आरएसएस का हिंदू राष्ट्रवाद यानी सवर्णों का विद्रोह

07:14 am Oct 05, 2020 | ज्याँ द्रेज़ - सत्य हिन्दी

भारत में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की हालिया उठापटक, जाति को ख़त्म करने और अधिक समानमूलक समाज लाने के आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है। यह झटका एक दुर्घटना नहीं है: हिंदू राष्ट्रवाद के बढ़ते क़दम को लोकतंत्र की समतावादी माँगों के ख़िलाफ़ उच्च जातियों के विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है।

हिंदुत्व और जाति

हिंदू राष्ट्रवाद के आवश्यक विचारों, जिन्हें ‘हिंदुत्व’ के रूप में भी जाना जाता है, को समझना मुश्किल नहीं है। वी डी सावरकर ने ‘एसेंशियल्स ऑफ़ हिन्दुत्व’ (सावरकर, 1923) में इसे बड़ी स्पष्टता से समझाया है और एम.एस. गोलवलकर ने इसे आगे बढ़ाया है। मूल विचार यह है कि भारत ‘हिन्दुओं’ का देश है, यहाँ हिन्दुओं को सांस्कृतिक रूप से परिभाषित किया गया है, न कि धार्मिक रूप से एवं इस परिभाषा के अंतर्गत हिन्दुओं में सिख, बौद्ध और जैन शामिल हैं, लेकिन मुसलिम और ईसाई नहीं हैं। हिंदुत्व का अंतिम लक्ष्य हिंदुओं को एकजुट करना, हिंदू समाज को पुनर्जीवित करना और भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना है।

संयोग से, जो तर्क इन विचारों का समर्थन करने के लिए दिए गए थे, वे तर्कसंगत सोच, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान से परे थे। उदाहरण के तौर पर- गोलवलकर के इस तर्क पर विचार करें कि सारे हिन्दू एक ही जाति - आर्यन जाति से सम्बंधित हैं। गोलवलकर के इस तर्क के विपरीत उस वक़्त के इतिहासकारों का कहना था कि आर्यन भारत के उत्तर से और वास्तव में उत्तरी ध्रुव से आए हैं। इस दावे के जवाब में गोलवलकर ने कहा कि उत्तरी ध्रुव पहले भारत का ही हिस्सा था-

“… उत्तरी ध्रुव स्थिर नहीं है और काफ़ी पहले यह दुनिया के उस हिस्से में था, जिसे वर्तमान में बिहार और उड़ीसा कहा जाता है;... उसके पश्चात् यह उत्तर-पूर्व में चला गया और फिर कभी पश्चिमी और कभी उत्तर-पश्चिमी चाल से, यह अपनी वर्तमान स्थिति में आ गया ... हम यहीं थे और आर्कटिक ज़ोन हमें छोड़कर उत्तर की ओर एक ‘ज़िगज़ैग मार्च’ में चला गया।”

गोलवलकर ने यह नहीं बताया कि उत्तरी ध्रुव के इस ‘ज़िगज़ैग मार्च’ के दौरान आर्यन कैसे एक ही जगह पर स्थिर रहे। उन्होंने अपने जवाब के बचाव में एक अजीब सा दावा किया कि सारे आर्यन एक ही भाषा बोलते हैं जो कि वैज्ञानिक तर्क के प्रतिकूल है।

हिंदुत्व परियोजना को आम संस्कृति से जुड़े पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को बहाल करने के प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है, जो कथित रूप से सभी हिंदुओं को जोड़ता है। जाति-व्यवस्था अथवा वर्ण-व्यवस्था इस संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। उदाहरण के तौर पर, ‘वी और आवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में गोलवलकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘समाज के हिन्दू ढाँचे’ में ‘वर्ण और आश्रम’ का एक विशिष्ट स्थान है। इसका वर्णन उनकी किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में है।

गोलवलकर वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए उसे एक ‘सामंजस्यपूर्ण सामाजिक व्यवस्था’ कहते हैं। अन्य जाति समर्थकों की भाँति, गोलवलकर कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था एक पदानुक्रमित व्यवस्था नहीं है।

