
ट्रंप की पोशाक में नव मध्ययुगीन साम्राज्यवाद की वापसी?
अमेरिका के मग़रूर राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन ट्रंप की गिद्ध नज़रें ग़ज़ा पट्टी पर लगी हुई हैं। उन्होंने धमकी भरे स्वरों में क़रीब 20 लाख मूल निवासियों से कहा है कि वे अपनी मातृभूमि की तरफ़ देखें भी नहीं। वे मिश्र, जॉर्डन जैसे निकटवर्ती देशों में शरणार्थी के रूप में जा बसें। ट्रंप में बैठा बिल्डर ग़ज़ा पट्टी को समुद्र तटीय विलासिता में विकसित करने के लिए कुलचे मार रहा है। 2016 में पहली दफ़ा राष्ट्रपति बनने से पहले न्यूयॉर्क में ट्रंप की छवि ‘सफल क़ारोबारी बिल्डर’ के रूप में रही है। शिकागो समेत सभी बड़े शहरों में ‘ट्रंप टावर’ हैं।
अब भारत में भी बनने जा रहे हैं। सवाल सिर्फ ग़ज़ा भर का नहीं है। सवाल यह भी है कि ट्रंप ने कनाडा जैसे विशाल देश को अमेरिका में 51वें राज्य के रूप में शामिल हो जाने की आदेशात्मक स्वरों में बात कही है। इसी तरह ट्रंप की नज़रें ग्रीनलैंड और पनामा नहर पर भी ज़मी हुई हैं। ताक़त के बल पर सभी को हथियाने की धमकियाँ दी जा रही हैं। ट्रंप की धमकियों से विश्व को आतंकित करने में उनके एकछत्र शक्तिशाली कॉर्पोरेट मित्र एलन मस्क ज़बर्दस्त भूमिका निभा रहे हैं। इसके साथ ही ट्रंप मंडली की रणनीति यह भी है कि भारत समेत पिछड़े और विकासशील देशों में हमेशा अशांति व अस्थिरता का राज रहे जिससे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की धीरे-धीरे मौत हो जाए। भारत में ’वोटर टर्न आउट’ को लेकर राष्ट्रपति ट्रंप के बार-बार बदलते बयानों से भी यही ज़ाहिर होता है। 182 करोड़ के सम्बन्ध में ट्रंप के ताज़ा विस्फोटक उवाच ने प्रधानमंत्री मोदी को ही शक़ व विवादों के कटघरे में धकेल दिया है। इससे लोकतांत्रिक शासन की पारदर्शिता ही प्रभावित होगी।
डोनाल्ड ट्रंप का प्रोजेक्ट कितना कामयाब होता है, यह भविष्य ही बतलायेगा। इसकी सफलता और असफलता संबंधित देशों की जनता और नेतृत्व के मेरुदंड पर निर्भर करता है। यदि यह इस्पाती है तो ट्रंप को झुकना पड़ेगा, और भुरभुरा है तो ‘नव उपनिवेशों’ में तब्दील होना उनकी नियति है। यदि ऐसा होता है तो ट्रंप का ‘नव उत्तर साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी प्रोजेक्ट’ पिछड़े, गरीब और विकासशील देशों की सम्प्रभुता को रौंदता हुआ आगे बढ़ता जायेगा। अर्द्ध विकलांग संयुक्त राष्ट्र संघ पूर्ण विकलांगता में परिवर्तित हो जायेगा। इसका हश्र भी ‘लीग ऑफ़ नेशन’ की भांति हो सकता है! फ़िलहाल ऐसी आशंकाएँ सतही प्रतीत हो सकती हैं। लेकिन, ट्रंप- मंसूबों की पड़ताल के बाद इसमें कुछ दम दिखाई दे सकता है।
