राम माधव को पद से हटने के बाद हिटलर और स्टालिन की याद क्यों आयी?

02:09 pm Oct 02, 2020 | आशुतोष - सत्य हिन्दी

राम माधव हाल तक बीजेपी के ताकतवर महासचिव माने जाते थे। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बीजेपी की कमान सँभालते थे। जेपी नड्डा की नई टीम में उन्हें जगह नहीं मिली है। बीजेपी में आने से पहले माधव लंबे समय तक आरएसएस का चेहरा थे। संगठन के प्रवक्ता का पद उन्हें हासिल था। बाद में उन्हें बीजेपी में भेज दिया गया। 

राम माधव सरकार में तो नहीं थे लेकिन किसी भी मंत्री से ज़्यादा ताकतवर थे। इन दिनों संगठन के कार्यों से मुक्त होने के बाद ख़ाली हैं तो उन्होंने एक लेख लिखा है। ये लेख महात्मा गांधी की 151वीं जयंती के मौक़े पर लिखा गया है और इसमें गांधी की तारीफ में पुल बांधे गये हैं। 

संघ पर गांधी की हत्या का आरोप

आरएसएस का गांधी से एक अजीब सा रिश्ता है। गांधी की हत्या के आरोप में आरएसएस पर बैन लगा था और संगठन के प्रमुख रहे एमएस गोलवलकर को गिरफ़्तार भी किया गया था। बैन हटने के बाद भी लंबे समय तक आरएसएस को सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था। बाद में संघ ने गांधी को अपनी सुबह की प्रार्थना में शामिल किया और गांधी की हत्या से लगे कलंक से उबरने की कोशिश की। लेकिन आरएसएस कुछ भी कहे गांधी की विचारधारा से उसका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। 

संघ गांधी की अहिंसा को भारत और हिंदुओं की बड़ी कमज़ोरी के तौर पर देखता है और उसे भारत की ग़ुलामी के लिये काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार मानता है।

गांधी की तारीफ 

ऐसे में राम माधव जब इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में गांधी और गांधीवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं तो हैरानी होती है। वो कहते हैं कि गांधी का मूल मंत्र “स्वतंत्रता” में है और फिर वो रविंद्र नाथ टैगोर को उद्धृत करते हैं। टैगोर ने लिखा था - “जहां मन भययुक्त है” (Where mind is without fear). 

राम माधव लिखते हैं, “गांधीवाद स्वतंत्रता और आत्मशुद्धि में निहित है। तानाशाह राजसत्ता की पाश्विक शक्ति, निर्वीर्य मीडिया और अबाध प्रचार पर फलते-फूलते हैं।” सवाल ये उठता है कि राम माधव गांधी पर लिखते-लिखते अचानक तानाशाहों को क्यों याद करने लगते हैं और फिर वे समझाते हैं कि तानाशाह कैसे राजसत्ता, मीडिया और प्रचार के बल पर शासन करते हैं। 

सत्ता के सामने नतमस्तक मीडिया

आज के भारत में ये बात कही जाती है कि राजसत्ता पूरी तरह से निरंकुश हो गयी है। वो मनमानी करती है। उस पर न तो विपक्ष का कोई अंकुश है और न ही किसी और तरह के किसी संस्थान का। मीडिया पूरी तरह से राजसत्ता के सामने नतमस्तक है। ख़ासतौर पर टीवी मीडिया तो सुबह से शाम तक सत्ता के गुणगान में मग्न है। वो अपनी भूमिका भूल बैठा है। उसकी दिलचस्पी बस विपक्ष को कोसने में रहती है। तो क्या राम माधव भारतीय मीडिया की ओर इशारा कर रहे हैं  

हर सत्ता अपने को बनाये रखने के लिये प्रचार या कुप्रचार या प्रोपेगेंडा का जायज और नाजायज इस्तेमाल करती है। लेकिन पहली बार ये महसूस किया जा रहा है कि प्रोपेगेंडा इतना ज़्यादा हो गया है कि सच क्या है और झूठ क्या है, ये फ़र्क़ मिट गया है।

किस ओर है इशारा 

बड़े-बड़े राष्ट्रीय मुद्दों को न केवल छिपाने की कोशिश की जाती है बल्कि सत्ता के शीर्ष से झूठ बोला जाता है और फिर प्रोपेगेंडा के अगाध प्रवाह के ज़रिये इस झूठ को सच साबित करने की योजनाबद्ध कोशिश की जाती है। राम माधव जब इस अगाध प्रोपेगेंडा को तानाशाही से जोड़ते हैं तो कई सवाल खड़े होते हैं कि आख़िर वो कहना क्या चाहते हैं, उनका इशारा किस ओर है 

राम माधव यहीं पर नहीं रुकते वो आगे बढ़ते हैं। वो लिखते हैं, “गांधी अपने आलोचकों का सम्मान करते थे जबकि तानाशाह विरोध को बर्दाश्त नहीं करते। वो अपने ‘ककून’ में रहते हैं, जी हुज़ूरों और ‘हेंचमैन्स’ से घिरे रहते हैं। हिटलर से लेकर स्टालिन तक यही कहानी दोहराई गयी।” उनके शब्दों को ध्यान से पढ़िये। “आलोचक बर्दाश्त नहीं”, “जी हुज़ूरों और हेंचमैन्स से घिरे”। 