गोलवलकर और अन्य हिंदुत्व विचारधाराओं में जाति कोई समस्या नहीं है, लेकिन उन्हें ‘जातिवाद’ से आपत्ति है। हिन्दू विचारधाराओं में जातिवाद का तात्पर्य जाति सम्बंधित भेदभाव से नहीं है, बल्कि इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के जातिगत संघर्षों के लिए किया गया है - जैसे दलितों का अपने हक़ के लिए लड़ना अथवा आरक्षण माँगना। इसे जातिवाद माना जाता है, क्योंकि यह हिंदू समाज को विभाजित करता है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस), जो आज हिंदू राष्ट्रवाद का मशाल-वाहक है, इन आवश्यक विचारों के प्रति वफ़ादार रहा है। जाति पर  इनका मानक तर्क है कि जाति ‘हमारे देश की प्रतिभा’ या मज़बूती का प्रमाण है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव, राम माधव ने हाल ही में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से कहा कि वास्तविक समस्या जाति नहीं बल्कि जातिवाद है।

तीन साल पहले एनडीटीवी के साथ एक इंटरव्यू में, उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने ऐसा ही बयान दिया था। गोलवलकर की तरह, उन्होंने बताया कि जाति ‘एक व्यवस्थित तरीक़े से समाज का प्रबंधन’ करने की विधि थी। उन्होंने कहा:

हिंदू समाज में जातियाँ वही भूमिका निभाती हैं जो खेतों में हल रेखा, हल जोते जाने पर करती है, और इसे व्यवस्थित रखने में मदद करती है... जातियाँ ठीक हैं, लेकिन जातिवाद नहीं…।


योगी आदित्यनाथ

एक अन्य नज़रिये से इस मुद्दे को देखा जाए तो हिंदुत्व के विचारकों को एक मूल समस्या का सामना करना पड़ता है: जाति द्वारा विभाजित समाज को ‘एकजुट’ कैसे किया जाए इसका उत्तर जाति को एक विभाजनकारी संस्था के बजाय एक एकीकृत करने वाली संस्था के रूप में पेश करना है। यह विचारधारा संभवतः पिछड़ी जातियों को आकर्षित नहीं करेगी, इस कारण कोई इसे प्रत्यक्ष रूप से प्रकट नहीं करता, जैसा कि योगी आदित्यनाथ ने अपने इंटरव्यू में किया। हिंदुत्ववादी नेता जाति व्यवस्था के बारे में बात करने से परहेज करते हैं, लेकिन इस चुप्पी में ही एक मौन स्वीकृति है। उनमें से कुछ ने ही जातिवाद के ख़िलाफ़ बात की है।

कभी-कभी हिंदुत्ववादी नेता ऐसा प्रकट करते हैं जैसे वे जाति प्रथा के विरुद्ध हैं क्योंकि वे अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ हैं। सावरकर ख़ुद अस्पृश्यता के विरुद्ध थे, और डॉ. आंबेडकर के सिविल डिसओबेडिएंस मूवमेंट का उन्होंने समर्थन किया था। लेकिन यहाँ यह फर्क करना होगा कि अस्पृश्यता का विरोध करना जाति व्यवस्था का विरोध करने के समान नहीं है। ऊँची जातियों में एक लंबी परंपरा है, जो अस्पृश्यता का विरोध करने के साथ-साथ जाति व्यवस्था का बचाव करती है।

अनिश्चित शक्ति

हिंदुत्व परियोजना उच्च जातियों के लिए एक अच्छा सौदा है, क्योंकि यह पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को बहाल करता है जो उन्हें जाति के ढाँचे में शीर्ष स्थान देती है। यह अकारण नहीं है कि आरएसएस विशेष रूप से उच्च जातियों के बीच लोकप्रिय है। इसके संस्थापक, संयोगवश, सभी ब्राह्मण थे।  राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भइया  को छोड़कर सभी आरएसएस के सरसंघचालक भी ब्राह्मण थे, और हैं। हिंदुत्व आंदोलन के कई अन्य प्रमुख व्यक्ति - सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर, नाथूराम गोडसे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, मोहन भागवत, राम माधव भी ब्राह्मण हैं। समय के साथ, निश्चित रूप से, आरएसएस ने ऊँची जाति से परे अपने प्रभाव का विस्तार किया है, लेकिन ऊँची जाति वाले अब भी आरएसएस के सबसे वफ़ादार और विश्वसनीय सामाजिक आधार हैं।

वास्तव में, हिंदुत्व उच्च जातियों के लिए एक तरह का लाइफ़बोट बन गया है, क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के बाद उनका वर्चस्व ख़तरे में आ गया था। हालाँकि, बड़ी और उच्च जातियों ने स्वतंत्रता के बाद की अवधि में भी अपनी शक्ति और विशेषाधिकारों को बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है।

