कार्बन गैसों की रोकथाम करने और स्वच्छ ऊर्जा अपनाने में मदद करेगा।

इससे पहले चीन कोयले का प्रयोग बंद करने के मामले पर हाथ खींच रहा था। इस समझौते से उसके रवैये में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं।

वनसंरक्षण को लेकर क़दम

दूसरी सबसे बड़ी घोषणा वनसंरक्षण को लेकर हुई है। ब्राज़ील, कोंगो, रूस और इंडोनेशिया समेत 100 से भी अधिक देशों ने 2030 तक वनों के कटान पर पूरी तरह पाबंदी लगाने का वचन दिया है। दुनिया के 85% वन इन्हीं देशों में हैं। जैव-विविधता और पीने के पानी के प्रमुख स्रोत होने के साथ-साथ प्राकृतिक वन भारी मात्रा में वायुमंडल में फैली कार्बन डाइऑक्साइड गैस को सोखने का काम भी करते हैं। पेड़ हमारे सबसे अच्छे दोस्त हैं क्योंकि वे हमें औषधियाँ, जीव-विविधता, ऑक्सीजन और पेयजल देने के साथ-साथ हमारे कार्बन गैस रूपी पापों को भी दूर करते हैं। 

बदले में धनी देशों ने वनसंरक्षण और वनों पर आश्रित आदिवासियों के विकास के लिए सहायता देने का भी वचन दिया है।

तीसरी सबसे बड़ी घोषणा 2030 तक मिथेन गैस के उत्सर्जन में 30% की कटौती करने के बारे में है जिस पर अमेरिका और चीन समेत 100 से अधिक देशों में सहमति बनी है।

मिथेन के बारे में कुछ दशक पहले तक कम जानकारी थी। लेकिन ताज़ा वैज्ञानिक आँकड़ों के अनुसार तापमान में हो रही एक तिहाई वृद्धि के लिए मिथेन ज़िम्मेदार है। मिथेन मुख्य रूप से गैस और तेल के कुओं, मवेशियों और शहरी कचरे के पहाड़ों से निकलती है। रूस अभी तक इस समझौते के लिए तैयार नहीं हुआ है जबकि बढ़ते तापमान के कारण हर साल तेज़ी से पिघल रहे साइबेरिया के मैदान मिथेन प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत हैं।

बंद होगा कोयले का इस्तेमाल

चौथी सबसे बड़ी घोषणा कोयले के प्रयोग को लेकर हुई है। पोलैंड, वियतनाम और चिली जैसे बड़े कोयला उपभोक्ता देशों समेत 40 से ज़्यादा देश कोयले का प्रयोग को बंद करने को तैयार हो गए हैं। कोयला सबसे गंदा ईंधन माना जाता है जिसे जलाने से सबसे ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं। लेकिन दुनिया की 37% बिजली कोयले से ही बनती है और विकासशील देशों के लिए वही सबसे सस्ता और सुलभ ईंधन भी है। चीन और भारत कोयले के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। इसलिए भारत ने कोयले के प्रयोग को बंद करने पर कोई वचन देने से मना कर दिया है। चीन भी कोयले पर पाबंदी लगाने को तैयार नहीं था। लेकिन अमेरिका और चीन का समझौता होने के बाद लगता है वह इस मामले पर पुनर्विचार कर रहा है। 

भारत और चीन के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया भी कोयले का प्रयोग बंद करने को तैयार नहीं है।

विकासशील देशों के लिए बनेगा कोष 

पाँचवीं सबसे महत्वपूर्ण घोषणा पैसे के बारे में है। बढ़ते तापमान से ध्रुवीय बर्फ़ पिघल रही है और समुद्रों का जलस्तर बढ़ता जा रहा है। इससे समुद्रों में फैले द्वीप देशों और समुद्रतटों पर बसे देशों के अस्तित्व पर ख़तरा पैदा हो गया है। ग्रीष्मलहर, सूखा, दावानल, अकालवृष्टि, तूफ़ान, बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं की मार बढ़ रही है जिससे ग़रीब देश सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन जनित आपदाओं का सामना करने और स्वच्छ तकनीक अपनाने के लिए ग़रीब और विकासशील देशों के लिए 100 अरब डॉलर सालाना के एक कोष का वादा किया गया था जो दस सालों से अधूरा पड़ा है। इस सम्मेलन में उसे पूरा करने के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। 

इसके अलावा दुनिया की 450 बड़ी वित्तीय संस्थाओं ने अपना धन पेट्रोल और गैस जैसे जैव ईंधनों के बजाय स्वच्छ तकनीक के लिए उपलब्ध कराने का फ़ैसला किया है। इससे हरित और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्रों में काम करने वाली कंपनियों को धन जुटाने में आसानी होगी और वे जैव ईंधन कंपनियों को टक्कर दे सकेंगी। साथ ही दुनिया की सैकड़ों बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारोबारों को 2025 से लेकर 2040 तक पूरी तरह कार्बन मुक्त बनाने या ज़ीरो कार्बन बनाने की योजनाओं का एलान किया है। 

