हुक्मरान जब नौजवानों के मुकाबले वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुके अथवा उसे भी पार कर चुके नागरिकों से ज्यादा खतरा महसूस करने लगें तो क्या यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि सल्तनत में सामान्य से कुछ अलग चल रहा है? जीवन भर आदिवासियों के हकों की लड़ाई लड़ने वाले और शरीर से पूरी तरह अपाहिज हो चुके चौरासी बरस के स्टेन स्वामी की अपनी ही जमानत के लिए लड़ते-लड़ते हुई मौत उन नौजवानों के लिए कई सवाल छोड़ गई है जो नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष को अपने जीवन का घोषणापत्र बनाने का इरादा रखते होंगे।
स्टेन स्वामी की मौत की कहानी और उनकी ही तरह राज्य के अपराधी घोषित किये जाने वाले अन्य लोगों की व्यथाएँ निरंकुश सत्ता की बर्बरता के अंतहीन ‘हॉरर’ सीरियल की तरह नज़र आती हैं।
पांच जुलाई की दोपहर मुंबई हाई कोर्ट में जैसे ही गंभीर रूप से बीमार स्टेन स्वामी की जमानत के आवेदन पर सुनवाई शुरू हुई, होली फैमिली हॉस्पिटल, बांद्रा (मुंबई) के चिकित्सा अधीक्षक ने न्यायमूर्तिद्वय एसएस शिंदे और एनजे जामदार को सूचित किया कि याचिकाकर्ता (स्टेन स्वामी) का एक बजकर बीस मिनट पर निधन हो गया है।
दोनों ही न्यायमूर्तियों ने इस जानकारी पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा, “हम पूरी विनम्रता के साथ कहते हैं कि इस सूचना पर हमें खेद है, यह हमारे लिए झटके जैसा है। हमारे पास उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शब्द नहीं हैं।”
इसके पहले तीन जुलाई को जब अदालत स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर विचार करने बैठी थी तब उनके वकील ने कहा था कि उनके मुवक्किल की हालत गंभीर है। उसके बाद अदालत ने याचिका पर सुनवाई छह जुलाई तक के लिए स्थगित कर दी थी।
देखिए, इस विषय पर चर्चा-
निराश हुए मदन लोकुर
स्वास्थ्य संंबंधी कारणों के चलते 28 मई को मुंबई हाई कोर्ट के निर्देशों के बाद स्टेन स्वामी को होली फैमिली अस्पताल में भर्ती करवाया गया था जहाँ उन्होंने जमानत मिलने से पहले ही अंतिम सांस ले ली। स्टेन स्वामी की मौत पर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश मदन लोकुर ने कहा, “उनका निधन एक बड़ी त्रासदी है। मैं इस मामले में अभियोजन और अदालतों से निराश हूँ। यह अमानवीय है।”
एक काल्पनिक (हाइपोथेटिकल) सवाल है कि आतंकवाद के आरोपों के चलते नौ माह से जेल में बंद और वेंटीलेटर पर साँसें गिन रहे स्टेन स्वामी को अगर उनकी मौत से दो दिन पहले हुई अदालती सुनवाई में ही जमानत मिल जाती और तब हम यह नहीं कह पाते कि उनकी मौत हिरासत में हुई है तो क्या व्यवस्था, अभियोजन और अदालतों के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता?
कार्रवाई की मांग
सोनिया गांधी, शरद पवार, ममता बनर्जी और हेमंत सोरेन सहित देश के दस प्रमुख विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर मांग की है, “आप अपनी सरकार को उन तत्वों पर कार्रवाई करने को निर्देशित करें जो स्टेन स्वामी के खिलाफ झूठे प्रकरण तैयार करने, उन्हें हिरासत में रखने और उनके साथ अमानवीय बर्ताव करने के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे तत्वों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए।”
सरकार से करें उम्मीद?
