मीरा बाई मार्ग पर उत्तर प्रदेश सरकार के गेस्ट हाउस का वह कमरा लगभग भरा हुआ था। मैं रात आठ बजे के क़रीब उस कमरे के अंदर गया तो लोगों ने ज़ोरदार ठहाके से मेरा स्वागत किया। 'अब आया है असली गुनहगार' हल्की दाढ़ी वाले, साँवले रंग के उस शख़्स ने धीरे से कहा और कमरा फिर ठहाके से भर गया। मैं थोड़ा सहम गया। मेरे सामने उस दौर के वरिष्ठ पत्रकार बैठे थे। मैं, एक नौसिखुआ पत्रकार उनके ठहाके का मतलब समझ नहीं पाया था। ख़ैर दाढ़ी वाले शख़्स ने फिर कहा 'जहाँ जगह दिखे बैठ जाओ, खड़े क्यों हो।' मैं सहमते हुए उनके पास ही बैठ गया।
वो दाढ़ी वाले व्यक्ति 'एस. पी.' यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह थे। उस ज़माने की सबसे ज़्यादा लोकप्रिय पत्रिका 'रविवार' के संपादक। एस. पी. से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। 'रविवार' में मैंने उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ अधिकारी के कारनामों पर रिपोर्ट लिखी थी। अधिकारी ने मानहानि का मुक़दमा कर दिया था। 'रविवार' का संपादक होने के कारण एस. पी. और दिल्ली स्थित विशेष संवाददाता उदयन शर्मा को भी इसका पार्टी बनाया था। इसी मुक़दमे में अदालत में पेश होने के लिए एस. पी. और उदयन लखनऊ आए थे। कमरे में रविवार के लखनऊ संवाददाता संतोष भारतीय और लखनऊ के कई पत्रकार मौजूद थे।
नाराज़ नहीं थे एस. पी.
मैं कुछ सहमा हुआ था। एक तो इतने बड़े पत्रकारों की मौजूदगी, ऊपर से मुक़दमे का डर। एस. पी. मेरे भीतर चल रहे द्वन्द को समझ गए। मुझे सहज बनाने के लिए हँसते हुए बोले 'अरे भाई डरते क्यों हो, ऐसे मुक़दमे तो होते ही रहते हैं।' फिर मुझसे पूछा 'क्या पियोगे ?' तब मैं शराब पीता नहीं था और शराब के बारे में ज़्यादा जानकारी भी नहीं थी। मैं कुछ जवाब दे नहीं पा रहा था। इस बीच एस. पी. ने अपने ग्लास में भूरे रंग के चौकोर बोतल से कुछ डालना शुरू किया और मुझसे फिर पूछा कि मैं क्या लूँगा। हिचकते हुए मैंने कहा कि यही ले लूँगा। एस. पी. ने एक ग्लास में मेरे लिए भी ढाला और बोले अब सही आदमी मिला है। रम पीता है।
वो शाम मेरे लिए अजीब सी थी। मुझे लग रहा था कि एस. पी. नाराज़ होंगे क्योंकि रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि एस. पी. बिलकुल भी नाराज़ या चिंतित नहीं थे। "शांत रहो, सबूत तो सरकार ख़ुद तुम्हारे पास भिजवाएगी" उन्होंने कहा। मुश्किल से दो तीन साल के अनुभव वाले युवा पत्रकार के लिए यह एक अच्छा सबक़ था। अगले दिन एस. पी. और उदयन के साथ मैं कोर्ट में हाज़िर हुआ। मुक़दमा करने वाले अधिकारी के वक़ील के विरोध के बावजूद एस. पी. और उदयन को हर तारीख़ पर कोर्ट में हाज़िर होने से छुट्टी मिल गयी। ये एक बड़ी राहत थी, क्योंकि हर महीने तारीख़ पर एस. पी. के लिए कोलकाता से और उदयन को दिल्ली से आना मुश्किल होता।
ये मुक़दमा मेरे लिए पत्रकारिता का पहला व्यावहारिक पाठ था। पहली बार मैंने यह समझा कि सबूत के बग़ैर कोई भी रिपोर्ट काग़ज़ के टुकड़े के बराबर है। आज कल बहुत से पत्रकार सिर्फ़ सुनी सुनाई बातों पर रिपोर्ट बना कर छाप देते हैं, टीवी या सोशल मीडिया पर चला देते हैं।
ख़बर के लिए सबूत ज़रूरी
आरोप सही है या नहीं इसकी चिंता भी नहीं करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि ये सारे पत्रकार वर्तमान क़ानूनों में जेल जा सकते हैं।
ग़नीमत है कि हमारी अदालतें इतनी लचर हो गयीं हैं कि ज़्यादातर लोग अदालत जाते ही नहीं हैं। इक्के- दुक्के लोग अदालत जाते भी हैं तो सालों साल चलने वाली लंबी करवाई से थक कर चुप बैठ जाते हैं। मानहानि, अदालत की अवमानना और अपमान लेख पर तेज़ी से कार्रवाई होने लगे तो बहुत बड़ी संख्या में पत्रकार और सोशल मीडिया के स्वघोषित समाचार वाहक जेल में होंगे। पत्रकार के रूप में मेरी पहली ग़लती भी बहुत गंभीर थी। मैंने पूरे सबूत जुटाए बिना रिपोर्ट छाप दी, जिसे अदालत में साबित करना बहुत मुश्किल था।
कहानी एक ऐसे अधिकारी के बारे में थी जो उत्तर प्रदेश के बहुत बड़े पद पर थे। उनकी पहुँच दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के परिवार तक थी। सत्ता के गलियारों में चर्चा थी कि उन्होंने मुख्यमंत्री तक की बात मानना बंद कर दिया था। सीधे दिल्ली के आदेश पर काम करते थे। दोनों के बीच विवाद काफ़ी बढ़ गया था। इस बीच आईबी के एक अधिकारी को मुख्य सचिव की गतिविधियों पर नज़र रखने पर लगा दिया गया। आईबी यह काम अनधिकृत रूप में कर रही थी।
दिलचस्प मामला
आईबी ने एक रिपोर्ट बनाकर प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दी। अब उसे छपवाना था ताकि प्रधानमंत्री कार्यालय मुख्यमंत्री को कार्रवाई की अनुमति दे। इंदिरा गांधी के इस कार्यकाल में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की स्थिति ऐसी कर दी गयी थी कि वह दिल्ली बल्कि प्रधानमंत्री परिवार के एक सदस्य की अनुमति के बिना कोई फ़ैसला नहीं कर सकते थे। ये दौर अख़बारों और पत्रिकाओं का था। टीवी और सोशल मीडिया अभी तक आया नहीं था।
मैं लखनऊ के एक प्रमुख हिंदी दैनिक अख़बार में नया नया रिपोर्टर बना था। इसी ग्रुप के अंग्रेज़ी दैनिक के एक वरिष्ठ संवाददाता ने मुझसे कहा कि एक बड़ी ख़बर है। चलो, एक मंत्री से मिलकर ले आते हैं। मैं इंग्लिश में करूँगा और तुम हिंदी में कर लेना। हम दोनों एक मंत्री से मिले। उन्होंने बड़े अधिकारी के ख़िलाफ़ टाइप किया हुआ एक पेज का नोट दिया। और बताया कि आईबी (इंटेलिजेन्स ब्यूरो) ने यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री को भेजी है। उस पर किसी का दस्तखत नहीं था। इस बात का भी कोई सबूत नहीं था कि आई बी ने ये रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी है।
हमें आश्वस्त करने के लिए मंत्री ने आईबी के स्थानीय प्रमुख से मिल कर कन्फ़र्म करने की सलाह दी। मंत्री ने ही फ़ोन करके आईबी प्रमुख से हमारी मुलाक़ात तय करा दी। हम आईबी प्रमुख से मिले। उन्होंने कन्फ़र्म किया कि आईबी ने वह रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी है। बस हमें लगा कि बहुत बड़ी रिपोर्ट हमारे हाथ लग गयी है।
हमने न तो आरोपों के सबूत की खोज की और न ही ये समझने का प्रयास किया कि रिपोर्ट पर किसी का दस्तखत क्यों नहीं है। हमने रिपोर्ट लिखकर अपने अख़बार को दे दी। लेकिन संपादक ने रिपोर्ट में से अधिकारी का नाम हटा कर छापने का फ़ैसला किया।
ख़बर से मचा तहलका
ख़बर छपी तो राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में सनसनी फैल गयी। नाम नहीं छपने के बावजूद कुछ लोग समझ गए कि रिपोर्ट किसके बारे में है। बहरहाल कुछ दिनों बाद वो अधिकारी ज़्यादा महत्वपूर्ण पद से हटाकर कम महत्वपूर्ण पद पर भेज दिए गए।
आईबी की रिपोर्ट के नाम पर दिए गए कागज में बहुत कुछ ऐसा था जो अख़बार में नहीं छपा था। मैंने उस पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की और उसे 'रविवार' को भेज दिया। अधिकारी की तसवीर के साथ ये रिपोर्ट रविवार में छप गयी। अख़बार में नाम और फ़ोटो नहीं था इसलिए अधिकारी ने कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन रविवार पर मुक़दमा ठोंक दिया।
सबूत की तलाश में जब मैं आईबी के उस अधिकारी से मिला तब मुझे हैरान करने वाली कई जानकारियाँ मिलीं। सबसे पहले तो अधिकारी ने बताया कि आईबी इस तरह की जाँच सिर्फ़ राजनीतिक आकाओं को ख़ुश करने के लिए करती है। उसे इस तरह की जाँच का अधिकार नहीं है। इसलिए वो सिर्फ़ ग़ैर सरकारी तौर पर मदद करेंगे। उन्होंने कोर्ट में आईबी का नाम लेने से भी मना किया।
आईबी का सच
सबूतों की तलाश के दौरान ही एक और सच्चाई मेरे सामने आयी। आईबी की स्थापना भारत आने वाले विदेशियों पर नज़र रखने के लिए की गयी थी। इनमें अवैध रूप से भारत आने वाले विदेशी भी शामिल हैं। लेकिन सत्तर के दशक में इसका उपयोग राजनीतिक विरोधियों यहाँ तक कि सरकारी अधिकारियों पर नज़र रखने के लिए किया जाना शुरू किया गया। उत्तर प्रदेश के अधिकारी के मामले में भी यही हुआ था। आई बी इस तरह की रिपोर्ट के लिए कोई ख़ास सबूत भी इकट्ठा नहीं करती थी। इनका उपयोग आम तौर पर नेताओं और अधिकारियों को डराने के लिए किया जाता था।
रविवार के क़ानूनी सलाहकार मुझ पर सबूत के लिए दबाव बना रहे थे। और आईबी अधिकारी मुझे सबूत दे नहीं रहे थे। इस बीच उदयन शर्मा की तरफ़ से मुक़दमे को अलग से चुनौती दी गयी। उदयन दिल्ली में विशेष संवाददाता थे। उनका रिपोर्ट से कोई सम्बंध नहीं था। इसलिए उनको मुक़दमे पर स्टे मिल गया। कोर्ट में जो भी करवाई चल रही थी वह रुक गयी। इससे हमें थोड़ी राहत मिल गयी।
स्टे के बाद अधिकारी थोड़े परेशान हो गए। उन्हें लग गया कि मुक़द्दमे के फ़ैसले में बहुत देर लगेगी। तब उन्होंने मेरे पास एक प्रस्ताव भेजा कि हम अगर माफ़ी छाप दें तो वो मुक़द्दमा वापस ले लेंगे। मैंने फ़ोन पर एस.पी. से बात की तो एस. पी. माफ़ी छापने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा कि मैंने भी पता कर लिया है, आरोप सही हैं। सबूत की तलाश करो। लखनऊ में भी पत्रकार साथियों से इस बारे में मेरी बात हुई। पता नहीं कैसे सरकारी हलकों में यह बात फैल गयी कि 'रविवार' माफ़ी माँगने के लिए तैयार हो गया है। इसका एक फ़ायदा ये हुआ कि अधिकारियों का एक ग्रुप परेशान हो गया। उन्हें डर लगने लगा कि 'रविवार' प्रकरण बंद होते ही वो अधिकारी महत्वपूर्ण पद पर वापस आ सकते हैं।
एक सुबह मेरे छोटे से घर की घंटी बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो उत्तर प्रदेश पुलिस के एक बड़े अधिकारी खड़े मिले। मैं उन्हें घर के अंदर ले आया। बैठ कर बातें होने लगीं। धीरे धीरे उनके आने का मक़सद साफ़ हुआ। उन्होंने मुझसे कहा कि हम मुक़दमे में माफ़ी नहीं माँगे।
सबूत चल कर आया
फिर मुख्यमंत्री कार्यालय के एक बड़े अधिकारी का नाम लेकर कहा कि मैं उनसे मिलूँ, वो मुझे सबूत देंगे।
मैं उसी दिन उस अधिकारी से मिला। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से मुझसे बात की। और फिर एक फ़ाईल से कुछ काग़ज़ मुझे दिए। इन काग़ज़ों में दस में से पाँच आरोपों के सबूत थे। उन्होंने बाक़ी सबूत भी जल्दी ही देने का आश्वासन दिया। वो काग़ज़ मैंने एस. पी. को भेजा। उन्हें देखने के बाद एस. पी. ने मुझे फ़ोन किया और कहा कि ज़बरदस्त सबूत है। अब हम मुक़दमा लड़ लेंगे।
सबूत हमारे पास पहुँचने की ख़बर उस अधिकारी तक भी पहुँच गयी, जिन्होंने हम पर मुक़दमा किया था। अब उनकी घबराहट बढ़ गयी। उन्होंने नयी पेशकश की कि हम पाठकों के पत्र कालम में उनकी चिट्ठी छाप दें तो मुक़दमा वापस ले लेंगे। मैंने उनकी चिट्ठी एस. पी. को भेजी। एस. पी. उसे भी छापने के लिए तैयार नहीं हुए।
चिट्ठी में रिपोर्टर यानी मुझ पर कुछ आरोप लगाए गए थे। एस. पी. ने कहा कि इस तरह के आरोप नहीं छापेंगे। बाद में अधिकारी ने उन आरोपों को भी चिट्ठी से निकाल दिया। तब एस. पी. ने उनकी चिट्ठी छाप दी, जिसमें उनका अपना पक्ष रखा गया था। ये पत्रकारिता के स्थापित मर्यादा के अनुरूप था, जिसके मुताबिक़ अभियुक्त को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार है।
पहली बार रिपोर्ट लिखने से पहले भी मैंने अधिकारी का पक्ष जानने की कोशिश की थी, लेकिन तब वो बात करने के लिए तैयार नहीं हुए। ये एस. पी. का नैतिक बल था, जिसने हमें लड़ने के लिए खड़ा रखा। लेकिन मैंने एक बड़ा सबक़ सीखा कि जब तक सबूत हाथ में नहीं हो तब तक पत्रकार को कभी भी कोई रिपोर्ट नहीं लिखनी चाहिए। यही आगे चलकर पत्रकारिता में मेरी ताक़त बनी।