इनमें एमेज़न और माइक्रोसोफ़्ट जैसी टैक कंपनियों के साथ-साथ एक्सॉनमोबिल, शैल और बीपी जैसी जैव ईंधन कंपनियाँ भी शामिल हैं।

ग्रीनहाउस गैसों में कटौती का मुद्दा

जो न हो सका उसकी बात करें तो कहानी बहुत लंबी है। 2015 के पैरिस जलवायु सम्मेलन में तय हुआ था कि यदि हमें प्राकृतिक विनाश से बचना है तो हमें वायुमंडल के औसत तापमान को 1.5 डिग्री से नीचे रखने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए सभी देशों से ग्रीनहाउस गैसों में कटौती की अपनी-अपनी योजनाएँ बनाने और पेश करने को कहा गया था। ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद अमेरिका वायदे से मुकर गया और अब चीन के साथ मिलकर उसने कोयला बिजलीघरों को बंद करने के बजाय केवल उन कोयला बिजलीघरों को बंद करने का आह्वान किया है जिनमें गैसों को रोक कर ज़मीन में दबाने की तकनीक नहीं है।

आज औसत तापमान 1.1 डिग्री पार कर चुका है और यदि 2030 तक गैसों के उत्सर्जन में 45% की कटौती नहीं की गई तो यह 2.4 डिग्री तक जा सकता है।

कार्बन कटौती की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले यूरोपीय संघ, जापान और अमेरिका जैसे देश 2030 तक अपनी ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोतरी बंद करने के ही वायदे कर रहे हैं, घटाने के नहीं। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने 2050 तक नेट ज़ीरो बनने का लक्ष्य रखा है। चीन ने 2060 तक और भारत ने 2070 तक। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि यह मान भी लिया जाए कि सारे देश जो कह रहे हैं उसपर अमल भी करेंगे, तो भी 2030 तक गैसों का उत्सर्जन 14% बढ़ जाएगा। जबकि तापमान को 1.5 डिग्री से नीचे रखने का लक्ष्य पूरा करने के लिए 2030 तक हमारा उत्सर्जन 45% घट जाना चाहिए।

बातों की सफ़ाई 

ये जो बड़े-बड़े देश ज़ीरो उत्सर्जन की बात न करके नेट ज़ीरो उत्सर्जन की बात कर रहे हैं, ये भी बातों की सफ़ाई है। मसलन रूस का कहना है कि ‘हमारे देश में तो इतने बड़े भूभाग पर जंगल हैं और पूरा साइबेरिया है जो इतनी गैसों का उत्सर्जन सोख सकता है जितनी हमसे छोड़ी भी नहीं जाती। इसलिए हमें कटौती का कोई लक्ष्य रखने की ज़रूरत नहीं है।’ इसी तरह भारत कुछ करोड़ पेड़ लगा कर अपने उत्सर्जन में कटौती दिखाना चाहेगा। चीन और ब्राज़ील भी यही कहेंगे और बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इसी तरह नेट ज़ीरो हुआ चाहती हैं। जलवायु और प्रकृति बही-खाते नहीं देखती। गैसें छोड़ेंगे तो पारा चढ़ेगा। पारा चढ़ेगा तो तूफ़ान भी आएँगे!

मतलब साफ़ है। बड़ी-बड़ी बातें सब कर रहे हैं। लेकिन बड़े-बड़े कदम उठाने को तैयार कोई नहीं है। 

शून्य करना होगा उत्सर्जन 

उत्सर्जन में 45% कटौती के लिए अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ के बड़े विकसित और अमीर देशों को ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन शून्य करना होगा। दूसरे शब्दों में कोयला, पेट्रोल, गैस जैसे जैव ईंधनों का प्रयोग एकदम बंद करना होगा और पशुपालन व कचरे से पैदा होने वाली मिथेन को भी बंद करना होगा। ऐसा तभी संभव है जब आप जैव ईंधनों के लिए दी जा रही सब्सिडी पूरी तरह बंद करें और उसका प्रयोग अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने में करें। लेकिन हो ठीक इसका उल्टा रहा है।

कोयला, पेट्रोल, डीज़ल और गैस जैसे जैव ईंधनों के लिए सब्सिडी दो तरह से दी जा रही है। कोयला और तेल उत्पादक कंपनियों को टैक्स में छूट और दूसरी रियायतें देकर और उपभोक्ताओं को राहत देने के लिए ईंधनों के दामों को सस्ता करके। दुनिया भर की सरकारें हर साल जैव ईंधनों पर 31,000,00 करोड़ रुपये की सब्सिडी देती हैं। इनमें से एक चौथाई कोयला तेल उत्पादक कंपनियों को दी जाती है और तीन चौथाई उपभोक्ताओं को। 