ट्रंप ने जिस लहजे में ग़ज़ा को हथियाने की बात की है, उसकी पृष्ठभूमि में एक योजनाबद्ध अवधारणा भी दिखाई देती है। ट्रंप के आक्रामक उवाच के सन्दर्भ में राजनयिक व रणनीतिज्ञ रॉबर्ट कूपर की ‘उदारवादी सुरक्षात्मक साम्राज्यवाद और नव उपनिवेशवाद‘ की अवधारणा सक्रिय दिखाई देती है। रॉबर्ट कूपर, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के सलाहकार रह चुके हैं। उन्हीं की सलाह पर ब्लेयर ने 2003 के दूसरे खाड़ी युद्ध में ब्रिटेन को सक्रिय किया था। इसके बाद प्रधानमंत्री की काफी आलोचना भी हुई थी। लेबर पार्टी के अधिवेशन में कूपर ने 30-35 सफों का एक पेम्पलेट रखा था, जिसमें आत्मरक्षात्मक साम्राज्यवाद व नव उपनिवेशवाद की रणनीति को पुनर्जीवित करने की गुहार लगाई गयी थी। इस सम्बन्ध में क़रीब 22 साल पहले कूपर का एक विस्तृत लेख ‘The New Liberal Imperialism’ दी गार्डियन में भी प्रकाशित हुआ था।
21वीं सदी में नव उदार साम्राज्यवाद की कल्पना करना ही स्वयं अलोकतांत्रिक और नव फासीवादी है। कूपर का तर्क है कि पिछड़ी अर्थव्यवस्थावाले देशों में लोकतंत्र का प्रोजेक्ट असफल हो चुका है। लोकतंत्र की आधारभूत कसौटियाँ बिखर चुकी हैं। लोकतंत्र का स्थान तानाशाही लेती जा रही है। उत्तर सामंती काल में लोकतंत्र का जन्म हुआ था। उम्मीद थी कि तीसरी दुनिया के निर्वाचित लोकतांत्रिक शासक इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाएँगे। लेकिन परिणाम विपरीत निकले हैं। ऐसे देशों में भारत भी शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और अन्य मुस्लिम देशों में लोकतंत्र मरता जा रहा है। यूरोप से सटे एशियाई और अफ़्रीकी देशों में हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। दक्षिण अमेरिका या लातिनी देशों की स्थिति भी स्वस्थ नहीं है।
लोकतंत्र का प्रयोग असफल होता जा रहा है। इस स्थिति का परिणाम यह है कि प्रथम दुनिया यानी श्वेत देशों की लोकतांत्रिक प्रणाली के संचालन के लिए ख़तरे बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में एक ही विकल्प है कि नए प्रकार के साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का सहारा लिया जाए।
कूपर का कहना यह भी है कि पिछली दो सदियों (19वीं और 20वीं) के दौरान दो शब्दों (साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद) को सबसे ज़्यादा गरियाया गया है। उत्तर सामन्तीकाल के आधुनिक व लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों ने साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की कटु आलोचनाएँ की हैं। इस व्यवस्था को मानव विरोधी बताया गया था। लेकिन, आज इन दोनों शब्दों के महत्व को पुनर्स्थापित करने की अपरिहार्य आवश्यकता दिखाई दे रही है। यदि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को पुनर्जीवित नहीं किया गया तो पश्चिमी देशों की आधुनिक व्यवस्था का अस्तित्व संकटग्रस्त हो सकता है।
राजनीति के साथ-साथ आर्थिक तंत्र प्रगति के लिए भी संकट पैदा हो सकते हैं। शायद इसीलिए कूपर ने परम्परागत साम्राज्यवाद का नामकरण ‘नव रक्षात्मक उदार साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद’ किया है। कूपर चाहते हैं कि प्रथम विश्व के शक्तिशाली देश तीसरी दुनिया के देशों पर दबाव बनाएँ और उन्हें उदार साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का स्वेच्छा से हिस्सा बनने के लिए विवश करें।
