जिस किसी ने कभी भी डूबकर रामचरितमानस पढ़ा होगा, उसने सुंदरकाण्ड के उस एक क्षण की विशिष्ट मार्मिकता को ज़रूर रेखांकित किया होगा जब हनुमान सीता से मिलते हैं। उसके पहले तो कहानी विपत्ति की ओर भागी जा रही है। सीता का अपहरण हो चुका है। भग्न-हृदय राम अपने ही बारे में आश्वस्त नहीं हैं। लेकिन उस क्षण जब हनुमान सीता से मिलते हैं, वहाँ से यह महाकाव्य करवट लेता है, एक आत्मविश्वास आता है कि चीजें ठीक हो जाएँगी। हनुमान पेड़ से राम की अँगूठी गिराते हैं। सीता के मन में विरोधाभासी भाव आते हैं : अँगूठी को पहचान लेने की ख़ुशी है और भय इस बात का है कि आखिर इसका अर्थ क्या है? तुलसीदास लिखते हैं : हर्ष विषाद ह्रदय अकुलानी. सीता कई चीजें सोच रही हैं। यकायक हनुमान की आश्वस्ति प्रकट होती है जब हनुमान अपना परिचय देते हैं। सभी सांगीतिक प्रस्तुतियों में, चाहे वे छन्नूलाल मिश्र की हों या अभी तक कम आँकी गयी मुकेश की प्रस्तुति, उसमें यह बात ज़रूर आती है : हनुमान ने शहद की तरह मीठे वचन कहे – “मधुर वचन बोले हनुमाना”. आप यहाँ पर थम जाते हैं। इसकी शक्ति केवल सरल कविता भर नहीं है, वह जादुई शांति है जो यह पंक्ति पैदा करती है और यह ऐसा दुर्दमनीय प्रभाव है जिससे मजाल है कि आप बाहर निकल पाएँ। एक क्षण के लिए ही सही आप आश्वस्ति और आनन्द से सरोबार हो जाते हैं।
एक समाज के रूप में पतित हो जाने की दिशा में यह एक ऐसा व्यवहार है कि अब राम और हनुमान संगठित धार्मिक हिंसा की विचारधारात्मक तैयारी के लिए एक रूपक बन गये हैं। यह जो रामनवमी और हनुमान जयंती के समय विभिन्न शहरों में साम्प्रदायिक हिंसा फैली है, इसे देखकर हमें उस दिशा के बारे कोई मुगालता नहीं पालना चाहिए जिस दिशा में भारत जा रहा है। ऊपरी तौर पर जो साधारण सा किस्सा चल रहा है कि “पर्वों को मनाने के लिए हिन्दू जुलूस निकाल रहे थे। हम तो केवल अपने अधिकार को पेश कर रहे थे। हम पर पत्थर मारे गए और न जाने क्या-क्या किया गया। इसके लिए अल्पसंख्यक जिम्मेदार हैं। यह दिखाता है कि हिन्दू न तो सुरक्षित हैं और न ही उनके लिए उनके ही देश में कोई जगह है” और इसके बाद सबसे खतरनाक बात की जाती है : ‘हमें उनसे छुटकारा चाहिए’. यह एक पुरानी तरक़ीब है।
यह हमारे लिए किस प्रकार का दु:स्वप्न है। सामान्य सी बात यह है कि यह वृत्तान्त व्यापक रूप से फैला है। अभी तक हम तर्क देते रहे हैं कि भारत में बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिकता का अस्तित्त्व नहीं है। इसके पीछे का औचित्य ही नहीं बचा है (और यह कहना कोई बुरी बात नहीं होगी) और चुनावों की शृंखला के साथ गुजर जाएगा। और यह कोई छिटपुट घटना तो है नहीं जिससे हम आश्वस्त हो सकें कि यह किसी तरह अपना रास्ता धीरे-धीरे तय करेगा। यह अपने चरित्र में स्थानीय नहीं है बल्कि इसने तो राष्ट्रीय चरित्र ग्रहण कर लिया है। घृणा और पूर्वाग्रह का नंगा नाच कोई लीक से हटकर बात नहीं है। अब यही युग सत्य है।