यही सब्सिडी यदि सौर, पवन और हाइड्रोजन ऊर्जा जैसी अक्षय ऊर्जा बनाने वाली कंपनियों और उनपर चलने वाले वाहन निर्माताओं की दी जाती तो आज जलवायु की सूरत कुछ और होती। जैव ईंधनों को सब्सिडी देने वाले देशों में सबसे ऊपर ईरान, चीन, भारत, सऊदी अरब और रूस के नाम आते हैं।

आप सोचेंगे कि सब्सिडी तो स्वच्छ ऊर्जा कंपनियों को भी मिलने लगी है। आपका सोचना सही है। लेकिन जिन देशों में स्वच्छ ऊर्जा को सब्सिडी मिलने लगी है वहाँ भी जैव ईंधन को दी जाने वाली सब्सिडी आज भी स्वच्छ ऊर्जा से कहीं ज़्यादा है।

मसलन अमेरिका में जैव ईंधन को 5,000,00 करोड़ की सब्सिडी मिलती है जबकि स्वच्छ ऊर्जा को केवल 2,000,00 करोड़ की। भारत में जैव ईंधन को 3,000,00 करोड़ की सब्सिडी मिलती है तो स्वच्छ ऊर्जा को मात्र 2,500,00 लाख करोड़ की। चीन में उससे भी कम है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि सरकारों की कथनी और करनी में फ़र्क है और यही कारण है कि तापमान की रोकथाम नहीं हो पाती।

भारत की बात करें तो यह सही है कि भारत को अभी रोज़गार निर्माण वाले उद्योगों के विकास की बहुत लंबी राह तय करनी है। लेकिन क्या यूरोप और चीन की नकल पर जलवायु का विनाश करके ही राह तय की जा सकती है? क्या कोई मौलिक नई राह नहीं हो सकती? 

ज़हरीली आबोहवा से मौतें

भारत कोई पेट्रोल उत्पादक देश नहीं है। हर साल हम 7,500,00 करोड़ तेल के आयात पर ख़र्च करते हैं। कोयले और तेल पर सब्सिडी के 3,000,00 करोड़ ख़र्च करते हैं। नतीजा यह है कि शहरों की ज़हरीली आबोहवा से हर साल 17 लाख लोग मरने लगे हैं जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे होते हैं। यह आँकड़ा लान्सेट पत्रिका का है। हॉरवर्ड यूनिवर्सिटी का अनुमान है कि भारत में हर तीसरी मौत वायु प्रदूषण से हो रही है।

यह भी सही है कि भारत का औसत आदमी अमेरिका और यूरोप के औसत आदमी की तुलना में दसवें हिस्से का भी उत्सर्जन नहीं करता। लेकिन यह तर्क भी बहुत दिनों तक भारत का साथ नहीं दे सकता।

कोयले और तेल के प्रयोग के मामले पर चीन अभी तक भारत के साथ खड़ा रहा है। लेकिन चीन जिस तेज़ी के साथ सौर और दूसरी अक्षय ऊर्जाओं का विकास कर रहा है और जिस सफ़ाई के साथ वह उत्सर्जन कटौती के लिए अमेरिका के साथ जा मिला है वह भारत की कोयला और तेल पर निर्भर रहने की योजना के लिए कोई अच्छी ख़बर नहीं है। अब चीन अमेरिका के साथ मिल कर अपने अक्षय ऊर्जा विकास का ढोल पीटेगा जिसके चलते जलवायु के मंचों पर भारत एशिया के गंदे देश जैसा नज़र आने लगेगा।

स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देना ज़रूरी 

इसलिए यह भारत के अपने हित में है कि वह कोयले और डीज़ल-पेट्रोल का प्रयोग बंद करने और जल्दी से जल्दी सारी बिजली स्वच्छ ऊर्जा से बनाने और उसी बिजली से चलने वाले वाहनों की तरफ़ बढ़े। यह बहुत बड़ा बुनियादी परिवर्तन है जो राजनीतिक आम सहमति और जन सहमति के बिना नहीं हो सकता। लेकिन भारत की राजनीति उससे ठीक विपरीत दिशा में जा रही है। 

पराली का समाधान होगा?

ग्लासगो सम्मेलन में ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने भाप के इंजन को औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बताने के बजाय उसे विनाश की मशीन बताया था। क्योंकि यह बदले समय की माँग थी। क्या भारत का कोई नेता पंजाब में धान की बुआई और पराली जलाने की समस्या को पैदा करने वाली हरित क्रांति और खेती के मशीनीकरण की आलोचना करने की हिम्मत कर सकता है? क्या पराली का राष्ट्रीय स्तर पर तत्काल कोई समाधान करने की ज़रूरत नहीं है?