उदार साम्राज्यवाद की शासन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि नव शासित देश या उपनिवेश के पास भी निर्णय लेने के अधिकार रहें। लेकिन, नव उपनिवेशों पर नियंत्रण व अंतिम निर्णय का अधिकार प्रथम दुनिया के देश अपने पास ही रखें। इसका अर्थ यह हुआ कि तीसरी दुनिया के देशों की स्थिति ‘अधिराज्य (डोमिनियन)’ जैसी रहे। यह अवधारणा कितनी विरोधाभासी, लोकतंत्र विरोधी, नई पोशाक में साम्राज्यवादी और प्रतिगामी है। यह सही है कि भारत, पाकिस्तान, ईरान, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार, सीरिया, मिश्र, लीबिया सहित अफ्रीका के अनेक देशों में लोकतंत्र ‘अर्द्ध मृत्यु शैया’ पर हैं। ऐसे देशों में फौज़ी तानाशाही, निर्वाचित एकतंत्रवाद, कुलीन तंत्रवाद, वंशवाद और सामंती अवशेषात्मक शासन व्यवस्थाएं हैं। लेकिन, क्या इस दयनीय स्थिति से मुक्ति के ख़ातिर 20वीं सदी में आज़ाद होनेवाले देश फिर से एंग्लो -सैक्सन ब्लॉक् (यूरोप + अमेरिका) के मातहत हो जाएँ? स्वेच्छापूर्वक अपनी आज़ादी को ग़ुलामी में तब्दील कर दें? यदि ट्रंप के शब्दों का विवेचन किया जाए तो क्या वे ग़ज़ा पट्टी को अमीरों की ऐशगाह में बदलना नहीं चाहते हैं? परोक्ष आर्थिक साम्राज्यवाद तो पहले से ही मौजूद है।
अब ट्रंप टैरिफ़ जंग के ज़रिए अशांत देशों को अपनी कॉलोनियों में तब्दील करने की योजना पर आमादा दिखाई देते हैं। उन्होंने सेना के इस्तेमाल की भी धमकी दी है। अब उनकी साम्राज्यवादी गिद्ध नज़रें यूक्रेन पर भी गड़ी हुई हैं।
नव उदार व रक्षात्मक साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के सन्दर्भ में सैमुएल हंटिंग्टन की अवधारणा ‘सभ्यताओं का टकराव और उभरती नई विश्व व्यवस्था’ की तरफ़ भी ध्यान जाता है। इस अवधारणा का जन्म 1900 के आस-पास हुआ था। हंटिंग्टन भी रणनीतिकार थे और अमेरिका के सैन्य प्रतिष्ठान पेंटागन से संबद्ध रहे थे। उनकी अवधारणा में ईसाई सभ्यता और इस्लामी सभ्यता के बीच टकराव अवश्यसंभावी है। दूसरे अर्थों में, 8 -9 वीं सदियों के क्रूसेड और जेहाद का नई पोशाकों में अवतरण। सदी के अंतिम दशक में इस अवधारणा की भी ज़बरदस्त आलोचना हुई थाई। सर्व प्रथम हंटिंग्टन ने अपनी इस अवधारणा को एक आलेख के माध्यम से सामने रखा था। अमेरिका की विदेश मामलों से सम्बंधित पत्रिका में आलेख प्रकाशित हुआ था। बाद में उनकी यह अवधारणा पुस्तकबद्ध हो कर सामने आई। विचित्र इतफ़ाक़ यह है कि इस अवधारणा के बाद सीनियर बुश के शासन काल में पहली खाड़ी जंग होती है। इसके बाद, 1996 में पुस्तक प्रकाशित होती है और सभ्यताओं के टकराव की सैद्धांतिकी को विस्तार के साथ पेश किया जाता है। पुस्तक की ज़बर्दस्त चर्चा होती है। फिर 7 साल बाद, मार्च 2003 में बुश जूनियर के शासन काल में दूसरी खाड़ी जंग शुरू हो जाती है। तानाशाह सद्दाम हुसैन की हुकूमत का सफाया कर दिया जाता है। लीबिया में गद्दाफ़ी को ख़त्म कर दिया जाता है। क्या इराक़, लीबिया, अफगानिस्तान, सीरिया जैसे देशों में स्थाई शांति लौटी और लोकतंत्र मजबूत हो सका है? आज भी ये देश अमेरिका की परोक्ष कॉलोनियां बने हुए हैं।