उदाहरण के तौर पर, 2015 में इलाहाबाद के ‘शक्ति और प्रभाव के पदों’ (विश्वविद्यालय के संकाय, बार एसोसिएशन, प्रेस क्लब, शीर्ष पुलिस पदों, ट्रेड-यूनियन नेताओं, एनजीओ प्रमुखों इत्यादि) पर किये गए एक सर्वेक्षण में, हमने पाया कि कुल पदों में से 75% (शक्ति और प्रभाव के पद) पर उच्च जातियों के सदस्यों का एकाधिकार था। ये जातियाँ उत्तर प्रदेश की आबादी में सिर्फ़ 16% हिस्सा है। अकेले ब्राह्मण और कायस्थ लगभग आधे शक्ति और प्रभाव के पद पर आसीन हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह असंतुलन, सरकारी क्षेत्र की तुलना में नागरिक संस्थाओं - जैसे एनजीओ और प्रेस क्लब में अधिक साफ़ दिखता है। इलाहाबाद, बेशक, एक शहर है, लेकिन कई अन्य अध्ययनों ने विभिन्न पेशों में उच्च-जाति के निरंतर प्रभुत्व के समान पैटर्न को रेखांकित किया है - जैसे कि मीडिया हाउस, कॉर्पोरेट बोर्ड, क्रिकेट टीम, वरिष्ठ प्रशासनिक पद इत्यादि।

फिर भी, उच्च जाति के जहाज़ ने कई ओर से रिसाव करना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, 20वीं सदी तक शिक्षा पर, उच्च जातियों का एक आभासी एकाधिकार हुआ करता था। साक्षरता ब्राह्मण पुरुषों के बीच सामान्य थी, लेकिन दलितों के बीच लगभग शून्य। असमानता और भेदभाव निश्चित रूप से आज भी शिक्षा प्रणाली में कायम हैं, लेकिन कम से कम सरकारी स्कूल दलित बच्चों को उच्च जाति के बच्चों के समान दर्जा देने का दावा कर सकते हैं। सरकारी स्कूल में सभी जातियों के बच्चे समान मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील भी साझा करते हैं - हालाँकि इसे पहले पहल कई उच्च जाति के माता-पिता को पसंद नहीं था।

कई राज्यों में मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील में अंडे की शुरुआत ने भी उच्च-जाति के शाकाहारियों के बीच बहुत बेचैनी पैदा कर दी। उनके प्रभाव से, बीजेपी सरकार वाले अधिकांश राज्य आज तक मध्याह्न भोजन में अंडे को शामिल करने का विरोध कर रहे हैं।

सवर्ण जातियों का प्रतिनिधित्व

सिर्फ़ स्कूली शिक्षा प्रणाली और चुनावी प्रणाली ही सार्वजनिक जीवन के ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ उच्च जातियों को अपना विशेषाधिकार बाँटना पड़ा है। हालाँकि ‘वयस्क मताधिकार और नियमित चुनाव, सत्ता और अधिकार के स्थानों तक पहुँचने वाले शासक वर्ग को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है’, जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने कहा था। सवर्ण जातियों का लोकसभा में कुछ हद तक अधिक प्रतिनिधित्व है, जबकि वो कुल आबादी का 29% है। स्थानीय स्तर पर भी, पंचायती-राज संस्थानों और महिलाओं, अनुसूचित जाति (एससी) एवं अनुसूचित जन जाति (एसटी) के लिए सीटों के आरक्षण के प्रभाव से राजनीतिक मामलों पर उच्च जातियों की पकड़ कमज़ोर हो गयी है।

इसी प्रकार, न्यायिक प्रणाली समय-समय पर उच्च जातियों की मनमानी शक्ति को नियंत्रित करती है (उदाहरण के लिए, भूमि हड़पने, बंधुआ मज़दूरी और अस्पृश्यता के मामलों में), हालाँकि क़ानून के समक्ष समानता का सिद्धांत अब भी अधूरा है।

कुछ आर्थिक परिवर्तनों ने भी कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च जातियों के प्रमुख स्थान को कम किया है। कई साल पहले, मुझे पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के गाँव पालनपुर में इस प्रक्रिया का एक उल्लेखनीय उदाहरण देखने का अवसर मिला। जब हमने पालनपुर के एक अपेक्षाकृत शिक्षित निवासी मान सिंह (बदला हुआ नाम) से गाँव में आये आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के बारे में लिखने को कहा तो उन्होंने लिखा (1983 के अंत में) :

  • ऊँची जातियों की तुलना में निचली जातियाँ बेहतर जीवन गुज़ार रही हैं। इसलिए उच्च जाति के लोगों के दिलों में निचली जातियों के लिए ईर्ष्या और द्वेष पैदा हो गया है।
  • निम्न जातियों में शिक्षा का अनुपात बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।
  • कुल मिलाकर, हम यह कह सकते हैं कि निम्न जातियाँ ऊपर जा रही हैं और ऊँची जातियाँ नीचे आ रही हैं; इसका कारण यह है कि आधुनिक समाज में उच्च जातियों के लोगों की तुलना में निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति बेहतर है।

इसका सन्दर्भ मुझे स्पष्ट तब हुआ जब मान सिंह ने बताया कि ‘निचली जातियों’ से उनका मतलब दलितों से नहीं, बल्कि उनकी अपनी मुराओ जाति से था (उत्तरप्रदेश के ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ में से एक)। इस जानकारी के बाद, उन्होंने जो लिखा वह अच्छी तरह समझ में आता है, और वास्तव में, यह हमारे अपने निष्कर्षों के अनुरूप था: मुराओ, एक कृषक जाति, जमींदारी उन्मूलन और हरित क्रांति की शुरुआत के बाद लगातार समृद्ध हुई थी – वो भी ऊपरी जाति के ठाकुरों से ज़्यादा। यहाँ तक कि जब ठाकुर निष्क्रिय जमींदारों की उपस्थिति को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे (परंपरागत रूप से, वे हल नहीं छूते थे), तब मुराओ कई फ़सलें उगा रहे थे, ट्यूबवेल स्थापित कर रहे थे, अधिक भूमि ख़रीद रहे थे और जैसा कि मान सिंह ने संकेत दिया, वे शिक्षा के मामलों में ठाकुरों के बराबर आ रहे थे। इस विषय पर ठाकुरों की नाराज़गी छिपी नहीं है।

पालनपुर सिर्फ़ एक गाँव है, लेकिन कई और गाँवों के अध्ययन में ये पैटर्न देखे गए हैं। यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि उच्च-जातियों की सापेक्ष आर्थिक गिरावट स्वतंत्रता के बाद के ग्रामीण भारत में एक सार्वभौमिक पैटर्न है, लेकिन यह कम से कम एक सामान्य पैटर्न ज़रूर लगता है।

संक्षेप में, भले ही सवर्ण जातियों का अभी भी आर्थिक और सामाजिक जीवन के कई पहलुओं पर क़ब्ज़ा है, परन्तु कुछ कई क्षेत्रों में उनकी स्थिति कमज़ोर पड़ती जा रही है। हालाँकि उनके विशेषाधिकार का नुक़सान अपेक्षाकृत कम होता है, तब भी इसे एक बड़ा नुक़सान माना जा सकता है।

सवर्णों का जवाब

उच्च-जाति के विशेषाधिकार को चुनौती देने वाले सारे तरीक़ों में से एक शायद शिक्षा और सरकारी रोज़गार में आरक्षण की व्यवस्था ने ऊँची जातियों को सब से ज़्यादा नाराज़ किया है। आरक्षण की नीतियों ने वास्तव में उच्च जातियों के लिए शिक्षा और रोज़गार के अवसरों को कितना प्रभावित किया है, यह स्पष्ट नहीं है - परन्तु आरक्षण मानदंड पूरी तरह से लागू होने से अभी दूर है, और वो मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्रों में लागू होता है। फिर भी इन नीतियों ने उच्च जातियों के बीच एक आम धारणा पैदा की है कि ‘उनके रोज़गार और डिग्री’ को एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) द्वारा छीना जा रहा है।

बीजेपी का पुनरुद्धार 1990 के आस-पास तब शरू हुआ जब वीपी सिंह सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण पर मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का वादा किया।

इससे न केवल हिंदू समाज के विभाजित होने का ख़तरा दिख रहा था (उच्च जातियाँ बेहद नाराज़ थीं), बल्कि ओबीसी - जो कि भारत की आबादी का लगभग 40 प्रतिशत है - को बीजेपी से दूर होने का भी डर था क्योंकि बीजेपी ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों का विरोध किया था। लालकृष्ण आडवाणी की अयोध्या रथयात्रा और उसके बाद हुई घटनाओं (6 दिसंबर 1992 को बाबरी मसजिद के विध्वंस सहित) ने बीजेपी के नेतृत्व में इस तरह के 'जातिवाद' से बचने और हिंदुओं को मुसलिम विरोधी मंच पर फिर से एकजुट होने में मदद की।

देखिए वीडियो, भागवत, लिंचिंग और हिंदू राष्ट्र...

