‘आपने नरक नहीं देखा, तो वहाँ देख सकते थे। कोई सफ़ाई नहीं थी, टायलेट्स ओवरफ्लो कर रहे थे। चेहरे मौत से ज़्यादा डरावने, जहाज में बैठी डरी हुई लेकिन ग़ुस्से में बैठी महिला ने पूछा, इतने देर से क्यों आए…’ एक साँस में जसवंत सिंह मुझे देखे बिना बोल रहे थे, शायद बिना रुके भी। जसवंत सिंह की आँखों में वो तक़लीफ़ अब भी देखी जा सकती थी।
‘कांधार में अपहरण किया हुआ इंडियन एयरलाइंस का जहाज आईसी 814 खड़ा हुआ था। दहशत पसरी थी, मौत की दहशत, हर पल मरते हुए जीने की दहशत…’
विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने 160 से ज़्यादा लोगों की ज़िंदगी बचा दी लेकिन फिर भी उन्हें विलेन की तरह देखा जाता है। विमान अपहरण के वक़्त जब सैकड़ों लोग प्रधानमंत्री निवास के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे तब जसवंत सिंह के लिए बंधकों की रिहाई ही सबसे बड़ा मुद्दा था। सिंह 160 से ज़्यादा जानों के लिए किसी तरह का ख़तरा लेने को तैयार नहीं थे, और इसके लिए जब जसवंत सिंह ने तीन खूंखार आतंकवादियों की न केवल रिहाई का फ़ैसला किया बल्कि वह ख़ुद छोड़ने कांधार तक गए तो अचानक इस मुल्क ने उन्हें विलेन बना दिया जबकि आतंकवादियों को छोड़ने का फ़ैसला वाजपेयी सरकार का था, अकेले जसवंत सिंह का नहीं।
आमतौर पर ऐसे इंटरव्यू कम याद हैं मुझे। मैं कांधार विमान अपहरण को लेकर जसवंत सिंह से बात कर रहा था, लेकिन जसवंत सिंह शायद जवाब में ही मुझसे सवाल पूछ रहे थे।
मैंने सिर्फ़ इतना पूछा था कि क्या एक फौजी ने दहशतगर्दी के सामने सरेंडर किया मेरा मक़सद जसवंत सिंह से कांधार की हक़ीक़त को समझने भर का था, लेकिन बात उनके दिल में गहरी चुभ गई थी।
‘बंधकों को छुड़ाने के लिए क्या आतंकवादियों को छोड़ना चाहिए’ ख़ुद जसवंत सिंह की आँखें ऊपर कहीं याद करते हुए कुछ तलाश रही थीं, गहरी साँस लेते हुए बोले, ‘यह फ़ैसला ख़राब और कम ख़राब के बीच करना था।’
दिल्ली में 28 दिसम्बर को शास्त्री भवन में पत्र सूचना कार्यालय में जसवंत सिंह प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे थे तो वहाँ बहुत से रिश्तेदार अचानक घुस आए। लोग चिल्ला रहे थे। वे सभी पैंतीस आतंकवादियों के नाम जानना चाह रहे थे। कोई चीखा कि जब मुफ्ती मोहम्मद की बेटी रुबैया के लिए आतंकवादियों को छोड़ा गया तो हमारे रिश्तेदारों के लिए क्यों नहीं। जो देना है दे दो, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
31 दिसम्बर, 1999। कांधार का सुनसान सा पड़ा हवाई अड्डा और उस पर खड़ा अपहरण किया गया जहाज। जब जसवंत सिंह उतरे तो वहाँ उन्हें लेने के लिए वकील अहमद मतवकिल और तालिबान सरकार के कथित सिविल एविएशन मंत्री और एक और शख्श था। नयी टोयेटा में गाड़ी रवाना हुई तो धूल का गुबार सा उड़ा। किनारे पर बनी एक गंदी सी बिल्डिंग में बातचीत की औपचारिकताएँ पूरी हुईं। जसवंत सिंह तुरंत जहाज तक पहुँचना चाहते थे, बंधक यात्रियों से मिलना चाहते थे।
जसवंत सिंह कहते हैं,
‘ये मेरे अकेले का फ़ैसला नहीं था, पूरी कैबिनेट ने इस पर फ़ैसला किया था। अरुण शौरी और आडवाणी जी ने शुरू में विरोध किया था। मैं भी बहुत समझा नहीं पा रहा था ख़ुद को, मन में एक दुविधा सी थी, लेकिन तब अटल जी का सोचना था कि यात्रियों की ज़िंदगी बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की जानी चाहिए, तब सबने इसे मान लिया। कैबिनेट का फ़ैसला था। क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप में आडवाणी भी थे। याद कीजिए कि जहाज को अमृतसर से कैसे उड़ने दिया गया, उस वक़्त गृह मंत्री कौन था…’
