जातीय जनगणना समर्थकों को गाली देना है मनुवाद
राहुल गांधी ने बजट के दौरान हलवा बनाने वाले अफसरों में जातिगत हिस्सेदारी पूछकर बड़ी बहस छेड़ दी। आलोचकों ने इसे जाति पूछना बताया तो समर्थकों ने बजट निर्माण से वंचित तबक़े के दूर रहने को लेकर चिंता बताई। अगले ही दिन अनुराग ठाकुर ने यह कहकर कि ‘जिसकी जाति का पता नहीं वो गणना की बात कर रहे हैं’- नया बवाल खड़ा कर दिया। अखिलेश यादव ने इसे जाति पूछना बताया तो राहुल गांधी ने इसे अपने लिए गाली।
राहुल गांधी के जातीय जनगणना को बहुतेरे लोग जातिवाद फैलाना और समाज को तोड़ना बता रहे हैं। यह बहुत आसान है कि जातीय जनगणना के जरिए समाज का एक्स-रे सामने लाने वाले को देश और समाज का दुश्मन बता दिया जाए। क्यों? क्योंकि इस जनगणना से शासन से लेकर दौलत तक में हिस्सेदारी का पता चलेगा। निश्चित रूप से जातिगत आधार पर यह जानकारी नुमाया होगी। सवाल है कि इस जानकारी को छिपाने से जातिवाद मजबूत हो रहा है, सामाजिक वैमनस्यता बढ़ रही है, अफवाहों को मजबूत होने का अवसर मिल रहा है या फिर जानकारी सामने आने से ये चीजें बढ़ेंगी?
प्राथमिकताएं बदलीं
कांग्रेस का मुंह चुप करने के लिए आज 1951 में जनगणना का उदाहरण दिया जाता है जब सरदार पटेल ने जातीय जनगणना को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है। तब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ. भीम राव अंबेडकर और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी इसका समर्थन किया था। मगर, यह न भूलिए कि तब आरक्षण की व्यवस्था पर देश की मंजूरी ज़रूरी थी। तत्कालीन नेतृत्व ने हर दस साल के लिए आरक्षण की समीक्षा का प्रावधान करते हुए यह मंजूरी हासिल की थी। मगर, पिछड़े-अति पिछड़े, वंचित तबक़े को आरक्षण का सवाल अधूरा रह गया था। इंदिरा गांधी ने मंडल कमीशन बनाया जिसकी रिपोर्ट लागू करने में वही हिचक दिखी जो 1951 में तत्कालीन नेतृत्व को जातीय जनगणना कराने के नाम पर दिखी थी। ज़रूरत की अनदेखी लगातार हुई जिसे प्राथमिकताओं के आईने में सही या गलत ठहराया जा सकता है।
अब सवाल आरक्षण भर का नहीं है। आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था के लागू रहते हुए भी क्यों शासन में हर वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो पा रही है? जातीय जनगणना की मांग में राजनीतिक लाभ के मंसूबे छिपे हो सकते हैं, हैं भी। मगर, जातीय जनगणना समाज और देश का एक्स-रे होगी- इससे इनकार नहीं किया जा सकता। एक्स-रे का अर्थ यह भी है कि आर्थिक आधार पर समाज कहां खड़ा है वह सामने आ जाएगा। अब तक की ये मान्यता रही है कि सामाजिक भेदभाव की शिकार जातियां आर्थिक आधार पर भी पिछड़ेपन की शिकार हैं। मगर, बिहार में हुए जातीय सर्वेक्षण ने इस सोच पर पुनर्सोच की आवश्यकता पैदा कर दी है। सवर्णों की स्थिति लगातार आर्थिक स्तर पर बदतर हुई है। पिछड़ों में चंद जातियों को ही आरक्षण का सर्वाधिक फायदा मिला है और उनकी आर्थिक सेहत में सुधार हुआ है। क्या राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे आँकड़ों से बनती तस्वीर देखने की आवश्यकता नहीं है?
