संघ के मंदिर आंदोलन की वापसी; 90 के दशक सा माहौल की कोशिश

07:06 am Jan 07, 2021 | अनिल जैन - सत्य हिन्दी

कोई सवा साल पहले जब दशकों पुराने अयोध्या विवाद का जैसे-तैसे अदालती निबटारा हुआ था यानी नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया था तो यह माना गया था कि अब इसको लेकर देश में किसी तरह का दंगा-फसाद नहीं होगा। देश के मुसलमानों ने भी देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश का एहतराम किया था। इसलिए माना गया कि अयोध्या की विवादित ज़मीन पर राम मंदिर का निर्माण करने में अब किसी तरह की बाधा नहीं है।

सचमुच, मंदिर निर्माण में अब कोई बाधा नहीं है, लेकिन लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद अभी भी इस मसले पर पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मक़सद मंदिर बनाने से ज़्यादा इस मसले पर अपनी विभाजनकारी राजनीति करना है। वे अभी भी इस मामले को अपने राजनीतिक एजेंडा के तौर पर इस्तेमाल करने यानी सांप्रदायिक नफरत और तनाव फैलाने का इरादा रखते हैं। कम से कम राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए देश में चंदा उगाही के कार्यक्रम के दौरान जिस तरह की घटनायें हुईं, उससे चिंता की लकीरें खिंचना लाज़िमी है।

ऐसा लगता है कि चंदा उगाही और जन जागरण की आड़ में सदियों से करोड़ों लोगों के लिए श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक रहे मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर एक बार फिर देश को सांप्रदायिक तौर पर गरमाने और नफ़रत फैलाने का अभियान शुरू हो गया है। विश्व हिन्दू परिषद ने पूरे देश में 1990 के दशक जैसा माहौल बनाने की योजना बनाई है। इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में हो चुकी है, जहाँ कुछ कस्बों में सांप्रदायिक झड़पें हुई हैं।

विहिप का यह अभियान 15 जनवरी से शुरू होकर 27 फ़रवरी तक चलेगा। इस काम में बीजेपी के सांसद, विधायक, पार्षद, पार्टी पदाधिकारी और नेता आदि भी मदद करेंगे। इसे 'मंदिर आंदोलन पार्ट टू’ भी कह सकते हैं। इस बार विश्व हिन्दू परिषद ने तय किया है कि वह छह लाख गाँवों में 14 करोड़ हिन्दू परिवारों तक जाएगी और मंदिर निर्माण के लिए चंदा मांगेगी। विहिप की ओर से कहा गया है कि जो मुसलमान भगवान राम को 'इमाम-ए-हिन्द’ मानते हैं, वे भी मंदिर निर्माण के लिए चंदा दे सकते हैं।

विहिप ने 'राम शिलापूजन’ के नाम से ऐसा ही अभियान इससे पहले 1989 में चलाया था। पूरे देश में यह अभियान तीन साल चलता रहा था।

उसी दौर में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रामरथ यात्रा निकाली थी, जिसने देश के कई इलाक़ों को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंकने का काम किया था। उस समय भी उत्तर भारत के शहरों, गाँवों और कस्बों में विहिप, बजरंग दल और बीजेपी के कार्यकर्ताओं का हुजूम राम के नाम पर भड़काऊ नारे लगाते हुए निकलता था। विहिप और बीजेपी के इन अभियानों की अंतिम परिणति अयोध्या में बाबरी मसजिद के विध्वंस के रूप में हुई थी।