31 दिसम्बर की रात साढ़े नौ बजे पालम हवाई अड्डे पर जहाज बंधक यात्रियों को लेकर उतरा। एयरपोर्ट पर उनके स्वागत के लिए भारी भीड़ जमा थी। न केवल रिश्तेदारों की, बल्कि तमाशबीनों की भी जो हर तमाशे का हिस्सा बन कर अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा समझते हैं।
जसवंत सिंह की डायरी के मुताबिक़ यात्रियों की विदाई के बाद वह रात साढ़े दस बजे अपने घर पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने विदेश मंत्रालय के अफ़सरों को शैम्पेन पार्टी के लिए बुलाया। पार्टी ख़त्म होने के बाद खाने की टेबल पर पहुँचे तभी फ़ोन की घंटी बजी।
फ़ोन स्ट्रॉब टालबोट का था। टालबोट ने कहा, ‘मैं बताना चाहता हूँ कि ब्रूक और मैं कितने ख़ुश हैं। आपने बिलकुल सही किया। नया साल मुबारक।’
आधी रात बीत चुकी थी। इक्कीसवीं सदी के आगाज़ के साथ। साल 2000 आ चुका था।
नए साल की सुबह का सूरज यूँ तो एक तसल्ली और शांति लेकर आया था कि बंधकों के घर में उनके अपने लौट आए थे, लेकिन राजनीति में तूफ़ान चल रहा था, अंदर भी और बाहर भी। सरकार पर हमले हो रहे थे। आतंकवादियों के सामने सरेंडर करने के लिए और विदेश मंत्री जसवंत सिंह बन गए थे विलेन और प्रधानमंत्री वाजपेयी हीरो।
करगिल
गाँव के असली दूध से बनी छाछ वाक़ई बहुत स्वादिष्ट थी। मैं दोनों चीज़ों का स्वाद ले रहा था, गाढ़ी और मसालेदार छाछ का भी और वाजपेयी सरकार में एक बड़े और ताक़तवर मंत्री रहे जसवंत सिंह के साथ इतिहास के कुछ अहम पन्नों को उनकी आँखों से पलटने का भी ...उनकी आवाज़ की थरथराहट नसों में बहते ख़ून को भी गर्मी देती है। साल 2014 के अहम चुनावों के दौरान राजस्थान के सीमावर्ती ज़िले बाड़मेर में उनके गाँव जसोल के पुश्तैनी घर में ...जसवंत सिंह अपने ख्यालों में डूबते उतराते बोल रहे हैं- ‘जैसलमेर के गाँव पर से उड़ते वायुसेना के जहाज़ों की गूंजती सीमापार करती आवाज़ के साथ बॉर्डर पर युद्ध के मैदान को साकार होते देर नहीं लगती। फिर जब वायुसेना के इस्तेमाल का फ़ैसला हुआ तब मैं पेरिस में था। रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने फ़ोन पर बताया कि फ़ैसला कर लिया गया है’। जहाजों को आँखों की गहराई में दूर तक ले जाते हुए जसवंत सिंह ने कहा कि अटल जी ने अमेरिका में क्लिंटन से मिलने जाने से मना किया जबकि नवाज़ शरीफ गए। हैनरी किसिंगर ने मुझसे पूछा कि क्या ये पीक्स यानी कारगिल की चोटियाँ फिर से मिल जाएँगी, मैंने कहा–हाँ और आप भी देखेंगे।
एक फौजी से कारगिल पर बात नहीं हो, यह हो ही नहीं सकता। मैंने छोटा सा सवाल किया – करगिल…। जसवंत सिंह बोले ये इंटेलिजेंस फैल्योर था। सेना प्रमुख जनरल वी के मलिक उस वक़्त पौंलेंड में थे। अटल जी ने पहले लड़ाई को करगिल क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ाने का फ़ैसला किया था। इस मुद्दे पर कई बार बात हुई।
ऑपरेशन पराक्रम
