आज़ाद हिंद फ़ौज के शीर्ष कमांडर बतौर नेताजी सुभाषचंद्र बोस 26 सितंबर 1943 को रंगून पहुँचे और वहाँ उन्होंने अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर सजदा किया। यही नहीं, मज़ार पर 50 हज़ार रुपये बतौर नज़राना भी चढ़ाया। नेताजी की नज़र में बहादुर शाह ज़फ़र आज़ादी की पहली लड़ाई की नायक ही नहीं उस महान मुग़ल वंश के अंतिम शासक थे जिसने भारतीय इतिहास में एक ‘गौरवशाली अध्याय’ जोड़ा था। नेताजी ने अंग्रज़ों को जवाब देते हुए कहा था-“अशोक के क़रीब एक हज़ार साल बाद भारत एक बार फिर गुप्त सम्राटों के राज्य में उत्कर्ष के चरम पर पहुँच गया। उसके नौ सौ साल बाद एक बार फिर भारतीय इतिहास का का गौरवशाली अध्याय मुग़ल काल में आरंभ हुआ। इसलिए यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेज़ों की यह अवधारणा कि हम राजनीतिक रूप में एक केवल उनके शासनकाल में ही हुए, पूरी तरह ग़लत है। (पेज 274, खंड-12, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)
नेताजी के ऐसा कहने के पीछे मुग़लकालीन भारत में आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक और कलात्मक क्षेत्र में उन्नति के अलावा मेल-मिलाप की संस्कृति में हुए विकास की ओर ध्यान दिलाना था। कौन कहेगा कि नेताजी की इतिहास को लेकर समझ आरएसएस से कमज़ोर थी या फिर वे इस स्वंयभू राष्ट्रवादी संगठन से कम राष्ट्रवादी थे जो बात-बात में मुग़लों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलता रहता है। लेकिन जिस तरह से एनसीईआरटी की किताबों से मुग़लों से जुड़े पाठ हटाये जा रहे हैं उसके पीछे आरएसएस की वही दृष्टि काम कर रही है जो नेताजी से उलट है। इतिहास को अपने रंग में रँगना आरएसएस का पुराना एजेंडा है और केंद्र में बीजेपी की सरकार होने पर वह इस दिशा में तेज़ी से बढ़ती है।
इस समय मीडिया पूरी तरह मुग़लों से जुड़े पाठ को हटाने पर सुर्खी बनाने में जुटा है, वह भी आरएसएस की ही रणनीति है। उसे पता है कि इसकी आड़ में ‘अपने इतिहास’ से पीछा छुड़ाने का उसका षड़यंत्र पर्दे के पीछे छिप जाएगा। हक़ीक़त ये है कि न सिर्फ़ मुग़लों से जुड़ा पाठ हटाया जा रहा है, बल्कि महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से संघ के जुड़ाव और उस पर लगे प्रतिबंध से जुड़े तथ्य भी हटाये जा रहे हैं। साथ ही लोकतंत्र और जनांदोलनों से जुड़े पाठ भी हटाये जा रहे हैं जिनके ज़रिए मौजूदा बीजेपी सरकारों के कार्यकलाप को कसने की लोकतांत्रिक कसौटी छात्रों को मिलती है।
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इतिहास कोई इमारत नहीं है जिसमें कोई मनचाही तोड़फोड़ करके नये नक्शे में ढाल दे। इतिहास लेखन एक पेशेवर काम है जो नये तथ्यों की रोशनी में ही बदला जा सकता है। पुरातात्विक या दस्तावेज़ी प्रमाण इसके लिए ज़रूरी हैं न कि किसी की इच्छा। जो तथ्यों से प्रमाणित नहीं होता वह किस्सा तो हो सकता है, इतिहास नहीं।
दिक्कत ये है कि आरएसएस उन गप्पों को इतिहास में जगह दिलाना चाहता है जो उसकी शाखाओं में दशकों से हाँकी जाती हैं लेकिन पेशेवर इतिहास लेखन के परिसर के गेट पर ही दम तोड़ देती हैं। उसे लगता है कि जब हर तरफ़ लोकतांत्रिक संस्थाओं पर क़ब्ज़े का एक दौर पूरा हो गया है तो इतिहास के परिसर पर भी क़ब्ज़ा किया जा सकता है। इस तरह वह उसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक़ यही है कि इससे कोई सबक़ नहीं लेता। सरकारों की उम्र इतिहास की उम्र के सामने पानी का बुलबुला भर होती है।
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मुग़लों का इतिहास न पढ़ाने के पीछे एक और वजह है। दरअसल, मुग़ल साम्राज्य का अध्ययन आरएसएस की इस मेहनत पर पानी फेर देता है कि मुग़ल काल सिर्फ़ ‘हिंदू-मुस्लिम संघर्ष’ का दौर था।
