भारत को राजनीतिक रूप से एकताबद्ध करने में मुग़लों के ‘गौरवशाली’ इतिहास को याद करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने नवंबर 1944 को टोक्यो युनिवर्सिटी में शिक्षकों और छात्रों को संबोधित करते हुए कहा-“अशोक के क़रीब एक हज़ार साल बाद भारत एक बार फिर गुप्त वंश के सम्राटों के राज्य में उत्कर्ष के चरम पर पहुँच गया। उसके नौ सौ साल बाद एक बार फिर भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय मुग़ल काल में आरंभ हुआ। इसलिए यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेजों की यह अवधारणा कि हम राजनीतिक रूप में एक केवल उनके शासन काल में ही हुए, पूरी तरह ग़लत है।”(पेज 274, खंड-12, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)
लेकिन मोदी सरकार ने राष्ट्रपति भवन के मशहूर ‘मुग़ल गार्डन’ का नाम बदलकर ‘अमृत उद्यान’ कर दिया। अफ़सोस की बात ये है कि आज़ादी की लड़ाई की महान गाथा में गुँथी हिंदुओं और मुसलमानों की साझी विरासत और साझी शहादत के प्रति नफ़रत जताने के लिए आज़ादी का 75वाँ वर्ष चुना गया।
इस तरह मुग़ल बादशाहों के नाम पर बनीं सड़कों का नाम बदलने का सिलसिला सीधे राष्ट्रपति भावन तक जा पहुँचा है। ये इमारत वैसे तो ख़ुद विदेशी (अंग्रेज़ों) शासन का प्रतीक है लेकिन आरएसएस या बीजेपी को न आज़ादी के पहले अंग्रेज़ों से कोई शिकायत थी और न बाद मे ही है। उन्हें शिक़ायत सिर्फ़ मुग़लों से है जिन्होंने उनके मुताबिक़ ‘हिंदुओं पर तमाम अत्याचार’ किये और जिनके नाम पर आज के मुसलमानों को निशाना बनाकर राजनीतिक पूँजी जुटाना आसान होता है।
1911 में अंग्रेज़ों ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने का फ़ैसला किया। महान वास्तुविद् एडविन लुटियंस ने नई राजधानी (नई दिल्ली) को डिज़ायन करते वक़्त भारत के कई हज़ार साल के इतिहास को समेटने का प्रयास किया। इसलिए यहाँ की सड़कों के नाम सम्राटों, सुल्तानों और बादशाहों के नाम पर रखे गये जिन्होंने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया। इसी क्रम मे जब वायसरॉय हाउस (राष्ट्रपति भवन) बना तो उसके साथ एक भव्य उद्यान बनाने की कल्पना भी की गई।
उद्यान निर्माण कला ने मुग़लों के समय ख़ासी तरक़्क़ी की थी। मुग़लों ने बाबर के समय से ही भारत में फ़ारसी शैली के ख़ास बाग़ लगवाना शुरू कर दिया था। ‘चार-बाग़ शैली’ के ये बाग़ ताजमहल में अपने चरमोत्कर्ष रूप में है। हुमायूँ का मक़बरा भी इसी शैली का रूप है। इसमें पूरी ज़मीन को चार टुकड़ों में नहरों से विभाजित किया जाता है। फूलों, पौधों और पेड़ों को लगाने के कलात्मक तरीक़े से ये शैली रेगिस्तान में नखलिस्तान रचने का हुनर रखती है। सर लुटियंस ने वायसराय हार्डिंग की पत्नी लेडी हार्डिंग के कहने पर वायसराय हाउस में ऐसे ही उद्यान की कल्पना की और मुग़ल शैली के प्रभाव को स्वीकार करते हुए इसे ‘मुग़ल गार्डन’ नाम दिया गया।
साफ़ है कि मुग़ल गार्डन को बनाने में मुग़लों का कोई योगदान नहीं था जिन पर निशाना बनाना आरएसएस से संबद्ध संगठनों ने अपना मिशन बना रखा है। आरएसएस की यह समझ इतिहास की सामान्य समझ पर भी खरी नहीं उतरती।
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नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने मुग़लों के शासन के साथ ‘गौरवशाली इतिहास’ विशेषण यूँ ही नहीं जोड़ा था। मुग़लों के शासन में भारत ने अभूतपूर्व तरक़्क़ी की थी। न सिर्फ़ आर्थिक बल्कि सामाजिक प्रश्नों पर भी भारत ने जैसे जवाब तलाशे थे, उसका विश्व सभ्यता पर गहरा असर पड़ा। अकबर की सुलह-कुल नीति विविधिताओं भरी दुनिया में सहअस्तित्व का महान प्रयोग थी।
