संसद पर हमले से कभी उबर पायेगा अमेरिका?

09:03 pm Jan 08, 2021 | शिवकांत | लंदन से - सत्य हिन्दी

अमेरिकी संसद में बुधवार की रात को जो कुछ हुआ उसे दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र के इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। निवर्तमान राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अपनी चुनावी हार के बाद से निरंतर अपने समर्थकों को भड़काने वाले बयान देते आ रहे थे। इसलिए लोगों का रोष भड़कने और मार-पीट की नौबत आने का अंदेशा तो सभी को था। लेकिन इसकी कल्पना शायद ख़ुफ़िया एजेंसियों और सुरक्षा बलों ने भी नहीं की थी कि ट्रंपवादियों की भीड़ नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव का अनुमोदन करने के लिए हो रहे संसद के औपचारिक अधिवेशन को भंग करने के लिए अमेरिका के कैपिटल यानी संसद भवन पर ही हमला बोल देगी और मुठभेड़ में दो महिलाओं सहित चार प्रदर्शनकारियों की मौत हो जाएगी।

ट्रंपवादियों की उग्र भीड़ मंगलवार से ही कैपिटल बिल्डिंग या संसद भवन के सामने डोनल्ड ट्रंप के समर्थन में और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन तथा उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के विरोध में प्रदर्शन कर रही थी। सुरक्षा बलों और ट्रंपवादियों के बीच झड़पें भी हो रही थीं लेकिन कुल-मिला कर स्थिति काबू में दिखाई दे रही थी। बुधवार की रात को दक्षिण-पूर्वी राज्य जॉर्जिया में हुए सीनेट की दो सीटों के चुनाव में नाटकीय हार के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों की बेचैन हो रही भीड़ को संबोधित करने का फ़ैसला किया। अपने संबोधन में ट्रंप ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में चुनावी धाँधली के बेतुके और बेबुनियाद आरोप दोहराए, सीनेटरों और सांसदों पर साज़िश करने वालों के साथ मिलीभगत के आरोप लगाए और संसद पर चढ़ाई करने के लिए उकसाया। उनके भाषण ने आग में घी का काम किया और ट्रंपवादियों की भीड़ सुरक्षा पंक्तियों को तोड़ कर कैपिटल बिल्डिंग या संसद भवन में जा घुसी।

कैपिटल बिल्डिंग में उस समय नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के अनुमोदन के लिए संयुक्त अधिवेशन चल रहा था और प्रतिनिधि सभा के नवनिर्वाचित सांसद और सीनेटर निवर्तमान उपराष्ट्रपति माइक पेंस की अध्यक्षता में अलग-अलग राज्यों से मिले इलैक्टरल कॉलेज या निर्वाचन मंडल के नतीजों की समीक्षा कर रहे थे। लोकतंत्र पर भीड़तंत्र का हमला होते ही सबसे पहले उपराष्ट्रपति माइक पेंस को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। प्रतिनिधि सदन की नेता नैंसी पलोसी और सीनेट के नेता मिच मैकोनल समेत संसद के सभी वरिष्ठ नेताओं और सांसदों की सुरक्षा का प्रबंध किया गया। 

उन बक्सों को भी बचाया गया जिनमें राज्यों से मिले निर्वाचन मंडल के वोटों और परिणामों वाले काग़ज़ात थे। ये बक्से ख़ास तौर पर ट्रंपवादी उपद्रवियों की भीड़ के निशाने पर थे क्योंकि वे चुनाव परिणाम के काग़ज़ात जला कर सारे सबूत ख़त्म करना चाहते थे।

बहरहाल, ट्रंपवादी प्रदर्शनकारियों के इस हमले में दो महिलाओं समेत चार प्रदर्शनकारियों की अफ़सोसनाक़ मौत हो गयी। मामूली तोड़-फोड़ के अलावा आपाततः भले ही कोई ख़ास नुक़सान न हुआ हो लेकिन अमेरिका की लोकतांत्रिक परंपरा और प्रतिष्ठा को एक अपूरणीय आघात लगा है। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में एक मिसाल के तौर पर देखी जाने वाली अमेरिका की चुनावी व्यवस्था की तुलना तानाशाही परंपरा वाले पिछड़े देशों से करते-करते ट्रंप ने अमेरिका को सचमुच उन्हीं देशों की श्रेणी में पहुँचा दिया है। सारी लोकतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों को ताक पर रखकर न जाने किस ‘सच्चे अमेरिका’ की रक्षा करते-करते वे अमेरिका को एक ऐसे रसातल में ले गए हैं जहाँ से उसे उबार पाना आने वाली बाइडन-हैरिस सरकार के लिए एक कड़ी परीक्षा साबित होगा।

अपने समर्थकों के बीच ट्रंप। फ़ोटो साभार: ट्विटर/ट्रंप/वीडियो ग्रैब

सबसे बड़ी चिंता और अफ़सोस का विषय उनकी रिपब्लिकन पार्टी की दशा का है जिसे अमेरिका ही नहीं दुनिया की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित राजनीतिक पार्टी माना जाता है और ग्रैंड ओल्ड पार्टी कहकर पुकारा जाता है। राजनीति में नौसिखिए डोनल्ड ट्रंप के हाथों में इस पार्टी की बागडोर गए पाँच साल भी नहीं हुए हैं। फिर भी पिछले पचास-पचास वर्षों से रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति कर रहे धुरन्धर नेताओं की ज़बानें भी पार्टी के लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को ख़ाक में मिला देने वाली ट्रंप साहब की करतूतों को लेकर बंद हैं। राजनीति में आने से पहले ट्रंप अपने लगभग पूरे जीवन में एक अवसरवादी क़ारोबारी और शोमैन रहे हैं। इसलिए ट्रंप का अपने हित में मनमाने फ़ैसले करते हुए अमेरिका को एक पारिवारिक कंपनी की तरह चलाना समझा जा सकता है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि रिपब्लिकन पार्टी के मिक मैकोनल, टेड क्रूज़, बॉब डोल, हेली बार्बर और मिट रोमनी जैसे जनाधार वाले लोकप्रिय नेताओं की ज़बाने क्यों बंद हैं।

अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप की राजनीतिक पार्टियाँ अपनी दलीय लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए जानी जाती रही हैं और दूसरे देशों के लिए मिसाल रही हैं। लेकिन ट्रंप की मनमानी हरकतों को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के भीतर छाई चुप्पी यह संकेत देती है कि भारत की राजनीतिक पार्टियों वाला दलीय तानाशाही और पारिवारिक सामंतशाही का रोग इस पार्टी को भी लग चुका है। ब्रिटन की कंज़र्वेटिव और लेबर पार्टियों के बारे में भी यही बात कही जा रही है। 

लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक पार्टियों की अपनी दलीय लोकतांत्रिक परंपराएँ ही उन्हें तानाशाही कम्युनिस्ट पार्टियों से अलग और विशेष बनाती हैं। जब उन्हीं का ख़ात्मा हो जाएगा तो फिर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में और अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी में क्या अंतर रह जाएगा?

ग़नीमत है कि कैपिटल पर हुए हमले के बाद ही सही, रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों और सीनेटरों को थोड़ा सा होश आया और लगभग सभी ने एक स्वर में इस शर्मनाक हमले की निंदा की और दंगाइयों के सामने घुटने टेकने से इंकार करते हुए कुछ ही घंटों के भीतर संसदीय अधिवेशन को फिर से शुरू किया और जो बाइडन तथा कमला हैरिस की जीत का भारी बहुमत के साथ अनुमोदन कर दिया। काश कि रिपब्लिकन नेताओं ने यही हिम्मत थोड़ा पहले दिखाई होती और ट्रंप साहब के बेबुनियाद और बेतुके आरोपों पर कान न धरते हुए स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से हुए चुनावों के नतीजों को स्वीकार कर जो बाइडन और कमला हैरिस को जीत की बधाई दे दी होती तो दुनिया के सामने एक मिसाल से तमाशे में तब्दील होने की नौबत नहीं आती।

जो बाइडन और कमला हैरिस।

पर देर आयद दुरुस्त आयद। रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेताओं ने संसद पर हुए हमले से सबक़ लिया है और अधिवेशन में ट्रंप के मुट्ठी भर अंधभक्तों द्वारा उठाई गई बेसिरपैर की आपत्तियों को ठुकराते हुए बाइडन और हैरिस की जीत पर संसदीय मुहर लगा दी है। जॉर्जिया की हार, संसद पर हमला करने का प्रयास ट्रंप और उसके समर्थकों के लिए आख़िरी कुरुक्षेत्र साबित हुआ है। 

व्हाइट हाउस पर क़ब्ज़ा जमाए रखने के सारे रास्ते बंद होते दिखाई देते हैं। पर इतना ज़रूर है कि अमेरिकी समाज में फूट, नस्लवाद और तथाकथित बाहर वालों के प्रति आशंका का जो बीज ट्रंप ने अपने चार सालों में बोया है उसकी फ़सल आसानी से निर्मूल होने वाली नहीं है।

संसद पर हुए हमले ने रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों और नेताओं की आँखें भले ही खोल दी हों मगर ट्रंप के लोकलुभावन नारों के बहकावे में आए उन करोड़ों अमेरिकियों की आँखों पर पड़ा पर्दा उठने में काफ़ी समय लगेगा जो ट्रंप और उनकी नीतियों को असली श्वेत अमेरिका का मसीहा मान बैठे हैं। रिपब्लिकन पार्टी में बचे समझदार नेताओं को सबसे पहले किसी ऐसे करिश्माई नेता को खोजना होगा जो ट्रंप द्वारा हथियाए गए पार्टी के जनाधार को वापिस ला सके। इस बात की संभावना ज़्यादा है कि ट्रंप को चुनौती देने के प्रयास में पार्टी के दो धड़े बन जाएँ जिसका लाभ उठाकर डेमोक्रेटिक पार्टी अगला चुनाव भी जीत लें।

वीडियो चर्चा में देखिए, डोनल्ड ट्रंप मज़ाक कर रहे हैं या तख्तापलट की कोशिश?

लेकिन उससे पहले जो बाइडन और कमला हैरिस को अपने जनादेश का प्रयोग करते हुए बड़ी सावधानी से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाना होगा जो ट्रंप ने अपनी मनमानी और अदूरदर्शी नीतियों से पैदा की हैं। महामारियों और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए विश्वव्यापी सहयोग और समन्वय जुटाना, विश्व की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना, यूरोप और दूसरे मित्र देशों के साथ ट्रंपवादी नीतियों से बिगड़े रिश्तों को सुधारना, सभी अमेरिकियों के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ सुलभ बनाना, देश में बढ़ती वैचारिक कटुता और नस्लवादी भावनाओं को शांत करते हुए सामाजिक न्याय का माहौल बनाना जैसे काम केवल संसदीय बहुमत के आधार पर नहीं किए जा सकते। इनके लिए सर्वदलीय सहयोग और विश्वास की ज़रूरत होगी जिसे ट्रंप की छाया में बहाल कर पाना आसान काम नहीं होगा।