विदेश मंत्री जसवंत सिंह तब दिल्ली में नहीं थे। कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी ने फ़ैसला किया। जसवंत सिंह जब लौट कर आए तो उन्होंने सवाल पूछा कि ये क्या किया, जवाब मिला– इससे फ़ायदा होगा। सेना की तैनाती हो गई थी। जसवंत सिंह ने मुझे कहा– मैं लड़ाई के पक्ष में नहीं था, जवान कभी लड़ाई नहीं चाहता, वो समझता है। मैं अटल जी से भी सहमत नहीं था, जब उन्होंने कहा कि आर-पार की लड़ाई हो जाए। मैंने पूछा कि आप क्या कह रहे हैं तो अटल जी ने कहा कि– उस वक़्त कह दिया। मैंने कहा कि आप पसंद नहीं करेंगे जो मैं कह रहा हूँ तो अटल जी तुरंत बोले – तो क्यों कह रहे हो। अटल अटलजी भावनाओं में बहने वाले व्यक्ति थे लेकिन ख़ुद की आलोचना से नाराज़ नहीं होते थे, मगर बोलते-बोलते जसवंत भी भावुक होने लगे, आवाज़ थोड़ी डबडबा सी रही थी। आवाज़ को थोड़ा संयत किया फिर बोले – अटल जी के तरीक़े में एक तहज़ीब, एक सलीका था। जसवंत सिंह ने समझाने की कोशिश की कि न्यूक्लियर ताक़त बनने के बाद युद्ध किसी के लिए ठीक नहीं होगा।
एडमिरल सुशील कुमार ने अपनी किताब में 9/11 का ज़िक्र किया है कि इस हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ जंग का एलान कर दिया था। अमेरिका चाहता था कि भारत उसका साथ दे। इसके लिए एक अमेरिकी फौजी टीम सरकार से मिलने दिल्ली आई। टीम के लीडर यूएस पैसिफिक कमान के कमांडर इन चीफ़ एडमिरल डेनिस ब्लेयर ने कहा कि हमें राष्ट्रपति ने भेजा है। हमें आपका सहयोग चाहिए। उन्होंने बताया कि अमेरिकी विदेश उप मंत्री स्ट्रॉब टालबोट विदेश मंत्री जसवंत सिंह और एनएसए ब्रजेश मिश्र से बात कर रहे हैं।
अमेरिका चाहता था कि ‘ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम’ के दौरान नौ सेना अमेरिकी जहाजों और लड़ाकू विमानों को समुद्र में तेल और दूसरी सुविधाएँ मुहैया कराएँ। एयर फ़ोर्स उनके जहाजों को उड़ने के लिए फॉरवर्ड बेस दे और थल सेना अफ़ग़ानिस्तान में तैनाती के लिए अपने फौजी भेजे। तीनों सेनाओं के मुखियाओं ने तय किया कि वे सरकार को इस सुझाव के ख़िलाफ़ होने की बात कहेंगे। इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में जब कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की बैठक हुई तो उसमें जसवंत सिंह ने तर्क दिए कि क्यों भारत को अमेरिका का साथ देना चाहिए, क्योंकि यह जंग सिर्फ़ अमेरिका की नहीं आतंकवाद के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया की जंग है।
जिन्ना विवाद
जसवंत सिंह ने किताब लिखी थी जिन्ना पर – ‘जिन्ना: इंडिया पार्टिशन इंडिपेंडेंस’। उस पर काफ़ी विवाद हुआ। बीजेपी की हिमाचल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस पर ख़ासा बवाल हुआ और जसवंत सिंह को पार्टी से निकाले जाने का फ़ैसला किया गया। पार्टी से निकाले जाने के बाद जसवंत सिंह वाजपेयी के पास गए तो उन्होंने पूछा क्या हुआ, क्या हुआ गणेश चतुर्थी का दिन था – जसवंत सिंह ने कहा कि आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। बँटवारे पर लिखी किताब में जिन्ना की तारीफ़ की गई थी। बँटवारे के लिए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ सरदार पटेल का भी नाम लिया था। जिन्ना को हीरो बनाना पार्टी को बर्दाश्त नहीं हुआ। इस मसले पर 2005 में आडवाणी के साथ विवाद हुआ ही था।
