ईसा को भगवान मानने वाले स्वामी विवेकानंद का अपमान है ईसाइयों पर हमला!

03:03 pm Dec 26, 2022 | पंकज श्रीवास्तव

“ईसा मसीह भगवान थे। मनुष्य के शरीर में अवतरित साकार ईश्वर। ईश्वर कई बार कई रूपों में खुद को प्रकट करते हैं और तुम केवल उन रूपों की ही पूजा कर सकते हो। जो परमब्रह्म है, वह उपासना की वस्तु नहीं है। ईश्वर के निर्गुण भाव की पूजा करना बेमतलब है। मानव शरीर में अवतरित ईसा मसीह की हमें ईश्वर मानकर पूजा करनी होगी।”

यह 7 जनवरी 1900 को स्वामी विवेकानंद के लॉस एंजेल्स, कैलीफर्निया में दिये गये भाषण का अंश है जो बाद में ‘ईशदूत ईसा’ या ‘क्राइस्ट:द मैसेंजर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। यानी ईसाई चाहे ईसा मसीह को ‘ईश्वर का बेटा’ मानते हों, आधुनिक इतिहास में सनातन धर्म की आध्यात्मिक गहराई से दुनिया को परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद की नज़र में वे साक्षात ‘ईश्वर के अवतार’ थे। इससे पहले 1893 में अपनी पहली अमेरिकी यात्रा के दौरान शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में सबका दिल जीतने वाले अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म की विशेषता बताते हुए कहा था कि ‘हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।’ 

एक सदी बाद भी भगवा चोगा और साफ़ा पहने स्वामी विवेकानंद की तस्वीर हिंदू धर्म की सबसे बड़ी वैश्विक पहचान बनी हुई है। हिंदू धर्म के नाम पर बना ऐसा कोई संगठन नहीं जो अपने दफ्तर और पोस्टर-बैनर में स्वामी विवेकानंद की तस्वीर न लगाता हो, पर सवाल ये है कि क्या उनका विवेकानंद की शिक्षा और उपदेशों से भी कुछ लेना-देना है? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि हाल के वर्षों में क्रिसमस के आस पास ईसाइयों को निशाना बनाने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं।

इस साल विश्व हिंदू परिषद ने मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के सभी स्कूलों को चिट्ठी लिखकर चेताया कि उनके यहाँ पढ़ने वाले हिंदू बच्चों को सांता क्लॉज़ न बनाया जाये। चिट्ठी में इसे ईसाई धर्म की ओर बच्चों को प्रेरित करने का षडयंत्र बताते हुए क़ानूनी कार्रवाई की धमकी देते हुए कहा गया कि ‘यह देश संतों का है सांता का नहीं।’

इसी तरह उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के पुरोला गाँव में ईसाई समुदाय की एक प्रार्थनासभा पर 23 दिसंबर को ‘धर्मांतरण का प्रयास बताते हुए हिंसक हमला किया गया। वहीं 20 दिसंबर को गुजरात के वडोदरा की मकरपुरा कॉलोनी में सांता क्लॉज़ की ड्रेस पहन कर बच्चों के बीच चॉकलेट बाँट रहे एक शख्स की निर्मम पिटाई कर दी गयी। पिछले साल भी ऐसी कई घटनाएँ हुई थीं। 

आगरा में सांता क्लॉज़ का सेंट जॉन्स चौराहे पर पुतला फूँका गया था और वाराणसी में चर्च के सामने हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए चर्च जाने वालों से जबरन जय श्रीराम कहलाया गया था।

ईसाइयों पर हमले करने वाले ये संगठन अपना आदर्श विवेकानंद को बताते हैं। पर ज़रा स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन का रुख भी जान लीजिए। मिशन के बेलूर मठ में ही नहीं तमाम देशों में स्थापित उसके सैकड़ों आश्रमों में बीते सौ से भी अधिक सालों से क्रिसमस पर ईसा मसीह की पूजा करने की परंपरा है। कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने जब पहली बार मरियम की गोद में ईसा मसीह की तस्वीर देखी तो वे इतने डूब गये कि दक्षिणेश्वर काली मंदिर जाने के अपने नियम को तोड़कर तीन दिन तक बाइबिल पढ़ते रहे और ईसा मसीह को और जानने का प्रयास करते रहे। उनके शिष्य विवेकानंद भी उसी रास्ते पर आगे बढ़े क्योंकि उन्हें उस ऋगवैदिक ऋचा पर अटूट विश्वास था जिसमें कहा गया है कि “एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” यानी सत्य एक ही है जिसे विद्वान लोग अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। ईसा मसीह की छवि में ईश्वर का स्वरूप देखना विवेकानंद के इसी विश्वास का नतीजा था।

