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रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी के साथ क्या यह गंदा मज़ाक नहीं है?

रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी के साथ क्या यह गंदा मज़ाक नहीं है?

रोहित वेमुला को लेकर पुलिस की ऐसी रिपोर्ट कैसे आई? क्या समतावादी समाज और विचार में भरोसा रखने वाला भारत यह लड़ाई हार चुका है? क्या वह उन लोगों के प्रलोभन में आ गया है जो इस देश को बांट कर यहां अपना राज बनाए रखना चाहते हैं?

रोहित वेमुला झूठा था, जालसाज़ था, उसने फ़र्ज़ी जाति-प्रमाण पत्र दिया था और उसे डर था कि उसकी यह जालसाज़ी पकड़ी न जाए। इस डर की वजह से उसने खुदकुशी कर ली। यह हैदराबाद पुलिस की राय है। यह राय उसने अदालत में रोहित वेमुला केस में क्लोज़र रिपोर्ट देते हुए और उसे आत्महत्या के लिए उकसाने के सभी आरोपियों को बरी करते हुए व्यक्त की है। हालाँकि बताया जा रहा है कि ये रिपोर्ट 2018 में ही तैयार कर ली गई थी और अब राज्य के डीजीपी कह रहे हैं कि पुलिस इस मामले में और जांच करेगी।

लेकिन क्या वाक़ई रोहित वेमुला डरा हुआ था? वह आंबेडकर छात्र संघ से जुड़ा हुआ था- ऐसे मुद्दों पर प्रदर्शन और आंदोलन करता था जो दक्षिणपंथी जमातों को रास नहीं आते थे। उनकी शिकायत पर उसकी छात्रवृत्ति रोक दी गई। एक गरीब घर के लड़के के लिए 25,000 रुपये महीने की यह छात्रवृत्ति कितनी अहमियत रखती थी, यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए। फिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक छात्र नेता के साथ मारपीट के आरोप में उसे निलंबित कर दिया गया। उस पर कार्रवाई के लिए चिट्ठियां लिखने वालों में संघ के नेता बंडारू दत्तात्रेय भी थे जिनकी चिट्ठी स्मृति ईरानी ने भी विश्वविद्यालय के वीसी तक अग्रसारित की थी जो उन दिनों मानव संसाधन मंत्री हुआ करती थीं।

उसने अपने पाँच साथियों के साथ क्रमिक भूख हड़ताल शुरू की। लेकिन जब उसे विश्वविद्यालय से निकालने का आदेश हुआ तब वह टूट गया। एक लंबी लड़ाई लड़ने के बाद उसने हताशा के किसी कमज़ोर लम्हे में ख़ुदकुशी कर ली।

संभव है, रोहित वेमुला के बारे में न बंडारू दत्तात्रेय जानते हों, जैसा कि उन्होंने बाद में कहा, और न ही स्मृति ईरानी- उन्होंने बस अपने संगठन के लोगों के आग्रह पर चिट्ठी आगे बढ़ा दी होगी, लेकिन दरअसल यह पूरा मामला आर्थिक तौर पर कमज़ोर और ऐतिहासिक तौर पर निचले सामाजिक पायदान में खड़े एक 25 साल के लड़के को घेर कर मारने का था- यह ऐसा घेराव था जिससे निकलने की कोई और सूरत न पाकर उसने ज़िंदगी का ही घेरा तोड़ दिया।

और इतना संघर्ष करने वाले लड़के के बारे में हैदराबाद पुलिस बता रही है कि वह डरा हुआ था और अपना सच खुलने के डर से उसने खुदकुशी कर ली। सच तो यह है कि अगर रोहित वेमुला ने नकली जाति-प्रमाण पत्र दिया होता तो वह किसी सार्वजनिक आंदोलन से हमेशा बचता, कोशिश करता कि किसी भी तरह उसकी पीएचडी पूरी हो जाए और वह कहीं नौकरी पाकर शांतिपूर्ण जीवन जिए।

लेकिन रोहित वेमुला का गुनाह यह भी था कि वह कोई निजी लड़ाई नहीं लड़ रहा था, वह एक कृत्रिम विचारधारा के ख़िलाफ़ लड़ रहा था जिसने उसके साथ ऐतिहासिक अन्याय किया।

इस अन्याय की एक सजा उसे खुदकुशी की हद तक पहुंचा देने वाले सार्वजनिक और सांस्थानिक व्यवहार के रूप में सामने आई तो दूसरी सज़ा उसकी पहचान मिटा देने की कोशिश के रूप में सामने आ रही है। उसकी आत्महत्या के बाद ही यह सवाल खड़ा कर दिया गया कि वह दलित है या नहीं। उसकी मां ने सार्वजनिक तौर पर बताया कि वह दलित है हालाँकि उसके पति ओबीसी थे। लेकिन न्याय का पलड़ा अंततः उस ओर झुकना था जिस ओर जाति-संरचना का निर्माण करने वाले, उसे बनाए रखने वाले चाहते थे।

इत्तिफ़ाक़ से यह पूरा मामला ऐसे समय सामने आया है जब देश में 2024 के लोकसभा चुनाव चल रहे हैं और तमाम पार्टियाँ ख़ुद को दलितों और पिछड़ों का ख़ैरख़्वाह बता रही हैं। यह ख़ैरख़्वाही कितनी वास्तविक है, यह जानने के लिए हमें हैदराबाद पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट पढ़ने की ज़रूरत नहीं, बस इस देश में दलितों, आदिवासियों या अल्पसंख्यकों की वास्तविक स्थिति समझने और उनके नाम पर चल रही राजनीति को देखने की ज़रूरत है। इन्हीं चुनावों में इस देश के प्रधानमंत्री मुसलमानों को घुसपैठिया और ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला बता रहे हैं, यह डर दिखा रहे हैं कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह ओबीसी का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी, लोगों के घर और मंगल सूत्र तक दूसरों के हाथ चले जाएंगे। हिंदू-मुसलमान के इस सांप्रदायिक शोर में वह दलित विमर्श लगभग अदृश्य कर दिया गया है या बस प्रतीकों में बदल दिया गया है जो सामाजिक-आर्थिक तौर पर कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। ऐसे में कोई रोहित वेमुला खुदकुशी करता है तो उसकी जाँच रिपोर्ट ऐसी ही बनाई जा सकती है- उसकी पहचान मिटाते हुए, उसे बेईमान बताते हुए।  

मगर इस शोर में रोहित वेमुला की पहचान क्या मायने रखती है? वह दलित हो या ओबीसी- अंततः इस दुनिया में नहीं है। अब हैदराबाद विश्वविद्यालय उन ‘तत्वों’ से निष्कंटक हो चुका है जो राष्ट्रवाद या देशभक्ति के मौजूदा ‘नैरेटिव’ में खलल डालते हैं या समाज और बदलाव की नई दास्तान बनाना चाहते हों। धीरे-धीरे पूरे देश से ऐसे ‘तत्व’ छांटे जा रहे हैं। जब रोहित वेमुला का मामला आया था तब उसके समर्थन में खड़े लोगों को ‘अरबन नक्सल’ बताया गया था, बाद में कोविड के दौरान गंगा में फेंके जाते शवों पर जब गुजराती कवयित्री पारुल खक्खर ने एक कविता लिखी तो गुजरात की साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘लिटररी नक्सल’ बताया। 

तो खेल यह है। पहले रोहित वेमुला को मरने पर मजबूर करो, फिर उसके समर्थन या उसके साथ हमदर्दी जताने आए लोगों को डराओ-धमकओ, उसे अकेला करो और फिर रोहित वेमुला की पहचान छीन लो- बताओ कि वह तो जालसाज़ था।

मगर फिर दुहराने की ज़रूरत है- क्या यह बस रोहित वेमुला का मामला था? क्या रोहित वेमुला के लिए अपनी 25,000 की स्कॉलरशिप बचाना इतना मुश्किल काम था? वह माफ़ी मांग लेता, उनके मुताबिक़ चलने लगता तो उसके सारे काम चल पड़ते, लेकिन वह एक बड़ी लड़ाई का सपना लेकर लड़ रहा था। इस लड़ाई के लिए उसने जान दी। 

असली चुनौती यही है। क्या समतावादी समाज और विचार में भरोसा रखने वाला भारत यह लड़ाई हार चुका है? क्या वह उन लोगों के प्रलोभन में आ गया है जो इस देश को बांट कर यहां अपना राज बनाए रखना चाहते हैं? क्या वह बदलाव की ज़रूरत भूल गया है? अगर नहीं तो रोहित की आत्महत्या से हम जितने विचलित हुए, उससे ज्यादा विचलित हमें इस आत्महत्या को रोहित का गुनाह बनाने की कोशिश से होना चाहिए, उसकी पहचान नष्ट करने के प्रयत्न से होना चाहिए।

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