जसवंत सिंह के मन में खटास साफ़ दिखने लगी थी। बोले – आडवाणी की सभी किताबों का लॉंच पार्टी करती थी, सभी भाषाओं में अनुवाद और फिर अलग-अलग जगहों पर उसे जारी करने का ज़िम्मेदारी भी पार्टी पर थी और उनके पसंदीदा लोग इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। जसवंत सिंह की आवाज़ में तेज़ी नहीं थी लेकिन ग़ुस्से की धमक महसूस हो रही थी – आडवाणी ने भयमुक्त भारत का नारा तो दिया लेकिन पार्टी उनके भय से मुक्त नहीं हो पाई, हर कोई डरा रहता था। पार्टी विद डिफ़रेंस नहीं बचा था अब।
आडवाणी पर जसवंत सिंह
आडवाणी ने कभी नेतृत्व नहीं दिखाया। जसवंत सिंह बोले – यदि आप अपने साथियों के लिए खड़े नहीं होते तो फिर आप लीडर नहीं हैं और आडवाणी जी अक्सर ऐसे मौक़ों पर या तो चुप रहे या उसकी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल दी। 1998 की बात की तो आपको भी जानकारी होगी। अटल जी की सरकार में मुझे मंत्री बनाया जाना था। अगले दिन सवेरे मैंने आडवाणी जी से पूछा क्या मैं अपने परिवार को बता दूँ, उन्होंने कहा – हाँ, हाँ, बता दीजिए। लेकिन अगले दिन सवेरे उनका ही फ़ोन आया और मुझे मना कर दिया। आडवाणी तब मेरे साथ खड़े हो सकते थे लेकिन उन्होंने कहा कि आरएसएस के बड़े नेता मेरे शपथ लेने यानी मंत्री बनने के ख़िलाफ़ हैं, वह चुप रहे और ज़िम्मेदारी संघ पर डाल दी, जबकि अटल जी इस पर लड़ना चाहते थे, अपसेट भी हो गए, लेकिन आडवाणी जी ने सिर्फ़ इतना कहा कि आप शपथ नहीं लेंगे। जसवंत सिंह के मुताबिक़ आडवाणी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पाले रहे और उसकी वज़ह से उन्होंने कई गलतियाँ भी कीं।
संसद में वोट के लिए पैसे का मामला ही लीजिए। जसवंत सिंह बोले – आडवाणी इस ड्रामा के केन्द्र थे। सुधीन्द्र कुलकर्णी एक अजनबी से चेहरे को मेरे घर लाए, मुझसे सलाह नहीं ली गई, लेकिन कहा गया कि आडवाणी जी ने सांसदों को पैसा संसद में दिखाने की इजाज़त दे दी है। आडवाणी ने कहा कि उनके पास दो रास्ते थे एक पैसा ले जाकर लोकसभा स्पीकर को दे दें या फिर सदन में ले जाएँ लेकिन आडवाणी ने संसद में ले जाने को कहा।
साल 2014 में बीजेपी ने अपने सबसे पुराने फौजी, पुराने क्या संस्थापक सदस्य रहे जसवंत सिंह को टिकट नहीं दिया था। उन्होंने नाराज़ होकर निर्दलीय चुनाव लड़ा, मगर हार गए। जसवंत सिंह ने पहले सेना में रह कर देश की सेवा की और बाद में राजनीति का दामन थाम लिया, खासतौर से अटल बिहारी वाजपेयी की वजह से। वाजपेयी के सबसे क़रीबी दोस्तों में से एक, बहुत सी शाम दोनों ने एक साथ गुज़ारी मिल- बैठकर। संसद के दोनों सदनों का प्रतिनिधित्व किया। पाँच बार राज्यसभा सांसद रहे- 1980, 86, 98, 99, और 2004। चार बार लोकसभा में नुमाइंदगी की -1990, 1991, 96 और 2009।
तीन जनवरी 1938 को बाड़मेर के जसोल गाँव में जन्मे जसवंत सिंह 1960 में सेना में मेजर पद से इस्तीफ़ा देकर राजनीति में उतरे, लेकिन व्यवहार में वो हमेशा फौजी ही रहे। 1998 से 2004 तक जसवंत सिंह ने वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालय की ज़िम्मेदारी संभाली।
आगरा शिखर वार्ता