समाज और देश के एक्स-रे की ज़रूरत
राहुल गांधी ने एक्स-रे की जरूरत को समझा है और वह लगातार समझाने का प्रयास कर रहे हैं। इस कोशिश में उन्हें गाली भी सुननी पड़ रही है। अनुराग ठाकर ने ‘जिसकी कोई जाति नहीं वो गणना की बात कह रहे हैं’ कहकर वास्तव में एक साथ कई लोगों को गाली दी है। हमारे समाज में वर्ण संकर गाली होती है। दो वर्ण से पैदा हुई संतान को वर्ण संकर कहते हैं। मगर, इसी गाली को जातिगत भेदभाव का इलाज भी माना जाता रहा है। विजातीय विवाह को प्रोत्साहन इसलिए जातीय व्यवस्था खत्म करने की राह में एक कदम के तौर पर देखा जाता रहा है।
जातीय अभिमान के साथ जीने वाले लोग, मनुवादी व्यवस्था को बनाए रखने वाले लोग ‘जिसकी जाति का ठिकाना नहीं’, ‘जिसकी जाति नहीं’ जैसी बातें कहकर सुधारवादियों को वर्णसंकर साबित करने की कोशिश करते हैं और उनपर इसे गाली के तौर पर चस्पां करते हैं।
आरक्षण की व्यवस्था भारतीय समाज के जीन में है। मनुवाद ने आरक्षण की व्यवस्था की नींव भी रखी और इसे मज़बूत किया। वर्ण व्यवस्था ने कर्म के आधार पर वर्ण बनाए- शारीरिक श्रम करने वाले, कारोबार करने वाले, रक्षा करने वाले और ज्ञान बांटने वाले। व्यवहार में ज्ञान बांटने वाले शारीरिक श्रम से दूर हुए और शारीरिक श्रम करने वाले ज्ञान से। बीच के दोनों वर्ण श्रम और ज्ञान को अपनी जिम्मेदारी से आवश्यकतानुसार जोड़ते रहे। भेदभाव और छुआछूत को जन्म देकर यह व्यवस्था स्वयं कलुषित रूप में स्थापित हुई।
मनुवादी व्यवस्था का यथार्थ रहा है आरक्षण
मनुवादी व्यवस्था में आरक्षण और लोकतांत्रिक व्यवस्था में आरक्षण का फर्क यही है कि एक छुआछूत को जन्म देता है और दूसरा इसे खत्म करने का स्वभाव पैदा करता है। आरक्षण समर्थक खुद को मनुवाद का विरोधी साबित करते हैं। मगर, वास्तव में वे मनुवाद के घोर समर्थक हैं जो कर्म के नाम पर आरक्षण को सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था रही है। साफ-सफाई, मेहनत-मजूरी करने वाला यह वर्ग हमेशा शिक्षा पाने की हसरत से दूर रहा।
आज जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबके लिए समान अवसर की बात कही गयी है तो समाज का यह वंचित वर्ग शिक्षा से जुड़ने के लिए बेताब है। मगर, अब भी वंचित तबक़ा शिक्षा से जुड़ नहीं पा रहा है। राहुल गांधी वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे में मनुवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष को आगे बढ़ाने की वकालत करते दिखते हैं जब वे जातीय जनगणना और एक्स-रे की बात कहते हैं। ऐसा करके ही हम नंगी आंखों से देख सकेंगे कि आरक्षण व्यवस्था का वास्तव में लाभ मिला वंचित तबके को या फिर नई समस्याएं पैदा हो गईं। यह भी पता चलेगा कि सवर्ण जो स्वयं आर्थिक रूप से पिछड़ते चले गये हैं क्या वे भी ज्ञान से दूर हुए हैं और यही उनके पिछड़ेपन का कारण बन रहा है?
जातीय जनगणना के पैरोकार को गाली?
अनुराग ठाकुर की सोच मनुवादी व्यवस्था के अनुरूप है जो जातीय जनगणना की मांग करने वालों को वर्णसंकर बताते हुए हेय दृष्टि दिखा रहे हैं। अनुराग जता रहे हैं मानो वे लोग तुच्छ हैं जिनकी जाति का पता नहीं। राजनीतिक रूप से अनुराग ठाकुर और उनकी पार्टी बीजेपी को इस रवैया का नुकसान उठाना पड़ेगा। बहुसंख्यक वंचित तबका इसे अपने लिए गाली समझ सकता है जो जातीय जनगणना का समर्थक है।
संघर्ष सिर्फ राजनीतिक नहीं है। संघर्ष जमीनी है। मनुवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में वंचित तबके की बौद्धिक क्षेत्र में भागीदार का भी यह संघर्ष है। जातीय जनगणना से जातिवाद मजबूत नहीं होता बल्कि जातीय जनगणना नहीं होने देने के लिए गाली-गलौच की भाषा जातिवाद को मजबूत कर रही है। ऐसे लोग मनुवाद को मजबूत कर रहे हैं। जातीय जनगणना मनुवाद और मनुवादी आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त कदम साबित हो सकता है जब हम उसके नतीजों से देश और समाज का एक्स-रे देखने का नजरिया हासिल कर लेंगे।