मुसलिम विरोध 

यह हिंदुत्व का एक उल्लेखनीय उदाहरण है, जो सवर्णों को उनके विशेषाधिकारों के लिए ख़तरा पैदा करने और हिंदू समाज पर उनके नियंत्रण का पुन: दावा करने में सक्षम बनाता है। वास्तव में, मुसलिम विरोध हिंदुत्व आंदोलन के मुख्य कार्यों में से एक है। इस आंदोलन के संभावित विरोधी सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं हैं, बल्कि ईसाई, दलित, आदिवासी, कम्युनिस्ट, धर्म निरपेक्षतावादी, तर्कवादी, नारीवादी भी हैं जो ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की बहाली के रास्ते में अड़चन के तौर पर खड़े हैं। यद्यपि हिंदुत्व को अक्सर बहुसंख्यकों का आंदोलन कहा जाता है, इसे अल्पसंख्यक विरोधी आंदोलन के रूप में देखना शायद ज़्यादा बेहतर होगा।

हिंदुत्व आंदोलन (या हाल के दिनों में इसका तेज़ी से विकास) की इस व्याख्या पर एक संभावित आपत्ति यह है कि दलित बड़ी संख्या में इसका समर्थन कर रहे हैं। हालाँकि इस आपत्ति का जवाब भी है।

  • पहला, यह संदिग्ध है कि कई दलित वास्तव में आरएसएस या हिंदुत्व विचारधारा का समर्थन करते हैं। कई दलितों ने 2019 के चुनावों में बीजेपी को वोट दिया था, लेकिन इससे उनका हिंदुत्व समर्थन स्पष्ट नहीं होता – बीजेपी को मतदान देने के कई कारण हो सकते हैं।
  • दूसरा, हिंदुत्व आंदोलन के कुछ पहलू दलितों को अपील कर सकते हैं, भले ही वे पूरी तरह से हिंदुत्व की विचारधारा का समर्थन न करें। उदाहरण के लिए, आरएसएस अपने विद्यालयों के विशाल नेटवर्क, और अन्य प्रकार के सामाजिक कार्यों के लिए जाना जाता है, जो अक्सर दलित और अन्य वंचित समुदायों पर केंद्रित होते हैं।
  • तीसरा, आरएसएस न केवल सामाजिक कार्यों के माध्यम से, बल्कि डॉ. आंबेडकर के सह-विकल्प के साथ शुरू होने वाले प्रचार के माध्यम से, दलितों के बीच समर्थन जीतने की कोशिश करता है। जबकि हिंदुत्व और डॉ. आंबेडकर के विचार एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं, फिर भी आरएसएस बार-बार डॉ. अंबेडकर की विरासत पर अपना दावा करता है।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि भले ही हिंदुत्व जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए खड़ा न हो, लेकिन जाति पर हिंदुत्व का दृष्टिकोण- और व्यवहार मौजूदा जाति व्यवस्था की तुलना में कम दमनकारी है। कुछ दलितों को लग सकता है कि वृहत्तर समाज की तुलना में आरएसएस में उनके साथ बेहतर व्यवहार होता है। जैसा कि आरएसएस से सहानुभूति रखने वाले एक सज्जन कहते हैं: “हिंदुत्व और एक आम हिंदू पहचान के वादे ने दलित और ओबीसी जातियों की एक बड़ी आबादी को हमेशा से आकर्षित किया है क्योंकि यह उन्हें कमज़ोर जाति की संकीर्ण पहचान से मुक्त करने और उन्हें एक शक्तिशाली हिंदू समुदाय में शामिल करने का वादा करता है"। यह अलग बात है कि यह ‘वादा’ अक्सर भ्रामक साबित होता है: आरएसएस में दलित के रूप में भँवर मेघवंशी का अनुभव एक ज्ञानवर्धक उदाहरण है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, बीजेपी की चुनावी सफलता को ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ का उदय नहीं समझना चाहिए। फिर भी, 2019 के संसदीय चुनावों में बीजेपी की व्यापक जीत आरएसएस की भी बड़ी जीत है। सरकार के अधिकांश शीर्ष पद (प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रमुख मंत्रालय, कई राज्यपाल, आदि) वर्तमान या भूतपूर्व आरएसएस सदस्यों के क़ब्ज़े में हैं, जो हिंदुत्व विचारधारा के लिए दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं। लोकतंत्र के ख़िलाफ़ सवर्ण जातियों का शांत विद्रोह अब अभिव्यक्ति की आज़ादी से शुरू होकर सारे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर सीधा हमला करने का रूप ले रहा है। लोकतंत्र का विनाश और जाति व्यवस्था का उभार एक-दूसरे को मज़बूत करता है।