सारांश में, रॉबर्ट कूपर और हंटिंग्टन की अवधारणाओं का टारगेट पिछड़े समाज और देश हैं। ताज़ा मिसाल है पिछले साल बांग्लादेश का तख्ता पलट। अमेरिका अपने प्यादों को ऐसे देशों का चौबदार बनाता है और नकेल व्हाइट हाउस के हाथों में रहती है। श्वेत राष्ट्र नई नई अवधारणाओं और रणनीतियों, चालों से इन देशों को ’उपभोक्ता देश’ के सांचे में ढले देखना चाहते हैं, ताकि वे इन देशों में अपना माल खपा सकें और उसे डंप कर सकें। इसकी ताज़ा मिसाल है, ट्रंप द्वारा भारत पर एफ–35 सैन्य विमान की खरीदी को थोपे जाना। यह अत्यंत महंगा विमान है। दिलचस्प जानना यह है कि 2024 में ट्रंप के चहेते एलन मस्क स्वयं इस विमान की कई खामियां और कबाड़ घोषित कर चुके हैं। पेंटागन ने भी अमेरिकी सेना के लिए उपयोगी नहीं माना है। फिर भी इसे भारत पर लादा जा रहा है। प्रथम विश्व के आका तीसरे विश्व की प्राकृतिक संपदा पर भी अपनी डाकाजनी को ज़ारी रखने के लिए रक्षात्मक साम्राज्यवाद चाहते हैं। इस संदर्भ में, ट्रंप का दक्षिण अफ्रीका के साथ विवाद को देखा जा सकता है। अमेरिका अपनी शर्तों पर वहां की खनिज दौलत को बटोरना चाहता है।
पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों में कभी स्थाई शांति होगी या होने दी जाएगी, इसकी संभावना कम है। अमेरिका अपने प्यादा देश इसराइल के माध्यम से साम्राज्यवादी खेल को ज़ारी रखेगा, और सभ्यताओं का टकराव भी चलता रहेगा।
अब ट्रंप–अमेरिका के निशाने पर ईरान है। अमेरिका द्वारा लगाए गए तमाम प्रतिबंधों के बावजूद, तेहरान का मेरुदंड तना हुआ है। तकरीबन सभी प्रमुख मुस्लिम देश वॉशिंगटन के सामने नतमस्तक हैं। दक्षिण एशिया में मोदी–भारत भी लिजलिजा होता दिखाई दे रहा है। अलबत्ता, चीन के सामने श्वेत राष्ट्रों की शक्ति लाचार दिखाई देती है। चीन की घुड़की के बाद अब ट्रंप अवैध चीनी आप्रवासियों को फौजी विमान के स्थान पर नागरिक विमान से भेजा जाएगा। रूस के अवैध नागरिक भी सामान्य विमान से स्वदेश भेजे जाएंगे। ट्रंप ने चीन पर सौ प्रतिशत टैरिफ़ लगाने की धमकी दी थी। लेकिन, ट्रंप को चीनी राष्ट्रपति के सामने झुकना पड़ा। अब टैरिफ़ को बुरी तरह से घटा दिया गया है। अमेरिका के नेतृत्व में चीन को उदार रक्षात्मक साम्राज्यवाद के घेरे में लाया जा सकेगा, इसकी संभावना क़तई नहीं है। क्योंकि वह हर क्षेत्र में वॉशिंगटन को सीधी टक्कर दे रहा है। अंतरिक्ष में भी वह अमेरिका से पीछे नहीं है। इसके समानांतर चीन अपनी विस्तारवादी रणनीति को भी ज़ारी रखेगा। हो सकता है, ट्रंप के नेतृत्व में श्वेत राष्ट्र विश्व को नए सिरे से ’साम्राज्यवादी शक्ति ध्रुवों’ में विभाजित करने की रणनीति पर काम कर रहे हों! श्वेत राष्ट्र जगत में चरम दक्षिण पंथ की गरम हवाएं चल रही हैं। जर्मनी में नस्लवादी शक्तियाँ उभर रही हैं। गैर जर्मनियों को निशाना बनाया जा रहा है। श्वेत राष्ट्रों में ब्रिटेन ज़रूर अपवाद है जहां लेबर पार्टी की सरकार है। इसके विपरीत इटली की प्रधानमंत्री चरम दक्षिणपंथी है। फ्रांस की राजनैतिक स्थिति भी अलहदा कहां है? सारांश में, उदार रक्षात्मक साम्राज्यवाद व नव उपनिवेशवाद के उदय में चरम दक्षिणपंथ निर्णायक भूमिका निभा सकता है।