सत्ता को विरोध बर्दाश्त नहीं 

अब इस बात को आज के संदर्भ में देखें। आज ये बात एक-एक बच्चे को पता है कि विरोध करने वाले लोग सत्ता को बिल्कुल पसंद नहीं हैं। देर-सबेर ऐसे लोगों को इसकी सजा मिल जाती है। ऐसे लोग कभी जेल की सलाख़ों के पीछे दिखते हैं तो कभी अदालतों के चक्कर लगाते पाये जाते हैं। सत्ता की मुख़ालफ़त करने का अर्थ बड़ी मुसीबत से दो-चार होना। अपने को संकट में डालना। विरोधी सत्ता में हो या फिर संगठन में सबको एहसास करा दिया गया है कि आप सत्ता से अलग विरोधी सुर अलाप कर ‘सरवाइव’ नहीं कर सकते। 

सत्ता के इर्द-गिर्द वही लोग बचे हैं जो ‘यस मैन’ हैं या फिर बॉस के इशारों पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। शीर्ष सत्ता का केंद्र एक घोंघे में तब्दील हो गया है।

हिटलर, स्टालिन का जिक्र

लेकिन सबसे ज़ोरदार बात राम माधव ने हिटलर के हवाले से लिखी है। वो लिखते हैं, “1933 में तीसरी संसद बनी तो हिटलर ने एलान कर दिया कि पार्टी की सरकार में कोई भूमिका नहीं होगी। उसने अपने आपको विशेषज्ञों से घेर लिया और वो लोग जो उससे पहले पार्टी में आये थे उन्हें इतिहास की स्मृति से ग़ायब कर दिया गया।” 

राम माधव यहीं पर नहीं रुकते। वो सोवियत रूस के तानाशाह स्टालिन का ज़िक्र करते हैं। “स्टालिन ने ‘ग्रेट पर्ज’ का सहारा लिया और पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों और विरोधियों दोनों को ख़त्म कर दिया, इसकी शुरुआत 1934 में सर्गेई कीरोव की हत्या से होती है और अंत 1940 में लियोन ट्राटस्की के क़त्ल से। और इस अभियान में हिटलर और स्टालिन राजसत्ता और नतमस्तक मीडिया की मदद से कामयाब होते हैं।” 

बिना नाम लिए साधा निशाना

राम माधव किसी दल, सरकार और नेता का ज़िक्र नहीं करते। लेकिन आसानी से समझा जा सकता है कि वो कहाँ पर निशाना लगा रहे हैं। कौन सी पार्टी सरकार के सामने पूरी तरह से बिछ गयी है। और वो कौन सा नेता है जिसके सत्ता में आगमन के बाद और पहले भी प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगा दिया गया, हाशिये पर फेंक दिया गया या फिर उनकी ज़रूरत पूरी तरह से ख़त्म कर दी गयी, उन्हें शक्तिहीन कर दिया गया। 

ये सब लिखने के बाद राम माधव गांधी की तारीफ करते हैं। लिखते हैं कि गांधी जी कितने खुले दिमाग़ के थे। “गांधी से प्रेरणा पाये लोगों ने निरंकुश सत्ताओं को उखाड़ फेंका। सोवियत रूस इसका उदाहरण है।...अविभाज्यता का मिथ तभी तक था जब तक ग्लासनास्त के रूप में खुलापन नहीं आया था और ऐसा होते ही सोवियत रूस भरभरा कर गिर पड़ा।” राम माधव का ये कथन बहुत महत्वपूर्ण है। वो किस ख़तरे की ओर संकेत कर रहे हैं या फिर किसे चेतावनी दे रहे हैं। 

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आज़ादी की पैरोकारी

राम माधव अंत में लिखते हैं, “दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी हो रही है। जन स्वतंत्रता ख़तरे में है। गांधी जी हमेशा ज़्यादा से ज़्यादा खुलापन, स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जीवन की वकालत करते थे। जनता की स्वतंत्रता के लिये दयालु सरकार और आज़ाद मीडिया बहुत ज़रूरी है।”  

लेख पर प्रतिक्रिया होगी 

राम माधव की ज़िंदगी संघ परिवार में बीती है। ज़ाहिर है उनके अपने कुछ विशेष अनुभव होंगे जिसके हवाले से उन्होंने ये बातें लिखी हैं। वैसे भी आज के समय में जब ये कहा जा रहा हो कि देश में अघोषित आपातकाल है तब हिटलर और स्टालिन की बात करना, नतमस्तक मीडिया की बात करना, प्रतिद्वंद्वियों की बात करना एक इशारा है। समझदार सब समझ रहे हैं। अब देखना ये है कि प्रतिक्रिया कैसी और किस रूप में होती है।