नेहरू: जब समाज सोचता नहीं तो वो गूँगे को चुनता है या फिर डिक्टेटर को

08:08 am May 28, 2021 | संध्या वत्स - सत्य हिन्दी

(नेहरू का लेख ‘इस मशाल को कौन थामेगा’ के कुछ अंश जो उनके मरणोपरांत 31 मई 1964 को हिंदुस्तान अख़बार में प्रकाशित हुआ था।)

इस लेख में, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा कलमबद्ध की गई बातों को केवल एक प्रधानमंत्री द्वारा कही गई बात के तौर पर ही अगर हम देखते हैं तो यह हमारी कमजोरी या एक सीमित मानसिकता का ही प्रमाण होगा। उनके इस लेख को पढ़ते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वो इतिहास बोध से लबरेज एक महान अध्येता, गहरी समझ रखने वाले एक स्वप्नदृष्टा, एक लेखक, कुछ मात्रा में पत्रकार, एक विचारक और भारत को बेपनाह मोहब्बत करने वाले व्यक्ति थे।

जनतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेते हुए एक नेता कैसे जनता का शिक्षण, प्रशिक्षण करता है और उन्हें जागरूक बनाता है वो यहाँ मुझे दिखाई देते हैं। यह अलग बात है कि आज का दौर इसमें कितना सक्षम है।

मैंने नेहरू के इस लेख का नाम ही ‘नेहरू की मशाल का जनतांत्रिक पुंज’ लिखा है जो मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस लेख में वो कह रहे हैं कि जनतंत्र उन सारे तरीकों में सर्वाधिक बेहतर है जिनमें इंसान ने अपना शासन खुद करने के तरीक़े निकाले हैं। लेकिन यह बेहतर तभी ही हो सकता है जब हमारे अंदर सोचने-समझने की शक्ति हो। यही इंसानी सोच और समझने की ताक़त नेहरू के मशाल का जनतांत्रिक पुंज है जिससे लोकतंत्र मज़बूत होता है। इसके उलट जब इंसान अपनी सोच समझ को त्याग देता है तो इसका प्रत्यक्ष असर सही प्रतिनिधि चुनने की क्षमता पर होता है। अपने इस लेख में वो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि- 

“एक जनतांत्रिक समाज के लिए यह बड़ी ख़तरनाक स्थिति है क्योंकि जब आदमी कुछ सोचता विचारता नहीं, तो वह या तो गूंगे राजनीतिज्ञ को चुनता है या फिर किसी डिक्टेटर को। यही वजह है कि बड़ी-बड़ी तरक्कियों की शानदार उपलब्धियों के बावजूद आज दुनिया एक बहुत बड़ी दुर्घटना के किनारे खड़ी है...।

मुझे तो इसमें जरा भी शक-सुबहा नहीं कि इंसान ने अपना शासन खुद करने के तरीक़े निकाले हैं उनमें जनतंत्र का तरीका सबसे बेहतर है लेकिन पिछली दो शताब्दियों में हमने इसका अनियंत्रित रूप ही देखा है।”

नेहरू भारत की जनता का राजनीतिक शिक्षण करते हुए सोचने समझने की क्षीण होती अवस्था को देख अत्यंत गंभीर चिंता की मुद्रा में लिखते हैं कि-

“अभी हाल ही में मैंने हिंदुस्तान के मुख्तलिफ हिस्सों का दौरा किया। उस क्रम में मुझे बेशुमार लोगों से मिलने का मौक़ा मिला। मुझे इस बात का गिला नहीं कि वे क्या सोचते हैं पर रोना तो इस बात का है कि वह कुछ सोचते भी हैं?” 

उन्होंने इस बे-दिमागी और बे-दिली वाली स्थिति के लिए औद्योगिक क्रांति को बहुत हद तक ज़िम्मेदार माना और कहा कि-

यह देख कर मुझे हैरत होती है कि हिंदुस्तान ही नहीं तकरीबन सारी दुनिया की दिमागी ज़िंदगी में एक क़िस्म की गिरावट सी आ रही है। धीरे-धीरे लोग जैसे बिना कुछ सोचने समझने वाले ज़िंदा पुतले से बनते जा रहे हैं।


जवाहरलाल नेहरू

अद्भुत बात आपको इस लेख में एक और मिलेगी कि नेहरू जनतंत्र को शासन करने का बेहतर तरीक़ा मानते हुए कहते हैं कि जनतंत्र का विस्तार वयस्क मताधिकार द्वारा पूरी दुनिया में तेज़ी से हुआ है लेकिन इस फैलाव के मध्य अज्ञानता, नासमझी या दिमागी रुग्णता के विषाणु भी फैले हैं। इस स्थिति के लिए नेहरू औद्योगिक क्रांति को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप भौतिक सुख-सुविधाओं में हुई बढ़ोतरी ने इंसान की समझने और सोचने की ताक़त पर विज्ञापन, शोर और प्रोपेगैण्डा का असर भी वो देख रहे हैं और इस संदर्भ में अपनी बात को कुछ यूँ रखते हैं- 

“ऐसा लगता है कि आज की मशीनों का शोर, प्रोपेगेंडा के नए तरीक़े और विज्ञापन आदमी को सोचने ही नहीं देते। इस सारे शोरगुल की प्रतिक्रिया यही होती है कि वह (मतदाता) या तो किसी डिक्टेटर को लाता है या फिर गूंगे राजनीतिज्ञ को चुनता है जो एकदम संगदिल होते हैं। जो राजनीतिज्ञ शोरगुल सह लेते हैं वे चुने जाते हैं और जो नहीं सह सकते गिर जाते हैं।” 

अपने लेख के आखिर में नेहरू भारत के जागृत युवाओं की लोकतान्त्रिक समझ में दृढ़ विश्वास व्यक्त करते हैं और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में मतदाता और उसके मताधिकार प्रयोग के दरमियान सतहीपन के रवैये से हो रहे, और भविष्य में होने वाले नुक़सान की अंधेरगर्दी से निकलने के लिए देश के जागृत युवाओं से उस मशाल को थामने के लिए कहते हैं- 

“मैं यह महसूस करता हूँ कि बहुत कुछ करने की अपनी प्रबल इच्छा के बावजूद मैं अपनी कमजोरियों के कारण शायद बहुत कम ही कर सकूँ पर मैं और देश के सब जागृत युवक मिलकर शायद बहुत कुछ कर सकें...। 

अब तक हम लोगों ने मिलकर एक नया सवेरा देखने के लिए काम किया था पर बदकिस्मती से अभी तक अंधेरी रात जारी है और पता नहीं वह कब तक जारी रहेगी। राष्ट्रीय संघर्ष की अगली पंक्ति के हममें से बहुत से व्यक्ति शायद उस सवेरे को देखने के लिए ना बचें पर वह सवेरा एक दिन ज़रूर आएगा। तब तक उसका रास्ता रोशन बनाए रखने के लिए हमें अपनी मशाल जलाए रखना है और मैं जानना चाहता हूँ कि कितने ऐसे बाजू मेरे थकते हुए हाथों से उस मशाल को ले लेने के लिए तैयार हैं...।

मुझे उम्मीद है वह अपने आप को इस विरासत के लायक बनायेंगे।”