मुग़लों के समय भारत की अर्थव्यवस्था का पूरी दुनिया की जीडीपी में चौथाई हिस्सा था। उन्होंने प्रशासन से लेकर राजस्व वसूली तक की जो व्यवस्थाएँ बनाईं उनकी छाया आज भी नज़र आती है। सामान्य प्रचार के उलट, मुग़ल शासन हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था। यह सामान्य बात नहीं है कि जिस औरंगज़ेब को सबसे क्रूर शासक माना जाता था उसके काल में मुग़ल दरबार में पाँच हज़ारी हिंदू मनसबदारों की संख्या अकबर के काल से भी ज़्यादा थी। इन राजपूत मनसबदारों के दम पर ही मुग़ल शासन क़ायम था और जिन्हें अपना धर्म कभी ख़तरे में नहीं लगा। ‘कट्टर औरंगज़ेब’ को ‘हिंदू धर्म से प्रभावित’ दारा शिकोह के मुक़ाबले ज़्यादा तरजीह देकर उसे गद्दी तक पहुँचाने में मिर्जा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह जैसे राजपूत सेनानायकों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी।
मुग़लकाल की एक उपलब्धि ये भी रही कि बहादुर शाह प्रथम के शासनकाल तक, यानी लगभग 200 साल तक भारत को किसी विदेशी आक्रमण का सामना नहीं करना पड़ा। मुग़ल सत्ता के कमज़ोर होने के साथ ही यह सिलसलि शुरू हुआ फिर भी 1857 तक भारत की केंद्रीय सत्ता का प्रतीक मुग़ल बादशाह ही रहा।
हाँ, मुग़ल न लोकतांत्रिक थे और न सेक्युलर। वे हो भी नहीं सकते थे। शासन की ये व्यवस्थाएँ आधुनिक युग की उपलब्धियाँ हैं। राजतंत्र में इसकी संभावना नहीं होती। राजत्व के इस सामंतवादी तरीक़े में मेहनतकशों की लूट का कोई मुआवज़ा भी नहीं होता। राजा ईश्वर की छाया, जिल्लेइलाही होता है जिसकी किसी के प्रति जवाबदेही नहीं होती। अपने हर ग़लत-सही को धर्मानुसार ठहराने और के विरोधियों के प्रति क्रूरता बरतने में कोई शासक पीछे नहीं था, चाहे हिंदू रहा हो या मुसलमान। नागरिक और मानवाधिकारों की बात प्राचीन या मध्ययुगीन शासन व्यवस्था में संभव ही नहीं थी। ये आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के उदय के बाद की अवधारणाएँ हैं।
1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोदी को परास्त किया था तो ‘अल्लाहु अकबर’ का नारा दोनों तरफ़ गूँज रहा था। बाबर ने एक मुस्लिम शासन वंश को समाप्त करके ही मुग़ल सत्ता की नींव डाली थी। इसके पहले ‘सल्तनत काल’ में भी यही सिलसिला चला था।
‘राज्य का धर्म से कोई मतलब नहीं होगा, सभी नागरिक बराबर होंगे’- यह ‘सेक्युलर’ अवधारणा बिल्कुल नई है। भारत की आज़ादी की लड़ाई एक सेक्युलर भारत के सपने के साथ लड़ी गई। यह संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है। अफ़सोस की बात है कि इस संविधान की शपथ खाकर सत्तारूढ़ होने वाली बीजेपी की सरकार मुसलमानों से जुड़े प्रतीकों पर हमलावर होने को ‘राष्ट्रवाद’ बता रही है।
आज़ाद हिंद फ़ौज के सैन्य अभियान के बीच नेता जी सुभाषचंद्र बोस 26 सितंबर 1943 को रंगून में हिंदुस्तान की ‘आज़ादी की पहली लड़ाई के अंतिम योद्धा सम्राट’ बहादुर शाह ज़फ़र के मज़ार पर श्रद्धांजलि देना नहीं भूले थे। इस मौक़े पर उन्होंने मज़ार पर पचास हज़ार रुपये का नज़राना चढ़ाया और ज़फ़र के मशहूर शेर (ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तक तलक ईमान की, तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदुस्तान की) का अनुवाद भी पढ़ा- ‘हिंदुस्तान की आज़ादी के योद्धाओं के दिलों में जब तक ईमान की एक बूँद भी बाक़ी है, हिंदुस्तान की तलवार लंदन के दिन के आर-पास होती रहेगी।’(पेज 82, खंड-12 नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।
23 जनवरी 2023 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 126वीं जयंती समारोह को संबोधित करते हुए आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने कहा था कि नेताजी और उनके संगठन का लक्ष्य एक है। लेकिन मुग़ल गार्डन का नाम बदलना बताता है कि यह नेताजी के सपनों के भारत की हत्या का प्रयास है। नेताजी का नाम जपना बस इस गुनाह को छिपाने की कोशिश है।