संविधान और सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखा कर बाबरी मसजिद ढहाए जाने के उस संगीन आपराधिक कृत्य के बाद मामला अदालत में चलता रहा। दूसरी ओर विहिप की ओर से मंदिर निर्माण की तैयारियाँ भी जारी रहीं। उस समय भी पूरे देश से चंदा वसूला गया था और करोड़ों रुपए मंदिर निर्माण के लिए जुटाए गए थे, जिसका कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा आज तक देश के सामने पेश नहीं किया गया है। उस पैसे का क्या हुआ, आज तक किसी को नहीं मालूम। सवाल है कि क्या वह पैसा मंदिर निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं है और इसलिए चंदा इकट्ठा करने का अभियान चलाना पड़ रहा है या कोई और मक़सद है? ग़ौरतलब है कि मंदिर आंदोलन से जुड़े कई संतों और उस दौर में विहिप के महत्वपूर्ण नेता रहे प्रवीण तोगड़िया तो उस चंदे में घपले के आरोप भी लगा चुके हैं।

वैसे भी मंदिर निर्माण के लिए चंदा वसूलने की क्या ज़रूरत है? जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद मंदिर का शिलान्यास किया है तो इसे सरकारी ख़र्च से क्यों नहीं बनाया जा रहा है?

जैसे प्रधानमंत्री ने दिल्ली में नए संसद भवन की नींव रखी या 31 दिसंबर को गुजरात के राजकोट में एम्स की नींव रखी है तो इनका निर्माण सरकार करा रही है।

यह बहुत हैरान करने वाली बात है कि भूमिपूजन और शिलान्यास प्रधानमंत्री करे और निर्माण जनता के चंदे से हो! वैसे, उत्तर प्रदेश में तो राज्य सरकार करोड़ों रुपए ख़र्च कर सरयू के किनारे भगवान राम की मूर्ति बनवा रही है। करोड़ों रुपए की लागत से कहीं हनुमान जी की मूर्ति बननी है तो कहीं लक्ष्मण और सीता की मूर्ति बनाने की बात हो रही है। जब भगवानों की मूर्तियाँ सरकारी ख़र्च से बन सकती हैं, अयोध्या में दीपोत्सव और बनारस में गंगा आरती का ख़र्च सरकारी खजाने से दिया जा सकता है, तो मंदिर भी सरकारी ख़र्च से क्यों नहीं बना लिया जाता? हालाँकि संवैधानिक तौर पर ऐसा नहीं किया जा सकता, लेकिन जब सरकार सारे काम संविधान को नज़रअंदाज़ करते हुए कर रही है तो इस काम से भी उसे कौन रोक सकता है?

दरअसल, राम मंदिर के नाम पर एक बार फिर देश में नब्बे के दशक जैसा माहौल बनाने की कोशिश हो रही है। इसका मक़सद केंद्र सरकार की तमाम नाकामियों के चलते लोगों में पनप रहे असंतोष और प्रतिरोध की आवाज़ों की ओर से ध्यान हटाना है। मध्य प्रदेश में इसकी शुरुआत हो गई है। राज्य के मालवा इलाक़े के कई कस्बों और गाँवों में पिछले एक सप्ताह के दौरान मुसलिम बहुल इलाक़ों में विहिप, बजरंग दल आदि संगठनों ने भड़काऊ नारों के साथ जुलूस निकाले हैं, मसजिदों के बाहर हनुमान चालीसा के पाठ के आयोजन किए हैं।

सबसे आपत्तिजनक और हैरानी की बात यह है कि सांप्रदायिक तनाव पैदा करने वाले इन आयोजनों को स्थानीय पुलिस-प्रशासन का भी संरक्षण मिला हुआ है।

राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण अदालत के फ़ैसले से हो रहा है और प्रधानमंत्री ने इसका शिलान्यास किया है। इसलिए यह दोनों की ज़िम्मेदारी है कि वे चंदा उगाही के नाम पर इस तरह की हरकतों को रोकें। कल्पना कीजिए कि मंदिर की ज़मीन के बदले में मसजिद बनाने के लिए जो ज़मीन दी गई है, वहाँ मसजिद निर्माण के लिए अगर इसी तरह मुसलिम समुदाय के लोग भी 'जन जागरण अभियान’ शुरू कर दे और चंदा उगाही के लिए देश के चार-पाँच करोड़ मुसलिम परिवारों तक पहुँचने का अभियान चलाएँ तो क्या तसवीर बनेगी?