नामवर सिंह ने पकड़ा था मंदिर विध्वंस बताते ‘तुलसी दोहाशतक’ का फ़र्ज़ीवाड़ा

07:04 pm Jan 16, 2024 | पंकज श्रीवास्तव

बाबर बर्बर आइके, कर लीन्हें कर वाल।

हरे पचारि पचारि जन, कुलसी काल कराल।।

दल्यौ मीर बाकी अवध, मंदिर राज-समाज

तुलसी रोवत हृदय हति, त्राहि-त्राहि रघुराज।।

राम-जनम मंदिर जहाँ, लसत अवध के बीच

तुलसी रची मसीत तहं मीर बाकि खल नीच।।

राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए बनाये जा रहे माहौल के बीच ये पंक्तियाँ व्हाट्सऐप पर एक बार फिर बड़े पैमाने पर प्रचारित की जा रही हैं। दावा है कि रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास ने राममंदिर गिराकर बाबरी मस्जिद बनाये जाने से व्यथित होकर ये दोहे लिखे थे जो ‘ तुलसी दोहा शतक’ में संग्रहीत हैं। यह उस सवाल का जवाब था कि अगर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी तो बाबर के पौत्र अकबर के शासनकाल में हुए तुलसीदास ने इस संबंध में कुछ लिखा क्यों नहीं? उल्टा उन्होंने संस्कृत की जगह अवधी में मानस लिखने पर हो रही आलोचना का जवाब ये कहते हुए दिया कि-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलाम हैं राम को, जाको रुचै सो कहै कुछ ओऊ।

माँगि के खाइबो, मसीत को सोइबो, लैबो का एक न दैबो को दोऊ।। 

(कवितावली)

अफ़सोस की बात ये है कि ‘राममय’ हो चुके कई कारसेवक पत्रकारों ने भी इस फ़र्ज़ी दोहाशतक को अपने लेखों और पुस्तकों में ‘असली’ कहकर प्रचारित किया लेकिन कोई प्रतिवाद नहीं हुआ। जबकि इन दोहों के सामने आते ही हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने इसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए इसे फ़र्ज़ी क़रार दिया था। 2 अगस्त 2003 को सहारा समय में ‘तुलसीदास हाज़िर हों’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने इस फ़र्जीवाड़े की धज्जियाँ उड़ाई थीं। उनके लेखों के संग्रह ‘ज़माने से दो-दो हाथ’ में इस लेख को आज भी पढ़ा जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘तुलसी दोहा शतक’ नाम का कोई ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा ही नहीं।

आख़िर ये मामला शुरू कैसे हुआ? दरअसल इसके मूल में चित्रकूट के तुलसीपीठ के संस्थापक स्वामी रामभद्राचार्य हैं जो पिछले दिनों जातिसूचक टिप्पणी के लिए चर्चित हुए थे। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ पीठ में 15 जुलाई 2003 को एक हलफनामा दाखिल करके ‘तुलसी दोहा शतक’ का हवाला दिया था। हलफनामे में कहा गया कि इस ग्रंथ को गोस्वामी तुलसीदास ने 1647 में लिखा जो रायबरेली के ताल्लुकेदार बाबू राय बहादुर सिंह ने प्रकाशित किया था। हालाँकि उन्होंने यह नहीं बताया कि यह किस वर्ष प्रकाशित हुआ था।

नामवर सिंह ने लेख में इस हलफनामे में दर्ज दावे का ‘पाठ विज्ञान’ के आधार पर परीक्षण किया। उन्होंने लिखा कि तुलसीदास के नाम पर प्रमाणित-अप्रमाणित मिलाकर अधिक से अधिक 52 पुस्तकें मिलती हैं लेकिन इनमें तुलसी दोहा शतक का कहीं ज़िक्र नहीं है। उन्होंने इस संबंध में हुए कई शोध का हवाला देते हुए बताया कि 52 में से 39 पुस्तकों को विद्वानों ने एक मत से अप्रमाणिक करार दिया है। ‘तुलसई सतसई’ नाम की एक पुस्तक को अर्धप्रामाणिक कहा गया है। शेष 12 पुस्तकों में सर्वमान्य प्रामाणिक नौ हैं- रामचरित मानस, जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, दोहावली, बरवै रामायण, कवितावली (हनुमान बाहुकसहित)। इसके अलावा तीन अन्य पुस्तकों को बहुमान् रूप से प्रामाणिक माना गया- वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न, रामलला नहछू।

