लिंचिंग के ख़िलाफ़ क़ानून की क्या ज़रूरत है?

09:55 am Dec 23, 2021 | विजय त्रिवेदी

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल में एक ट्वीट किया- “साल 2014 से पहले ‘लिंचिंग’ शब्द सुनने में नहीं आता था। इसके लिए आपको धन्यवाद, पीएम मोदी”। इसके बाद बीजेपी और कांग्रेस के बीच लिंचिंग को लेकर महायुद्ध शुरू हो गया। बीजेपी के अमित मालवीय ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के संदर्भ में पलटवार करते हुए कहा, “राजीव गांधी तो मॉब लिंचिंग के जनक थे, जिन्होंने सिखों के ख़ून से लथपथ जनसंहार को सही ठहराया था। कांग्रेस के कई नेता सड़कों पर उतरे और ‘खून का बदला खून से लेंगे’, जैसे नारे लगाए।”

हाल ही में पंजाब में हुई मॉब लिंचिंग की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद से बीजेपी और कांग्रेस एक दूसरे के सामने खड़े हैं। पंजाब में कांग्रेस की सरकार है। इस बीच झारखंड विधानसभा ने मॉब लिंचिंग पर बिल पास कर दिया। इस तरह झारखंड मणिपुर, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के बाद देश का चौथा राज्य बन गया जहां इस तरह का क़ानून बना है।

‘लिंचिंग’ शब्द यूं तो वर्जीनिया के चार्ल्स लिंच के नाम से लिया गया है। वो अमेरिकी क्रांति के वक़्त एक अस्थायी कोर्ट के जज थे। यह अदालत ‘लायलिस्ट’ को सज़ा देने के लिए बनाई गई थी। लेकिन लिंचिंग को  परिभाषित करते हुए The Jharkhand Prevention of Mob Violence and Mob Lynching Bill 2021 के क़ानून में कहा गया है कि यदि कोई भीड़ धार्मिक, रंगभेद, जाति, लिंग, भाषा और जन्मस्थान सहित कई ऐसे आधार पर हिंसा या हिंसक घटनाओं को अंजाम देती है या इससे किसी की हत्या होती है तो इसे ‘मॉब लिंचिंग’ माना जाएगा। इसमें दो या दो से ज़्यादा लोगों को भीड़ माना गया है।

इस क़ानून का मक़सद मौटे तौर पर भीड़ की हिंसा को रोकना और प्रभावी सुरक्षा देना है। लिंचिंग रोकने के लिए राज्य में एक आई जी स्तर के पुलिस अधिकारी को नोडल अफसर बनाया जाएगा। मॉब लिंचिंग से पीड़ित व्यक्ति की मौत होने पर दोषी को आजीवन कारावास की सज़ा दी जा सकती है।

पश्चिम बंगाल विधानसभा ने जो बिल पास किया है, उसमें इस स्थिति में दोषी को मौत की सज़ा या कड़े कारावास की सजा का प्रावधान रखा गया है। झारखंड में किसी के दोषी पाए जाने पर जुर्माने और संपत्ति की कुर्की के अलावा कम से कम तीन साल से लेकर आजीवन कारावास का प्रावधान रखा गया है। इसमें कम से कम पच्चीस लाख रुपए का जुर्माना रखा गया है। हिंसा भड़काने वाले और गैर ज़िम्मेदार सामग्री के प्रसार पर एफ़आईआर की जाएगी।

झारखंड में लिंचिंग की साज़िश करने या उकसाने वाले पर भी यही सज़ा लागू होगी। पीड़ितों को इलाज मुफ्त किया जाएगा।

झारखंड के संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने जब यह बिल विधानसभा में पेश किया तो उसमें कहा गया था – “झारखंड राज्य के ‘दुर्बल’ व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करने और भीड़ द्वारा हिंसा और लिंचिंग को रोकने के लिए...,” लेकिन बिल  पर चर्चा के दौरान बीजेपी के विधायक अमित कुमार मंडल ने कहा कि मैं ‘दुर्बल’ की परिभाषा जानना चाहता हूं। उन्होंने कहा कि दिल्ली में सीएए क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों के दौरान कांस्टेबल रतन लाल की मौत हो गई थी तो क्या वह मौत लिंचिंग नहीं मानी जाएगी।

