कश्मीर घाटी में गत 5 अक्टूबर को आतंकवादियों द्वारा की गयी गोलीबारी व हत्याओं की गूँज अभी ख़त्म भी न होने पायी थी कि गत 8 अक्टूबर को अफ़ग़ानिस्तान के कुंदूज़ राज्य के उत्तर पूर्वी इलाक़े में एक शिया मसजिद पर बड़ा आत्मघाती हमला कर दिया गया जिसमें लगभग एक सौ नमाज़ियों को हलाक कर दिया गया व सैकड़ों ज़ख़्मी हो गए। इन दोनों ही हमलों में कुछ विशेषताएँ समान थीं।
कश्मीर में हुए हमले में जहाँ सिख समुदाय की एक स्कूल प्राध्यापिका सुपिंदर कौर की श्रीनगर के ईदगाह इलाक़े में हत्या कर दी गयी वहीं उसी स्कूल के एक अध्यापक दीपक चंद को भी गोली मारी गई। शहर के एक नामी केमिस्ट मक्खन लाल बिंद्रू की भी इससे पूर्व उन्हीं की मेडिकल शॉप पर गोली मारकर हत्या की जा चुकी थी।
इन हत्याओं में शहीद किये गये केमिस्ट व अध्यापक जैसे 'नोबल' पेशे से जुड़े लोगों की हत्या कर देना, ऐसे लोगों को शहीद कर देना जिनका जीवन प्रत्येक कश्मीरियों के जीवन को सुधारने, सँवारने व बचाने के लिये समर्पित था, एक सिख महिला शिक्षिका जो घाटी में केवल सिखों को ही नहीं बल्कि हिन्दुओं, मुसलमानों सभी को ज्ञान का प्रकाश बांटती थी, केमिस्ट मक्खन लाल बिंद्रू जैसा समाजसेवी केमिस्ट जिसने पूरा जीवन मरीज़ों को पैसे होने या न होने की स्थिति में शुद्ध दवाएँ वितरित करने में व्यतीत किया और जिसको अपनी जन्मभूमि से इतना लगाव था कि अपने ही समुदाय के हज़ारों कश्मीरियों के कश्मीर छोड़ने के बावजूद घाटी में ही रहने का फ़ैसला किया, ऐसे निहत्थे लोगों को जान से मार देना यह आख़िर कैसा 'युद्ध' अथवा जिहाद है?
ख़बरों के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान की एक शिया मसजिद में हुए आत्मघाती हमले के समय भी शिया समुदाय के लगभग चार सौ लोग जुमे (शुक्रवार) की नमाज़ अदा कर रहे थे। कश्मीरी सिखों व कश्मीरी पंडितों की ही तरह शिया भी अफ़ग़ानिस्तान का अल्पसंख्यक समाज है। वे भी निहत्थे थे और मसजिद में नमाज़ के दौरान अल्लाह की इबादत में मशग़ूल थे। किसी आत्मघाती हमलावर ने उन्हीं के बीच आकर ख़ुद को उड़ा लिया, नतीजतन लगभग एक सौ नमाज़ी मारे गए।
निहत्थे नमाज़ियों को मसजिद में ही मारना यह तो उसी तरह का कृत्य है जैसे कि सुन्नी मुसलमानों के चौथे ख़लीफ़ा और शियाओं के पहले इमाम हज़रत अली को मसजिद में इब्ने मुल्जिम नाम के स्वयं को 'मुसलमान' कहने वाले एक व्यक्ति के द्वारा नमाज़ के दौरान सजदे में होने की हालत में शहीद कर दिया गया था? आश्चर्य की बात है कि आतंकवादी विचारधारा रखने वाले कश्मीरी आतंकवादी हों या तालिबानी, ये सभी हज़रत अली को तो अपना ख़लीफ़ा ज़रूर मानते हैं परन्तु इनकी 'कारगुज़ारियाँ’ तो क़ातिल-ए-अली यानी इब्ने मुल्जिम वाली हैं?