आगरा में विदेश मंत्री जसवंत सिंह और पाकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार बार-बार संयुक्त घोषणापत्र के मसौदे पर चर्चा कर रहे थे। उसे बार-बार बदला जा रहा था। एक ऐसा मसौदा बनाने की कोशिश थी, जिस पर दोनों मुल्क सहमत हो सकें। मुशर्रफ किसी समझौते पर पहुँचना चाहते थे ताकि वे विजेता की तरह पाकिस्तान लौटें।
अब्दुल सत्तार ने एक कागज़ पर लिख कर कुछ सुझाव दिए तो उनमें जसवंत सिंह ने बदलाव किया, फिर जसवंत सिंह ने एक कागज़ पर पेंसिल से लिखा तो उसमें सत्तार ने सुधार किया। काफ़ी देर तक ऐसा ही चलता रहा। सत्तार ने कहा कि मैं इस पर राष्ट्रपति की सहमति ले लेता हूँ। मुशर्रफ तब तक अपने होटल अमरविलास चले गए थे और वाजपेयी अपने कमरे में। सत्तार मुशर्रफ को मसौदा दिखाने के बाद कुछ बदलावों के साथ लौटे।
जसवंत सिंह ने पूछा कि क्या अब हम इस मसौदे पर सहमत हैं इन मसौदों और बदलावों को लेकर भी उस वक़्त जसवंत सिंह की आलोचना हुई कि वह पाकिस्तान के प्रति नरम रवैया अपना रहे थे।
जसवंत सिंह उस मसौदे को लेकर प्रधानमंत्री के पास गए। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अपने सहयोगी मंत्रियों को अपने सुइट में बुलाकर दिखाया, उसमें सीमापार आतंकवाद का ज़िक्र नहीं था तो आडवाणी ने कहा कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सबकी राय थी कि इसमें आतंकवाद को रोकने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाना चाहिए, उसके बिना बात आगे बढ़ना मुमकिन नहीं है। इसके साथ ही शिमला समझौते और लाहौर समझौते को कैसे भुलाया जा सकता है करगिल की हक़ीक़त को झुठलाया जा सकता है क्या
जसवंत सिंह पाक विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार के पास लौटे और बताया कि कैसे वह खारिज हो गया है। सत्तार ने कहा,
‘मैं समझ सकता हूँ कि भारत-पाकिस्तान के बीच समझौते को लेकर आगे बढ़ना आसान काम नहीं है।’ सिंह लौट आए। कुछ देर बाद पाकिस्तान के भारत में उच्चायुक्त अशरफ जहाँगीर काजी, सिंह के पास आए और पूछा कि क्या आपको अब भी कोई रास्ता निकलने की उम्मीद दिखाई देती है सिंह ने जवाब दिया, ‘मुझे नहीं लगता कि इस पर आगे बढ़ा जा सकता है।’
काजी ने पूछा, ‘क्यों नहीं हो सकता मिस्टर सिंह’ सिंह ने जवाब दिया कि कैबिनेट में मेरे सहयोगी इस पर आगे बढ़ने के लिए राज़ी नहीं हैं। काजी को बात समझ आ गई। काजी ही वह शख्स थे जिन्होंने आडवाणी के साथ मिलकर आगरा समिट के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था। फिर भी कुछ और कोशिशें की गईं।
जनरल मुशर्रफ़ ने एक बार फिर वाजपेयी से मिलने का प्रस्ताव रखा। वाजपेयी के कमरे में दोनों की लंबी मुलाक़ात हुई। मुशर्रफ़ बोलते रहे और वाजपेयी सुनते रहे। यह वाजपेयी की आदतों में शुमार है कि वे हमेशा दूसरे की बात सुनते रहते हैं और ज़रूरत होने पर ही बोलते हैं, लेकिन शायद मुशर्रफ़ ने इसे ग़लत समझा।
वाजपेयी मुशर्रफ़ को चुपचाप सुनते रहे। मुशर्रफ़ ने वाजपेयी से कहा कि हम दोनों के ऊपर कोई इस बातचीत को लेकर दबाव बना रहा है और उसकी वजह से ही समझौता नहीं हो पाया।
अगले दिन सवेरे विदेश मंत्री जसवंत सिंह मीडिया के सवालों का जवाब दे रहे थे।
सवाल: क्या आपने जनरल मुशर्रफ को अजमेर दरगाह जाने से रोक दिया था
सिंह: आप जानते हैं कि ख्वाजा जिन्हें बुलाते हैं वे ही दरगाह तक जाते हैं।
सवाल: क्या अब भी पाकिस्तान के साथ शांति को लेकर बातचीत होती रहेगी
सिंह: बेशक… ये कोशिश चलती रहेगी।