कानून के ज्ञाता ही हमें ज्यादा बता सकते हैं कि इस तरह के पत्र और शिकायतें, जो देश भर से भी लगातार पहुंचती होंगी, के निराकरण के प्रति राष्ट्रपति भवन की मर्यादाओं का संसार कितना विस्तृत अथवा सीमित है। साथ ही यह भी कि पत्र में जिस ‘सरकार’ का ज़िक्र किया गया है उसका इस तरह की शिकायतों के प्रति अब तक क्या रवैया रहा है और उससे आगे क्या अपेक्षा की जा सकती है?
राष्ट्रपति को प्रेषित पत्र में जिन जिम्मेदार तत्वों की जवाबदेही तय करने का ज़िक्र किया गया है वे अगर कोई अदृश्य शक्तियां नहीं हैं तो पत्र लिखने वाले हाई प्रोफाइल लोग साहस दिखाते हुए, शंकाओं के आधार पर ही सही, उनकी कथित पहचानों का उल्लेख कम से कम देश को आगाह करने के इरादे से तो कर ही सकते थे।
हम जानते हैं कि स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी और हिरासत में हुई मौत के लिए किसी एक की जवाबदेही तय करने का काम असंभव नहीं हो तो आसान भी नहीं है। दूसरा यह कि क्या इस तरह की घटनाओं के किसी निर्णायक परिवर्तन तक पहुँचने तक नागरिक इन्हें याद रख पाते हैं?
जॉर्ज फ्लायड की मौत
अमेरिका में घटी पिछले साल की ही घटना है। छियालीस वर्षीय अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की गर्दन को जब एक गोरे पुलिस अफसर ने अपने घुटने के नीचे आठ मिनट और पंद्रह सेकेंड उसकी सांस उखड़ जाने तक दबाकर रखा था तो उस अपराध की गवाही देने के लिए कुछ नागरिक उपस्थित थे।
ये नागरिक श्वेत पुलिस अफसर को हाल ही में साढ़े बाईस साल की सजा सुनाये जाने तक अभियोजन के साथ खड़े रहे। जॉर्ज फ्लायड की मौत ने अमेरिका के नागरिक जीवन में इतनी उथल-पुथल उत्पन्न कर दी कि एक राष्ट्रपति चुनाव हार गया। अब वहां समाज में पुलिस की जवाबदेही तय किये जाने की बहस चल रही है।
स्टेन स्वामी प्रकरण की जवाबदेही इस सवाल के साथ जुड़ी हुई है कि किसी भी नागरिक की हिरासत में या सड़क पर होने वाली संदिग्ध मौत या मॉब लिंचिंग को लेकर हमारे नागरिक जीवन में क्या किसी जॉर्ज फ्लायड क्षण की आहट मात्र भी सुनाई पड़ सकती है? ऐसे मौके तो पहले भी कई बार आ चुके हैं।
अपनी मौत के साथ ही स्टेन स्वामी तो सभी तरह की सांसारिक हिरासतों से मुक्त हो गए हैं। अब यही कोशिश की जा सकती है कि इस तरह की किसी अन्य मौत की प्रतीक्षा नहीं की जाए। इस बात का ध्यान तो राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने वाले लोगों को ज़्यादा रखना पड़ेगा।
अंत में, स्टेन स्वामी की मौत से उपजे विवाद पर विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने अपने वक्तव्य में कहा है, “भारत की प्रजातांत्रिक और संवैधानिक शासन-विधि, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, मानवाधिकारों के उल्लंघनों पर निगरानी रखने वाले केन्द्रीय और राज्य-स्तरीय मानवाधिकार आयोगों, स्वतंत्र मीडिया और एक जीवंत और मुखर नागरिक समाज पर आधारित है। भारत अपने समस्त नागरिकों के मानवाधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के प्रति कटिबद्ध है।”
सवाल यह है कि देश के जो सभ्य और संवेदनशील नागरिक इस समय स्टेन स्वामी की मौत का दुःख मना रहे हैं, उन्हें इस वक्तव्य पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए?