तीन दिन पहले कोई पूछता कि ये सेंगोल क्या है तो लोग या तो आसमान देखते या फिर पूछने वाले के सवाल पर हँसते। लेकिन इस वक्त पूरा देश सेंगोल के चंगुल में है। पूरा देश सब चीजों पर से ध्यान हटा कर इसी चर्चा में जुटा है कि अगर सेंगोल संसद में नहीं लगा तो हिंदू सभ्यता का कितना ह्रास होगा। ग़ैर-मुद्दे को छद्म राष्ट्रवाद का जामा पहनाकर लोगों को लगातार उसमें डुबकियाँ लगवाने के लिये मजबूर करना मोदी सरकार की ख़ासियत है। डरी और सम्मोहित मीडिया के ज़रिये निरंतर लोगों को असली मुद्दों से ध्यान भटकाने में माहिर। छद्म नैरेटिव बनाने में उस्ताद सरकार का ये नया खेल है ताकि नौ साल होने पर कोई ये सवाल न पूछें कि आम आदमी की आय क्यों कम होती जा रही है? महंगाई और बेरोज़गारी क्यों आसमान छू रही है? समाज को क्यों लगातार धर्म के नाम पर बाँटा जा रहा है? और प्रधानमंत्री के ऑस्ट्रेलिया में रैली करने से किसको फ़ायदा हो रहा है?
दरअसल, हर समाज में ऐसा होता है जब आम जन पुराने मूल्यों और परंपराओं से बोर होने लगते हैं या फिर उसकी आकांक्षाओं पर मौजूदा सरकारें खरी नहीं उतरतीं तो वो विकल्प की तलाश में निकल पड़ते हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। 2014 आते-आते कांग्रेस सरकार की ग़लतियों की वजह से लोगों को नये नेता, नई पार्टी और नये विचार की तलाश थी। मनमोहन को रिजेक्ट करने की खोज में वो मोदी को अपना बैठे। वो मोदी जो प्रचार के मास्टर हैं, उन्होंने एक नये भारत का सपना बेच दिया। आरएसएस और बीजेपी ने उस सपने को अपनी सांगठनिक क्षमता और मीडिया में बैठे अपने लोगों के ज़रिये जन जन तक पहुँचा दिया। लोगों को मोदी में एक नया जन नायक दिखा। वैसे ही जैसे दिल्ली में लोगों को अरविंद केजरीवाल में नया मसीहा नज़र आया।
दोनों पुराने से ऊबे भारतीयों की पसंद हैं। और दोनों ही उस राजनीतिक परंपरा से नहीं आते जो आज़ादी के बाद की राजनीति की पहचान बन गई थी। दोनों ही अपने ढंग से पारंपरिक संरचना के ख़िलाफ़ उपज रही बेचैनी के परिणाम हैं। दोनों ही प्रोटेस्ट वोट हैं। भारतीय समाज का स्थाई भाव नहीं है। और जब स्थाई भाव की बात करते हैं तो फिर उसको इतिहास की दृष्टि में कुछ सालों से नहीं मापते। हर चलायमान सभ्यता कुछ दशकों या सदियों के बाद अपनी केंचुली को उतार फेंकती है और अपने में नया परिष्कार करती है। इस प्रक्रिया में कुछ समय के लिये नकारात्मकता का स्वर उठता है, निराशा का पुट आता है और पाप और पुण्य के बीच फ़र्क़ ख़त्म होने का भ्रम पैदा होता है। परिवर्तन की इस बेला में गहरे विक्षोभ का आना स्वाभाविक है। कुछ समय के बाद एक बार फिर से सार्वभौमिक मूल्यों की स्थापना होती है और समाज नई ऊर्जा के साथ फिर से गतिमान हो जाता है।
आज समाज में जो नकारात्मकता है वो अस्थाई है। इस वक्त समाज दो हिस्सों में बंटा साफ़ दिखाई देता है। भारत नाम का विचार पहले एक था। अब भारत को हिंदू और मुसलमान में बाँट दिया गया है। ये वो काम है जो आरएसएस बरसों से करने की कोशिश में लगा था। आज कामयाब है क्योंकि उसको चुनौती देने वाले मूल्य कमजोर हैं।
ये अकारण नहीं है कि हिंदुओं को जोड़ने का दावा करने वाली बीजेपी यूपी में दलितों को जाटव और ग़ैर-जाटव में बाँटती है। पिछड़ों को यादव और ग़ैर यादव में विभाजित करती है। हरियाणा में जाट बनाम गैर-जाट की राजनीति खेलती है। वैसे ही जैसे झारखंड में आदिवासी बनाम ग़ैर-आदिवासी का खेल होता है। या फिर मणिपुर में मैतेई और कूकी को अलग कर देखती है।
ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं था। हिंदू समाज शताब्दियों से विभिन्न जातियों में बंटा हुआ था। बाबा साहेब आम्बेडकर हिंदू समाज के बारे में कहते थे कि ‘श्रेणीबद्ध असमानता’ ही हिंदू समाज की पहचान है।
कांग्रेस ने भी वोट बैंक के नाम पर ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों का एक वोटबैंक तैयार किया था लेकिन उसमें नफ़रत का पुट नहीं था। बीजेपी ने नफ़रत को हथियार बना लिया है। बहुत भोथरे तरीक़े से समाज में ज़हर को फैलाया जा रहा है। वो जो हिंदुओं को एक करने की बात करते थे वो बेहद विभत्स तरीक़े से जातियों के भीतर दीवार खड़ी कर रहे हैं। बुरी तरह से अलग-अलग धर्मों और जातियों में बंटा भारत मोदी सरकार के नौ साल की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जिसको जोड़ने में बहुत वक्त लगेगा और बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।
इन बीते सालों में भारत में लोकतंत्र बहुत कमजोर हुआ है। जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही लगभग ख़त्म हो गयी है। अब लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ़ चुनाव लड़ना और जीतना भर रह गया है। संसद में बहुमत जुटाना इस लोकतंत्र की एकमात्र ख़ासियत रह गई है। सत्ता में बैठे लोग भूल रहे हैं कि संसद सिर्फ़ सांसद चुनने का नाम नहीं है। देश के मुद्दों पर बहस करना और देश के प्रधानमंत्री की जवाबदेही तय करना संसद का असली काम है। बहुमत की सरकार तानाशाह न बने, अल्पमत को न कुचले, उसे उसकी गलती का एहसास कराये, ये काम अब संसद नहीं करती। प्रधानमंत्री कभी भी सांसदों के पूछे सवालों का जवाब नहीं देते। मंत्री सवालों के जवाब में विपक्षी सांसदों का मज़ाक़ उड़ाते हैं और उनकी देशभक्ति पर प्रश्न खड़े करते हैं। संसद सहमति बनाने का मंच हुआ करती थी। अब खंडित आस्था का केंद्र बन गई है। जो सवालों को सुलझाने की जगह, उलझाने का काम करती है। ऐसे में जब नई संसद का उद्घाटन विवादों में फँस गया तो हैरानी कैसी!
संसद को चूँकि सरकार ने प्रधानमंत्री की जागीर बना दिया है लिहाज़ा उसके उद्घाटन में न तो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के लिये जगह है और न ही उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के लिये। विपक्ष भी नहीं होगा। ऐसे में जिस भवन का उद्घाटन हो रहा है वो संसद कैसे हुई?
इंदिरा बनाम मोदी!
संसद कोई ईंट गारे से बनी इमारत नहीं है। वो देश के लोकतंत्र की आत्मा का नाम है। बिना विपक्ष, कोई लोकतंत्र नहीं होता। उसे तानाशाही ही कहा जाता है। और अगर ये लम्हा इतना ही ऐतिहासिक है जैसा सरकार की तरफ़ से बताया जा रहा है तो फिर उस क्षण के गवाह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति क्यों नहीं हैं? इस सवाल का जवाब न तो सरकार के पास है और न ही बीजेपी के पास। ऐसा इसलिये है क्योंकि आज भारत फिर उसी क्षण को जी रहा है जैसा इंदिरा गांधी के समय था। जब कैबिनेट और सरकार का मतलब था सिर्फ़ इंदिरा गांधी। वो ही सरकार थीं, वही संसद थीं और वही देश भी। आज वो भूमिका मोदी निभा रहे हैं। तब इंदिरा के इस काम की परिणति आपातकाल में हुई थी। क्योंकि जब जब किसी भी नेता का कल्ट खड़ा किया जाता है तो सबसे पहले संसद बौनी हो जाती है। और ऐसी संसद लोकतंत्र की रक्षा नहीं कर सकती। आज वही हो रहा है। ये मोदी सरकार की दूसरी बड़ी उपलब्धि है!
तीसरी उपलब्धि का प्रतीक चिन्ह सेंगोल है! लोकतंत्र में राजा के दंड का क्या काम? लेकिन आज उसे नई संसद में स्पीकर के पीछे स्थापित किया जा रहा है। और हिंदू परंपरा के नाम पर उसका महिमा मंडन किया जा रहा है।
राजदंड किसी भी काल में राजशाही का ही प्रतीक हो सकता है, किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था का नहीं। हर सभ्यता अपने अतीत से कुछ सीखती है। वो अपनी परंपरा से जुड़ने के एहसास से ऊर्जस्वित होती है। भारतीय परंपरा वैदिक काल से अब तक विचारों की स्वतंत्रता और उनके बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये जानी जाती रही है। इस परंपरा में निर्गुण निराकार ब्रह्म भी है और साकार साक्षात ईश्वर भी है। अगर कबीर के निर्गुण राम है तो तुलसी के सगुण राम भी। कृष्ण सिर्फ राधा के नहीं हैं, वो रसखान को भी उतने ही प्यारे हैं। और दोनों ही हमारी आस्था के प्रतीक हैं। लेकिन जब परंपरा को सिर्फ़ एक ख़ास खाँचे में ढाल कर ये बताने का प्रयास किया जाए कि धर्म तो सिर्फ़ वही है जो हम कह रहे हैं तो फिर जान लीजिये कि ऐसे लोगों को न तो आस्था की पहचान है और न ही भारतीयता की समझ।
दिक्कत सेंगोल से नहीं, उसकी लोकतंत्र के मंदिर में स्थापना से है जिसके माध्यम से भारतीय लोकतंत्र को राजशाही में तब्दील किया जा रहा है और ये एक व्यक्ति के लिये हो रहा है। इसके बहुत दूरगामी परिणाम होंगे।