स्वयं महात्मा गांधी ने ईसा मसीह को ‘मानवता का महान शिक्षक माना है। फिर ऐसा क्यों है कि उन्हें राष्ट्रपिता कहने वाले देश में ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं। वैसे ये हमले स्वत:स्फ़ूर्त नहीं हैं। आरएसएस के दूसरे सरसंघ चालक एम.एस.गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में ईसाइयों को मुसलमानों और कम्युनिस्टों की तरह ही ‘दुश्मन’ क़रार दिया था और आरएसएस की प्रेरणा से बने सभी संगठन अपने दुश्मनों को सबक़ सिखाने में जुटे रहते हैं। जब उनके हाथ में सत्ता होती है तो ऐसी घटनाओं में तेज़ी आ जाती है। इन संगठनों की नज़र में ईसाइयों का हर कार्यक्रम ‘धर्मांतरण का षडयंत्र’ होता है। यह अलग बात है कि देश में क़रीब 200 साल तक अंग्रेज़ों के शासन के बावजूद 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक़ ईसाइयों की तादाद कुल जनसंख्या का महज़ 2.3 फ़ीसदी थी।

ईसाई त्योहारों और प्रतीकों को निशाना बनाने के सिलसिले में एक नई शुरुआत 2014 में 25 दिसंबर को ‘तुलसी पूजन दिवस’ मनाने के साथ हुई। बलात्कार करने के अपराध में जेल काट रहे संत (?) आशाराम बापू ने क्रिसमस से लेकर 1 जनवरी के बीच तुलसी पूजन, जप माला पूजन, गौ पूजन, हवन, गौ-गंगा-गीत जागृति यात्रा, सत्संग आदि कार्यक्रम आयोजित करने का आह्वान किया था। ‘ईसाई त्योहारों’ की चमक-दमक से ‘हिंदुओं को बचाने’ के इस संगठित अभियान का ही असर है कि अब सारे अख़बार और टीवी चैनल 25 दिसंबर को ज़ोर-शोर से तुलसी पूजन दिवस घोषित करते हैं। कोई ये नहीं पूछता कि हिंदुओं का कोई त्योहार सूर्य आधारित ग्रेगोरियन कैलेंडर से नहीं मनाया जाता तो फिर तुलसी पूजन दिवस हर साल 25 दिसंबर को ही क्यों पड़ता है? होली-दीवाली या अन्य सभी त्योहार चंद्रमास के आधार पर तय होते हैं जिसकी वजह से वे हर वर्ष अलग-अलग तारीखों पर मनाये जाते हैं।

आजकल प्रधानमंत्री मोदी जी-20 की अध्यक्षता मिलने को भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा से जोड़कर प्रचारित कर रहे हैं पर ईसाइयों पर हमले की घटनाएँ जब दुनिया भर के अख़बारों और वेबसाइटों में सुर्खियाँ बनती हैं तो ऐसे सारे प्रयास निष्फल हो जाते हैं। दुनिया पूछती है कि जिस देश में धर्म प्रचार की आज़ादी है वहाँ अल्पसंख्यक समुदाय सार्वजनिक रूप से अपने आयोजन करने पर निशाना क्यों बन रहे हैं। 

धर्मांतरण ही नहीं ‘जबरन’ कोई भी काम कराना ग़ैरक़ानूनी है। इसका कोई समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन धार्मिक आयोजनों पर बिना किसी तथ्य के धर्मांतरण का आरोप लगाकर हमला बोल देना किसी भी सभ्य समाज में संभव नहीं है। यह ‘असभ्यता’ दुनिया भर में भारत ही नहीं, हिंदू धर्म को भी कलंकित करती है जिसे कभी स्वामी विवेकानंद ने सहिष्णुता का पर्याय बताकर दुनिया का दिल जीता था।