नामवर सिंह ने लिखा, “इस सूची मे कहीं भी तुलसी दोहाशतक नहीं है जिसे रामानंदाचार्य ने प्रस्तुत किया। अप्रमाणिक पुस्तकों की सूची में भी यह नहीं है। गरज कि अभी तक किसी खोज रिपोर्ट में भी यह दर्ज नहीं हुई है। यह है निष्कर्ष कम से कम दो सौ वर्षों की हमारी पांडित्य परंपरा का, जिसमें ग्रियर्सन जैसे विद्वान के साथ सुधाकर द्विवेदी जैसे संस्कृत पंडित, आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे हिंदी समालोचक, पं. रामगुलाम द्विवेदी जैसै प्रसिद्ध रामायणी और सैकड़ों शोधकर्ता, तथा साधु संत शामिल हैं।” (ज़माने से दो-दो हाथ, पेज 83)

नामवर सिंह ने आश्चर्य जताया कि “तुलसीकृत ऐसी महत्वपूर्ण कृति जो अभी तक किसी खोजी को दृष्टिगोचर नहीं हुई, वह दृष्टिगोचर हुई तो एक प्रज्ञाचक्षु स्वामी जी को, और वह भी 2003 में, जब मंदिर-मस्जिद विवाद का मुक़दमा अपने अंतिम चरण में है।” उन्होंने सवाल किया कि स्वामी जी को इस पुस्तक की जानकारी पहले से थी तो इसे इतने दिनों तक छिपाये क्यों रखा? लोग तो यही समझेंगे कि पुरातत्ववादियों की खुदाई में मनमाफिक सामग्री नहीं मिली तो लिखित साहित्य का सहारा लिया गया क्योंकि मनोवांछित साहित्य रच देना बायें हाथ का खेल है। और इस खेल की अच्छी खासी परिपाटी भी है। तुलसीदास जैसे महान कवि के साथ तो ऐसा सलूक सबसे ज्यादा हुआ।

नामवर सिंह ने इस संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पीड़ा को भी याद किया जिन्होंने एक समय बड़े खेद के साथ लिखा था- “इधर इस प्रकार की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है कि तुलसीदास के साथ अपने गाँव या कुल या प्रदेश का कोई न कोई संबंध स्थापित कर लिया जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि तुलसीदास के शिष्यों की डायरी से लेकर उनके सगे संबंधियों के ग्रंथ तक उपलब्ध होने लगे। नये-नये दावों और नयी गढ़ी हुई जनश्रुतियाँ इतिहास लेखक के मार्ग को निरंतर कंटकीर्ण करती जा रही हैं। झूठी पुस्तकों, अर्थहीन दावों और बेबुनियाद स्थापनाओं को महत्व देने का परिणाम यह हुआ कि नित्य नवीन दावों की बाढ़ आती जा रही है।” (हिंदी साहित्य,1952, पृष्ठ 221-22)

नामवर सिंह के मुताबिक गोस्वामी तुलसीदास के दोहों का प्रामाणिक संग्रह दोहावली है। अर्धप्रामाणिक संग्रह सतसई है। फिर यह दोहा शतक कहां से आ गया? शतक तो संस्कृत परंपरा है जैसे ‘भर्तृहरि शतक’, ‘अमरूक शतक’ आदि। हिंदी में ‘उद्धव शतक’ बीसवीं सदी की कृति है। मध्ययुकीन हिंदी में ‘शतक’ नाम की कोई कृति नहीं मिली। नामवर सिंह ने लिखा, “इसके अलावा हलफनामा में उद्धृत एक दोहे में आया हुआ ‘हिंदू’ शब्द भी पूरी कृति को संदिग्ध बना देता है। ‘सिखा सूत्र से हीन करि, कल से हिंदू लोग’...तुलसी ने किसी भी कृति में ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है।

हैरानी की बात है कि नामवर सिंह जैसे आचार्य ने तुलसीदास के नाम पर हुए फ़र्जीवाड़े का खंडन करने में ज़रा भी विलंब नहीं किया था लेकिन अब मीडिया से लेकर हिंदी का पूरा विद्वत समाज ऐसे मसलों पर चुप है।

जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रामभद्राचार्य के हलफनामे को स्वीकार नहीं किया था और सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद को लेकर दिये गये अपने फ़ैसले में मस्जिद स्थल के नीचे हुई खुदाई में बारहवीं सदी के मंदिर जैसा स्ट्र्क्चर होने की बात तो मानी है लेकिन यह भी कहा है कि बाद की चार सदियों में क्या हुआ, कहना मुश्किल है। बाबर ने उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवायी थी, इसका कोई प्रमाण नहीं है।

नामवर सिंह ने लिखा था कि स्वामी रामभद्राचार्य का यह रामबाण किसी और को नहीं  अनन्य रामभक्त तुलसीदास को ही लगा है। ये वही लोग हैं जिन्होंने महाकवि को चैन से जीने न दिया, अब उन्हें मरने के बाद भी चैन से वंचित करना चाहते हैं।