यह युग सत्य इसलिए है कि उच्चतम स्तर का राजनीतिक नेतृत्व जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, वे या तो चुप हैं या हल्के से इशारा कर देते हैं, इसे अनदेखा कर देता है। यह युग सत्य है क्योंकि अभिजात्य बिना किसी लाज-शर्म के बड़बड़ा रहे हैं। यह युग सत्य है क्योंकि कुछ राजनीतिक बढ़त के मामलों में साम्प्रदायिक होना लगभग आवश्यक पूर्वदशा हो गयी है और यह सिविल सोसाइटी की स्वाभाविक प्रवृत्ति बनती जा रही है।
लेकिन यह तो बहुत अमंगलकारी है। जरा सोचिए कि उस समाज का क्या होगा जिसकी प्रमुख धार्मिक संवेदनशीलताएँ वास्तविक रूप में सारे मूल्यों को ही उलट दें। धर्म का प्रायः दुरुपयोग हुआ और उसे बहुत ही विकृत एवं हिंसक कामों में इस्तेमाल किया गया है। लेकिन क्या आप आधुनिक हिंदू धर्म के इतिहास में किसी अन्य अवसर पर ऐसा सोच सकते हैं जहाँ उस सब पवित्र को अमंगलकारी बना दिया गया हो, पूजा-अर्चना के रूपों को भयोत्पादक बना दिया गया हो, गीतों और ग्रंथों को हथियार में तब्दील कर दिया गया हो, सार्वजनिक पुण्यशीलता को खतरनाक हालत में पहुँचा दिया गया हो, सामुदायिकता की भावना को हत्यारेपन में और सज्जनता या सभ्यता की कोई भी बात बाधा पहुँचाने वाली करार दे दी गई है।
और यही नियंत्रित भीड़ की भयकारी छवि है जो किसी धार्मिक जुलूस के नकली वेश में सामने आती है। हमें बहुत साफ़ नज़र रखनी चाहिए। हिंदू धर्म का यह नया रूप जो आपके सामने आ रहा है वह कोई वास्तविक दर्प और पुण्यशीलता का प्रकटीकरण नहीं है। यह खुले तौर पर अल्पसंख्यकों को भयभीत शक्ति और हिंसा की दावेदारी है। यह वास्तव में प्रतिक्रिया को बाहर लाने का का एक जरिया है (यहाँ तक कि एक फोटोग्राफ़ यह काम कर सकता है), जो सभी अल्पसंख्यकों को एक खतरे के रूप में चिन्हित करने का पहला काम बन जाता है। यह वास्तव में बहुत ही चिंताजनक बात है कि बड़ी संख्या में अच्छे-भले लोग जिनके लिए डरावने जुलूसों पर पत्थर फेंकना अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अंदर तक धंसे पूर्वाग्रह का सबूत बन जाता है। यह एक क्षद्म तथ्य है जिसे वे अपने इस लुभावने झूठ को बचाए रखने के लिए प्रयुक्त करते हैं कि हिंदू धर्म तब तक सुरक्षित नहीं है जब तक अल्पसंख्यकों को उनकी औकात नहीं दिखा दी जाती, अगर उन्हें पूरी तरह से पोंछ नहीं दिया जाता। यही वह एकमात्र उद्देश्य था जिसे आक्रामक जुलूसों ने पूरा कर दिया। यह उस लुभावने झूठ को बनाए रखता है जिसने हमें आक्रांत कर रखा है और जिसे आधुनिक हिंदू धर्म के घातक क्षरण, जो राज्य की ताकत से बचाया गया है, ने पूरी तरह से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया युक्त, विलंबित आत्म दावेदारी की ओर धकेल दिया है, और यह वास्तव में ‘हिंसा और क्रूरता की तरफ बढ़ रहा कदम’ है।