यदि इन हत्यारों को धर्म व धर्मयुद्ध का ज़रा भी ज्ञान होता तो इन्हें मालूम होता कि निहत्थे पर वार करना तो दूर यदि युद्ध के दौरान किसी लड़ाके के हाथ की तलवार भी टूट जाती या हाथ से छूट जाती तो सामने वाला आक्रमणकारी अपनी तलवार को भी मियान में रख लेता क्योंकि निहत्थे पर हमला करना युद्ध नीति के विरुद्ध है। किसी मर्द द्वारा औरतों पर हमले करने का तो सवाल ही नहीं उठता था। कमज़ोर, अल्पसंख्यक, निहत्थे, नमाज़ी अथवा इबादत गुज़ार लोगों की हत्या का तो दूर तक इसलाम से कोई वास्ता ही नहीं।
परन्तु जब जब इसलाम पर साम्राज्यवाद हावी हुआ है तब तब इस तरह की नैतिकताओं को ध्वस्त होते भी देखा गया है। हज़रत अली की पत्नी व हज़रत मुहम्मद की बेटी हज़रत फ़ातिमा पर इसी मानसिकता के मर्दों ने हमला किया था।
उनके घर के दरवाज़े में आग लगाकर जलता हुआ दरवाज़ा उनपर गिरा दिया गया था और उन्हें शहीद कर दिया गया। फिर हज़रत अली को मसजिद में सजदे की हालत में इब्ने मुल्जिम द्वारा पीछे से सिर पर वार कर शहीद कर दिया गया।
इसी तरह इराक़ स्थित करबला में हज़रत इमाम हुसैन के एक घुड़सवार के मुक़ाबले सैकड़ों यज़ीदी सैनिक लड़ते थे और तलवारें टूटने व छूटने के बाद भी लड़ते और हुसैन के भूखे प्यासे सैनिक को शहीद कर देते। औरतों को गिरफ़्तार करना, उनके हाथों व गलों में रस्सियां बांधना, उन्हें बे पर्दा बाज़ारों में फिराना, यह सब यज़ीदी दौर-ए-हुकूमत का चलन था। करबला में भी यज़ीद इसलामी साम्राज्यवाद के अस्तित्व व विस्तार की लड़ाई लड़ रहा था और तालिबानी भी वही लड़ाई लड़ रहे हैं।
गोया अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान से लेकर कश्मीर तक जहाँ भी ऐसी आतंकवादी घटनाएँ घटित हों जिनमें अल्पसंख्यकों की हत्याएँ की जा रही हों, औरतों, बच्चों व बुज़ुर्गों को मारा जा रहा हो, निहत्थों पर हमले हो रहे हों तो यही समझना चाहिये कि ये मुसलमानों या इसलामी समुदाय से जुड़े लोग नहीं बल्कि यह उस यज़ीदी विचारधारा के लोग हैं जिसने करबला में हज़रत मुहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन के पूरे परिवार को इसलिये क़त्ल कर दिया था। क्योंकि वे यज़ीद के ज़ुल्म व अत्याचार के शासन के विरुद्ध थे और उस जैसे व्यक्ति को इसलामी शासन के प्रतिनिधि होने के दावे को ख़ारिज करते थे।
विश्व के उदारवादी समाज को, विशेषकर उदारवादी व प्रगतिशील मुसलमानों को यह समझना होगा कि आख़िर क्या वजह है, और कौन सी वह विचारधारा है, कौन लोग हैं जो आज भी गुरुद्वारों, मंदिरों व मसजिदों पर हमले करते हैं?
कौन हैं वे लोग जो आज भी इमामों के रौज़ों, पीरों- फ़क़ीरों की दरगाहों, इमाम बारगाहों, मज़हबी जुलूसों, स्कूलों, बाज़ारों जैसी अनेक सार्वजनिक जगहों पर बेगुनाहों व निहत्थों का ख़ून बहाते फिरते हैं।
इन सभी आतंकियों के आक़ाओं द्वारा इनको यही समझाया जाता है कि आतंकी मिशन को 'जिहाद' कहा जाता है और इस दौरान मरने वाले को 'शहादत' का दर्जा हासिल होता है तथा बेगुनाहों व निहत्थों को मार कर वापस आने पर उन्हें 'ग़ाज़ी' के लक़ब से नवाज़ा जाता है और इन सब के बाद मरणोपरांत उन्हें जन्नत नसीब होगी।’ परन्तु यह शिक्षा पूरी तरह ग़ैर इसलामी व ग़ैर इंसानी है। ऐसे वहशी लोग तो जन्नत के नहीं बल्कि जहन्नुम के असली हक़दार हैं।