भागवत मुसलमानों से ज़्यादा स्वयंसेवकों को समझायें!

03:16 pm Sep 12, 2021 | विजय त्रिवेदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आजकल बड़ी चर्चा है कि क्या डॉ. मोहन भागवत को सबसे साहसिक सरसंघचालक माना जाना चाहिए? क्या भागवत संघ के चेहरे और चरित्र को पूरी तरह बदलने की कोशिश में हैं? क्या भागवत वाक़ई हिन्दू-मुसलिम एकता के इस हद तक समर्थक हैं कि वह इस मसले पर संघ के भीतर कुछ हिस्सों में उठती विरोध की आवाज़ों का सामना करने के लिए भी तैयार हैं? या फिर वह इस विषय को आज के हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी ज़रूरत समझते हैं।

भागवत सरसंघचालक बनने के बाद से लगातार इसकी पैरवी करते रहे हैं। तीन साल पहले सितम्बर 2018 में उन्होंने कहा था कि ‘बिना मुसलमानों के हिन्दुत्व अधूरा है‘। फिर कहा कि ‘हिन्दू और मुसलमानों का डीएनए एक ही है’ और अब उन्होंने मुम्बई में मुसलिम विद्वानों से मुलाक़ात की। तब कहा कि ‘मुसलमानों को भारत में डरने की ज़रूरत नहीं। हमें मुसलिम वर्चस्व की नहीं, बल्कि भारत के वर्चस्व की सोच रखनी होगी।’

भागवत हिन्दू राष्ट्र की कल्पना और सामाजिक समरसता पर ज़ोर देते हैं, साथ ही दूसरे पंथ के लोगों के साथ संपर्क को बढ़ावा देते हैं। यह सच है कि स्वयंसेवक स्तर तक या समाज के निचले स्तर तक पहुँचने में वक़्त लगता है लेकिन हिंदुत्व के मायने पंथीय स्तर पर अलग होना होता है, वैसे सब एक हैं, कोई भेद नहीं है। सामाजिक समरसता के लिए वह देवरस के रास्ते पर चल रहे हैं। 

हिन्दुत्व को लेकर भागवत कहते हैं कि हम एक ही हिंदुत्व को मानते हैं। “महात्मा गांधी कहते थे, सत्य का नाम हिंदुत्व है। वही जो हिंदुत्व के बारे में गाँधीजी ने कहा है, जो विवेकानंद जी ने कहा है, जो सुभाष बाबू ने कहा है, जो कविवर रविन्द्रनाथ ने कहा है, जो डॉ. आंबेडकर ने कहा है, हिन्दू समाज के बारे में नहीं, हिंदुत्व के बारे में। वही हिंदुत्व है। किसी के देखने के नज़रिए से हिंदुत्व का प्रकार अलग नहीं कर सकते। लेकिन ग़लत निर्णय करके कोई लड़े तो उसके लड़ने को हिंदुत्व नहीं कह सकते। ग़लत निर्णय करके वह चुप रहे तो उसके चुप रहने को आप हिंदुत्व नहीं कह सकते। हम हिन्दू के नाते किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते। किसी को पराया नहीं मानते। लड़ना पड़ेगा तो लड़ेंगे भी। हमारा लड़ना हिंदुत्व नहीं है। हमारा समझाना हिंदुत्व नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि हिन्दू अब कट्टर बनेगा। इसका मतलब है हिन्दू अधिक उदार बनेगा। हिन्दू कट्टर बनेगा का मतलब ऐसे है कि महात्मा गांधी कट्टर हिन्दू थे और उन्होंने ‘हरिजन’ में कहा भी है- मैं कट्टर सनातनी हिन्दू हूँ।”

तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस के बाद डॉ. भागवत सामाजिक समरसता पर ज़ोर देने वाले सरसंघचालक हैं। दिल्ली में व्याख्यानमाला में भागवत ने स्पष्ट तौर पर कहा कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व अधूरा है। इससे पहले भागवत ने मुबंई के पास पालघर में हुए विराट हिंदू सम्मेलन में कहा था कि ‘भारतीय मुसलमानों ने राम मंदिर को ध्वस्त कर मसजिद नहीं बनाई थी यह विदेशी मुसलिम आक्रांताओं का काम था।’ 

कहा जाता है कि संघ के बारे में जो दुष्प्रचार होता रहा, उसी का नतीजा रहा कि जब सरसंघचालक भागवत ने दिल्ली में इस पर बात की तो बाहर के लोगों को ऐसा लगना स्वाभाविक था कि संघ में अब खुलापन आ रहा है, नए विचारों का स्वागत हो रहा है इसलिए किसी ने इसे 'ग्लास्नोस्त' की उपमा भी दी।

विदेशी विचारों का या विरोधियों की शब्दावली का हमें ऐसा अभ्यास हो जाता है कि हम भी अनजाने उनका उपयोग करने लगते हैं।

सावरकर ने अपनी किताब हिन्दुत्व में कहा – “जब तक मुसलमान न केवल हमारे देश को बल्कि हमारी संस्कृति और इतिहास को अंगीकार करता और हमारे ख़ून को अपना मानता और साथ ही हमारे भू भाग को न केवल अपनी निष्ठा देता है बल्कि उसे पूज्य मानता है, तब तक वह हिन्दू के दायरे में नहीं आएगा।” ज़ाहिर है इस हिसाब से जब तक हिन्दू नहीं है, उसे हिन्दू राष्ट्र में रहने का कोई हक़ नहीं है, इस मान्यता को ताक़त मिलती है। 