‘मुग़ल दरबार’ से जुड़ा पाठ इसीलिए हटाया गया है क्योंकि इसके बारे में अध्ययन होगा तो राजा मान सिंह, टोडरमल और बीरबल जैसे नवरत्न अकबर के साथ खड़े नज़र आयेंगे और उससे लोहा लेने वाले महाराणा प्रताप का साथ देते हुए हकीम ख़ाँ सूर दिखेगा। औरंगज़ेब के दरबार में मिर्जा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह मिलेंगे और उसको कड़ी चुनौती देने वाले शिवाजी की सेना में तोपख़ान प्रमुख का नाम इब्राहिम ख़ान, नौसेना प्रमुख का नाम दौलत ख़ान और राजदूत बतौर क़ाज़ी हैदर का नाम दर्ज मिलेगा।
हद तो तब होगी जब औरंगज़ेब को लिखा शिवाजी का पत्र सामने आयेगा जिसमें अकबर को ‘जगतगुरु’ कहते हुए हिंदुओं और मुसलमानों को एक बताया गया है। शिवाजी ने लिखा था- “अकबर ने इस बड़े राज्य को बावन बरस तक ऐसी सावधानी और उत्तमता से चलाया कि सब फिरकों के लोगों ने सुख और आनन्द पाया। क्या ईसाई, क्या भुसाई, क्या दाऊदी, क्या फलकिये, क्या नसीरिए, क्या दहरिये, क्या ब्राह्मण और क्या सेवड़े, सब पर उनकी समान कृपा दृष्टि रहती थी। इसी सुलह कुल के बर्ताव के कारण सब लोगों ने उन्हें जगत गुरु की पदवी दी थी। इसी प्रभाव के कारण वे (अकबर) जिधर देखते थे, फतह उनके सामने आकर खड़ी हो जाती थी….क़ुरआन ईश्वर वाणी है। उसमें अल्लाह को मुस्लिमों का नहीं, विश्व का ईश्वर कहा गया है। हिंदू-मुस्लिम एक हैं।”
ज़ाहिर है कि इतिहास का यह पाठ अगर छात्र पढ़ेंगे तो उन क़िस्सों पर सवाल खड़ा करेंगे जो इतिहास के नाम पर उन्हें बताने की कोशिश की जा रही है। आरएसएस अगर किसी चीज़ से सबसे ज़्यादा परेशान होता है तो सवाल खड़े करने की प्रवृत्ति से। उसे विचारक नहीं सिर्फ़ प्रचारक चाहिए या कहें कि एक ‘आदेशपालक समाज’ बनाना ही उसका लक्ष्य है। इसीलिए वह न सिर्फ़ मुग़ल दौर के इतिहास से लोगों को दूर करना चाहता है, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के पाठ में भी घालमेल करना चाहता है।
ख़ैरियत है कि अभी महात्मा गाँधी के ख़िलाफ़ बीजेपी खुलकर बोल नहीं रही है, लेकिन नाथूराम गोडसे को प्रतिष्ठित करने की कोशिश तो स्पष्ट है। वरना क्या वजह है कि महात्मा गाँधी के हत्यारे गोडसे से जुड़ी जानकारियाँ भी हटायी जा रही हैं। इसी के साथ महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध की बात को भी हटा दिया गया है। इससे छात्रों को यह भी पता चल सकता है कि यह प्रतिबंध किसी और ने नहीं, सरदार पटेल ने लगाया था। इतिहास में ज़्यादा रुचि किसी के सामने यह स्पष्ट कर सकती है कि आरएसएस की आज़ादी की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं थी। यही नहीं, वह अंग्रेज़ों का साथ भी दे रहा था।
यह संयोग नहीं कि हाल ही में गोरखपुर विश्वविद्यालय में उन लेखकों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है जिनका शुमार लुगदी साहित्य के निर्माताओं में किया जाता है। प्रेमचंद, निराला, फ़िराक़ आदि को पढ़ाने का मतलब स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि से बार-बार रूबरू होना है जो आरएसएस को असहज करते हैं। अगला चरण विज्ञान के उन सिद्धांतों को कोर्स से बाहर करना हो सकता है जो धार्मिक सिद्धांतों को चुनौती देते हैं। जिस समय दुनिया भर में ‘आर्टीफ़ीशियल इंटेलीजेंस’ पर काम हो रहा है, भारत की युवा पीढ़ी के ‘इंटेलीजेंस’ को कमज़ोर करने की यह कोशिश होते देखना वाक़ी दुखद है।
कुल मिलाकर पाठ्यक्रम में बदलाव का मक़सद तथ्यों और तर्कों से छात्रों को दूर रखना और ‘क्रिटिकल थिंकिंग’ की संभावनाओं को सीमित करना है। लेकिन अगर किसी समाज का आलोचनात्मक विवेक कमज़ोर पड़ता है तो उसका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र लगातार पिछड़ना तय है। विश्वगुरु बनने की चाहत रखने वालों को यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाये, उतना अच्छा।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)