उन्होंने दुर्बल के बजाय ‘आम आदमी’ शब्द रखे जाने की मांग की। जिसे सरकार ने मान कर बिल में संशोधन कर दिया। एक बीजेपी विधायक ने तुष्टिकरण की राजनीति बताते हुए इसे आदिवासी विरोधी बिल बताया। उनका कहना था कि आदिवासियों में मसले अपने ही गुट में सुलझाने की परपंरा है लेकिन इस क़ानून के बाद उन्हें सज़ा मिल सकती है। यह बिल झारखंड विरोधी है।

साल 2019 के विधानसभा चुनावों के वक़्त मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मॉब लिंचिंग की घटनाओं की निंदा की थी। इस साल हाईकोर्ट ने सरकार को ऐसे मामलों में नाराज़गी ज़ाहिर की थी। इसके बाद राज्य सरकार ने मॉब लिंचिंग की घटनाओं की रोकथाम के लिए ज़िला स्तरीय समितियाँ बनाने का फ़ैसला किया।

दरअसल, यह मामला झारखंड में साल 2019 में तब चर्चा में आया जब 24 साल के तबरेज अंसारी को चोरी के शक में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था। एक वीडियो में अंसारी को कथित तौर पर कुछ धार्मिक नारे लगाने के लिए मजबूर किया जा रहा था।

यूं तो क़ानून व्यवस्था को राज्य का मसला माना जाता है लेकिन संसद में भी इस पर बिल लाने की कोशिश की गई। कांग्रेस के शशि थरूर ने लोकसभा में और के टी एस तुलसी ने राज्यसभा में लिंचिंग पर क़ानून बनाने के लिए प्राइवेट मेम्बर बिल रखने की कोशिश की। लोकसभा में तब की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने यह बिल इस आधार पर रखने की इजाज़त नहीं दी कि क़ानून व्यवस्था राज्य का मसला है। राज्यसभा में तुलसी ने बिल रखते हुए लिंचिंग की तुलना आंतकवाद से की और इसलिए इसके लिए अलग से क़ानून बनाने की मांग की।

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सामाजिक कार्यकर्ता तहसीन पूनावाला की इसी मसले पर रिट याचिका पर सुनवाई की। सर्वोच्च अदालत ने राज्यों से सुरक्षा बंदोबस्त करने और ऐहतियाती क़दम उठाने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने लिंचिंग रोकने के लिए एक गाइडलाइन भी बनाई थी लेकिन तीन साल बाद भी सिर्फ़ गिनी-चुनी सरकारों ने इस पर गंभीरता से काम किया है।

संसद में एक सवाल के जवाब में 19 नवम्बर 2020 को गृह राज्य मंत्री ने कहा कि लिंचिंग की घटनाएँ रोकने के लिए राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को ऐहतियाती क़दम उठाने के निर्देश दिए गए हैं। सरकार ऑडियो वीडियो माध्यमों से जन जागरण करने और अफवाहों को रोकने के मुद्दे पर भी काम कर रही है।

देश के अलग-अलग हिस्सों में अक्सर लिंचिंग की घटनाओं की ख़बरें आती रहती हैं, चाहे फिर वो पालघर में साधुओं को मारने का मसला हो या फिर कहीं गौ हत्या या चोरी के मसले पर किसी अल्पसंख्यक की हत्या हो, सरकार उन घटनाओं पर दबाव के बाद तो कार्रवाई करती है लेकिन कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है। 

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लिंचिंग के मामलों में दोषी अक्सर सत्ता पक्ष से जुड़े लोग होते हैं और फिर उन्हें सजा दिलाए जाने की बजाय छुड़ाने की कोशिशें ज़्यादा होने लगती हैं।

राजनीतिक हितों को साधने के बजाय राजनीतिक दलों को इस मसले पर एकजुट होकर और सर्वसम्मति बनाकर कड़े क़ानून तो बनाने ही चाहिए लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि अपराधियों को बचाने या प्रोत्साहित करने की कोशिश नहीं की जाए और अपने घर से ही इसकी शुरुआत करें।