साल 1993 में के एस सुदर्शन ने कहा था कि –“इसलाम पर अरबी संस्कृति की गहरी छाप है क्योंकि वह वहाँ जन्मा है। लेकिन यूरोपीय संस्कृति के प्रभाव में तुर्की में आने पर उसका रंग बदला। ईरान में ज़ोरास्त्रियन और इंडोनेशिया में हिन्दू संस्कृति का उस पर प्रभाव पड़ा। इसलाम ने इंडोनेशिया के मुसलमानों को महाभारत और रामायण को अपने सांस्कृतिक महाकाव्य और राम व कृष्ण को अपने पुरखे मानने से नहीं रोका। भारतीय मुसलमानों का क्या बिगड़ जाएगा, अगर राम और कृष्ण को वे अपने पुरखे मान लें और गज़नी, ग़ौरी और बाबर को विदेशी हमलावर।” 

इमरजेंसी के बाद 1977 में आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई थी। बालासाहब देवरस उस समय सरसंघचालक थे। देवरस ने प्रतिनिधि सभा में प्रस्ताव रखा कि संघ का दरवाज़ा मुसलिम समुदाय के लोगों के लिए भी खोला जाना चाहिए। तब यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे कई कद्दावर नेताओं ने इस बात का जमकर विरोध किया। फिर साल 1979 में संघ ने अपने दरवाज़े दूसरे धर्मों के साथ-साथ मुसलमानों के लिये भी खोलने का एलान किया था।

दरअसल, मुसलमानों के साथ रिश्तों में बेहतरी का काम इमरजेंसी के दौरान ही हुआ, जब आरएसएस और जमात-ए-इसलामी समेत कई संगठनों के मुसलिम नेता जेलों में एक साथ बंद थे।

इसमें कोई शक नहीं कि देवरस ने बहुत साहसी फ़ैसला लिया था और इस फ़ैसले के लिए आरएसएस के भीतर ही उनकी आलोचना हुई। इस दौर की चर्चा करते हुए अपनी किताब ‘लास्ट इयर्स ऑफ़ आरएसएस’ में संजीव केलकर ने देवरस की आलोचनाओं का हवाला देते हुए कहा है कि महाराष्ट्र के आरएसएस प्रमुख के बी लिमये ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा, ‘आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का वह आसन दिया गया, जिस पर कभी डॉ. हेडगेवार बैठे थे। कृपा करके उसी संघ को चलाएँ और उसको आगे बढ़ाने का रास्ता तैयार कीजिए। उसे बदलने की कोशिश मत कीजिए। आपको लगता है कि बदलाव ज़रूरी है तो फिर अपने लिए एक नया आरएसएस बना लीजिए। हिंदुओं को संगठित करने को प्रतिबद्ध डॉक्टर जी के आरएसएस को हमारे लिए छोड़ दीजिए। अगर आपने इस आरएसएस को बदला तो फिर ऐसे संघ से मैं कोई रिश्ता नहीं रख सकूँगा।”

लेकिन देवरस ने अपना रास्ता नहीं बदला और अपनी कोशिशें जारी रखीं।

दिलीप देवधर बताते हैं कि आरएसएस में इस नए प्रयोग के शुरू होने की अपनी कहानी है। इमरजेंसी के दौरान जब इंदिरा गांधी ने देवरस और आरएसएस के कई दूसरे नेताओं को जेल में बंद कर दिया था तो जेल में इन नेताओं की मुलाक़ात जमात-ए-इसलामी के नेताओं से हुई। दोनों ने इस मौक़े का इस्तेमाल एक-दूसरे को ज़्यादा बेहतर तरीक़े जानने-समझने में किया। इमरजेंसी में देवरस ने मुसलमानों को दावत दी कि वे संघ को क़रीब से समझने की कोशिश करें। इसके साथ ही उन्होंने जनसंघ को जनता पार्टी में विलय करने की इजाज़त भी दी। 

हिन्दू मुसलिम एकता के प्रबल समर्थक एक विद्वान ने कहा कि डॉ. भागवत अच्छा काम कर रहे हैं और संघ के नज़रिए से तो साहसिक काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें मुसलमानों से ज़्यादा संघ के पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों को समझाने की ज़रूरत है।

पहले स्तर पर प्रचारकों से इस पर बड़े पैमाने पर विचार विमर्श करना चाहिए, क्योंकि वो ही बात को स्वयंसेवकों तक ठीक तरीक़े से पहुँचा सकते हैं। साल 2018 से अब तीन साल हो गए हैं, यह समझना मुश्किल काम नहीं है कि क्यों सरसंघचालक की बात को संघ में नीचे के स्तर तक अभी तक अपनाया नहीं गया है। अगर इसे अमल में लाने की पुरज़ोर कोशिश नहीं की गई तो डॉ. भागवत की मेहनत ज़ाया हो जाएगी और इतना साहस दिखाने वाले लोग भी कम होते हैं और उन्हें मौक़ा भी कम मिलता है। अब स्वयंसेवकों की बारी है कि संघ के एकचालुकानुवर्ती के रास्ते पर चलते हुए सरसंघचालक के आदेश को मानें, बिना किसी ना-नुकुर के।