साम्प्रदायिकता पर लिखना एक फ़िज़ूल काम बन चुका है। इससे किसे संबोधित किया जा रहा है? निश्चित तौर पर, वह राज्यसत्ता तो कतई नहीं है जिसकी वैचारिक कार्यप्रणाली और ताकत इस संकट को और बढ़ा रही है। और नागरिक समूह भी नहीं, क्योंकि नागरिक समूह जैसी अवधारणा ही क्षीण हो गयी है। धार्मिक समूहों को भी नहीं यह संबोधित है। हिंदुत्व के नए मतदाताओं के लिए साम्प्रदायिक विमर्श का एक ही मतलब रह गया है जिसे वे प्रतिशोध के विमर्श के लिए उपयोग करते हैं।
मुसलमानों को क्या हम यह आश्वासन दे सकते हैं कि, उनकी कम संख्या, वर्तमान राज्य सत्ता और उसकी विचारधारा जनित उन्माद का प्रयोग उनके सांस्कृतिक उन्मूलन की परियोजना में नहीं किया जायेगा? सेक्युलर होने का दावा करने वाले लोग इस विचार से धाराशायी होते जाते हैं कि सेक्युलरिज्म का अर्थ अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है। तो क्या उन्हें, जो साम्प्रदायिक पहचानों के बवंडर से ऊपर उठकर मानव गरिमा को स्थापित करने वाली भाषा बोलना चाहते हैं? क्या इस धड़े में कोई बचा भी है? या फिर उन विपक्षी दलों को, जिनके पास न तो कोई वैचारिक साहस है और न ही राजनीति का कोई ऐसा व्याकरण जिससे वे बहुसंख्यकवाद का मुकाबला कर सकें।
एक सुविधाजनक भ्रांति है कि एक जगह जाकर ही सही, किसी तरह कोई व्यवहारिक, राह दिखाने वाला तर्क आपने आपको हिंदुत्व की राजनीति पर दावा पेश करेगा : मुद्रास्फीति और बेरोजगारी इसकी दरारों को स्पष्ट कर देगी। लेकिन इस साम्प्रदायिकता का सम्बन्ध हमेशा भौतिक दशाओं से नहीं होता है। युवाओं के झुंड सामूहिक अहंकार और हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन के द्वारा प्रमाण और स्वाभिमान खोजने का यह तथ्य बताता है कि साम्प्रदायिकता इतने गहरे तक पैबस्त हो चुकी है कि सामाजिक असंतोष अपने आपको साम्प्रदायिकता की भाषा में अभिव्यक्त कर रहा है। भारत में दंगों जैसी सभी प्रकार की विस्तृत हिंसा में यह पूर्व शर्त है। आप लगभग उस विचार में खींच लिए जाते हैं जहाँ भारत उस जगह पर पहुँच गया है जिसके लिए कहा जाता है कि यदि अभी नहीं तो कब? और इसके अलावा आप इस अप्रिय पूर्वाग्रह की व्यापक स्वीकृति को क्या कहेंगे जब अंत:करण बिखराव हो गया है जिसके साथ बहुसंख्यकवाद के साथ राज्य सत्ता के गठजोड़ को स्वीकृति मिलती है, व्यक्ति के सम्पूर्ण अस्तित्त्व को मिटाकर उस पर साम्प्रदायिक पहचान को आयद करना, बहुसंख्यक जनों को खुद को सही साबित करने की उस पहल में जिसमें उसने खुद को पीड़ित की तरह पेश किया है, अधिकारों को पूरी तरह अवमानित करना, हिंसा को गौरवान्वित करना, बदला लेने के लिए बहुत ही छोटा बहाना खोजना और आमूलचूल तरीके से अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ साबित करना। यहाँ तक कि हनुमान जयंती भी बुराई से बच नहीं सकी है बल्कि हम इसकी तरफ बहुत तेजी से भागे जा रहे हैं और वह भी खुली आँखों के साथ।
साभार - द इंडियन एक्सप्रेस
(मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद)