बीते हफ़्ते बीजेपी की दो दिन चली कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री के भाषण का ब्योरा देने जब महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस मीडिया के सामने आए तो उन्होंने बाक़ी बातों के अलावा यह भी बताया कि प्रधानमंत्री ने समाज के सभी अंगों को साथ लेकर चलने की बात कही है। पता नहीं, वे यह बताना भूल गए या जान-बूझ कर इस बात को गोल कर गए कि प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के नेताओं के ऊल-जुलूल बयानों पर भी नाराज़गी जताई है और उन्हें सीमा में रहने की सलाह दी है। अगले दिन समाचार एजेंसियों से पता चला कि प्रधानमंत्री ने अपने नेताओं से यह भी कहा है कि वे समाज के कमज़ोर तबकों से जु़ड़ें- अल्पसंख्यकों और मुसलमानों से भी- बिना इस अपेक्षा के कि उनको वोट मिलेंगे।
निश्चय ही प्रधानमंत्री के इस सुझाव में सदाशयता है। इससे यह बात भी समझ में आती है कि प्रधानमंत्री को इस देश के अल्पसंख्यकों के भीतर के अलगाव बोध या उनकी टूटन का कुछ एहसास है। वैसे यह पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को ऐसी सदाशय सलाह दी हो। पहले भी वे ये सारी बात एकाधिक अवसरों पर कर चुके हैं। लेकिन जिस भावना के तहत यह सारी नसीहत वे अपने कार्यकर्ताओं-नेताओं को देते रहे हैं, क्या वह उनके अपने कार्यकाल में दिखाई पड़ती है?
अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बयान देने का बार-बार अपराध जिस एक शख़्स ने किया है, उसका नाम गिरिराज सिंह है। नरोत्तम मिश्र तो ख़ुद आहत होते रहते हैं, लेकिन गिरिराज सिंह दूसरों को आहत करते रहते हैं। ऐसा कोई भी अल्पसंख्यक विरोधी मुद्दा नहीं होगा जिस पर उन्होंने टिप्पणी न की होगी। लेकिन वे केंद्र सरकार में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री हैं। वे उन मंत्रियों में हैं जो प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में लगातार बने हुए हैं जबकि इससे रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर जैसे दिग्गज माने जाने वाले नेता भी बाहर किए जा चुके हैं।
इसी तरह अनुराग ठाकुर को जब मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, तब वे अपने बेहद आक्रामक बयान के लिए सुर्खियों में थे। वे 'देश के गद्दारों' को गोली मारने की सलाह दे रहे थे। देश के गद्दारों की शिनाख़्त लेकिन वे कैसे करते? सरकार देशद्रोह या राजद्रोह क़ानून के तहत जिनको गिरफ़्तार किया करती थी, उन्हें पहली नज़र में देशद्रोही मान लिया जाता था। लेकिन अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी राजद्रोह क़ानून के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है और सरकार से इसकी समीक्षा के लिए कहा है। तो अनुराग ठाकुर ने यह नहीं बताया कि देशद्रोहियों की पहचान का उनका तरीक़ा क्या होगा, लेकिन सबको मालूम था कि उनके निशाने पर कौन था।
भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर आतंकवादी हमले के मामले में अब भी आरोपी हैं। इसके बावजूद वे गांधी-गोडसे सब पर खुल कर बोलती हैं। लव जेहाद के नाम पर वे बंदूक रखने की सलाह दे चुकी हैं। लेकिन प्रधानमंत्री बस यह ठंडी सांस भर कर रह जाते हैं कि वे प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ़ नहीं कर सकेंगे। उन पर किसी सख़्त कार्रवाई के प्रमाण नहीं मिलते।
नेताओं के विवादास्पद बयान छोड़ें। यह देखें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने मंत्रिमंडल में कितने मुस्लिम प्रतिनिधि हैं? दुर्भाग्य से एक भी नहीं। कुछ दिन पहले तक मुख्तार अब्बास नक़वी इकलौते मंत्री हुआ करते थे, लेकिन अब वे बाहर हैं। मुस्लिम प्रतिनिधित्व और भागीदारी की शिखर पर जो सूरत है, वही बाक़ी जगहों की भी है। बीजेपी सांसदों और विधायकों में मुसलमान आसानी से नहीं मिलते।
प्रधानमंत्री के बयान को कुछ और बारीक़ी से देखने की ज़रूरत है। वे कहते हैं कि मुसलमान वोट दें या न दें, उनके घर बीजेपी कार्यकर्ताओं को जाना चाहिए। मुसलमान वोट नहीं देंगे- ये नतीजा उन्होंने क्यों निकाल लिया? बीजेपी से पूछिए तो वह कहेगी कि क्योंकि मुसलमानों को बीजेपी का राष्ट्रवादी एजेंडा पसंद नहीं आता। वे तुष्टीकरण के आदी हैं।
मगर क्या यही सच्चाई है? एक बहुत बड़े समाज के भीतर एक बहुत बड़ी आबादी को धीरे-धीरे आप हाशिए पर डालें और उससे अपनी सार्वजनिक चिढ़ का खुल कर प्रदर्शन करें तो आपको क्या उम्मीद करनी चाहिए? प्रधानमंत्री के इस सदाशय बयान से पहले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बता चुके हैं कि उनके लिए चुनाव अस्सी और बीस के बीच का है। यानी मुसलमानों की उनको परवाह नहीं है। और कुछ ही दिन पहले अमित शाह याद दिला चुके हैं कि 2002 ने कैसा स्थायी सबक सिखाया। ऐसे नफ़रती बयानों की फ़ेहरिस्त कम नहीं होती। क़ब्रिस्तान और श्मशान की बात ख़ुद प्रधानमंत्री ने की थी।
बहरहाल, यह टिप्पणी लिखने का मक़सद यह दावा करना नहीं है कि प्रधानमंत्री जो अब बोल रहे हैं, वह उनकी वैचारिक मंशा नहीं है, यह याद दिलाना भी नहीं है कि अतीत में उनके नेताओं ने अपने बयानों से अल्पसंख्यकों और ख़ास कर मुसलमानों को कई ज़ख़्म दिए हैं, बल्कि यह समझाने की कोशिश करना है कि एक राष्ट्र-राज्य के रूप में जो टूटन हमारे समाज में पैदा हो रही है, वह कितनी जटिल और गहरी है और उससे सिर्फ़ चालाकी भरे बयानों से नहीं निबटा जा सकता।
दरअसल संकट भारत की मूल संरचना को समझने का है। यह देश किन लोगों का है? क्या सिर्फ़ बहुसंख्यकों का, जो दूसरों को सदाशयता से यहां रहने देने की कृपा कर सकते हैं? यह बात भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी प्रतिज्ञा से मेल नहीं खाती। भारत सबका है- उनका भी जो आर्य-द्रविड़ संग्राम के वारिस कहे जाते हैं, उनका भी जो यहां की जनजातीय आबादी बनाते हैं, उनका भी, जो 1200 साल से भारत में रह रहे हैं और उनका भी, जिन्होंने इस लंबी सभ्यता यात्रा में अलग-अलग दबावों में अपने धर्म बदले हैं। यह उन शूद्रों का भी देश है जिन्हें हाल-हाल तक अस्पृश्य बनाया गया और जिसकी ग्रंथि अब भी अगड़ी जमातों के भीतर से नहीं गई है। इन समाजों के बीच आपस में टकराव के भी अनगिनत उदाहरण है और पारस्परिक मेल के भी।
असली लड़ाई हिंदुओं या मुसलमानों को फ़ायदा या नुक़सान पहुंचाने की नहीं है- वह इस भारत को बचाने की, इसके जज़्बे को सुरक्षित रखने की है। इतिहास ने इस जज़्बे पर बहुत प्रहार किए हैं। 1947 में इसे बिल्कुल धज्जी-धज्जी करके जला देने की कोशिश हुई। देश बंट गया, लेकिन लोग बंट नहीं पाए। वे एक-दूसरे के मामलों में दिलचस्पी लेते रहे। बंटे हुए मुल्कों में आ-आ कर रोते रहे। अपने गुनाहों पर पछताते भी रहे। एक-दूसरे का संगीत सुनते रहे। एक-दूसरे की फ़िल्में देखते रहे। यह कल्पना भी करते रहे कि दोनों देशों की अगर साझा क्रिकेट या हॉकी टीम होती तो कैसी होती।
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पाकिस्तान एक नकली मुल्क की तरह खड़ा हुआ है जिसे इतिहास ने बिल्कुल असली बना दिया है, लेकिन उसका मजहबी अधूरापन जब-तब दिख जाता है। और ज़्यादा मुसलमान होने की कोशिश पाकिस्तान को तबाह कर रही है। बिल्कुल अभी-अभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को कहना पड़ा है कि भारत से तीन-तीन युद्ध लड़ने का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला, हमें बातचीत कर अपनी समस्याएं हल करनी चाहिए। इन समस्याओं के अपने राजनीतिक आयाम हैं जो बेशक, आसानी से हल नहीं होंगे, लेकिन इसमें शक नहीं कि एक मानवीय हूक बीच-बीच में इन राजनीतिक आयामों पर हावी हो जाती है।
पाकिस्तान जैसे और ज़्यादा मुसलमान होने की कोशिश में पिट रहा है, वैसे ही भारत को भी और ज़्यादा हिंदू होने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ठीक है कि हिंदू यहां बहुसंख्यक हैं। वर्गों, जातियों और धर्मों में बंटे और इसका बहुत खयाल रखने वाले भारतीय समाज में इस बहुसंख्यकता से ही उन्हें बहुत सारे अतिरिक्त विशेषाधिकार मिल जाते हैं। लेकिन अगर वे उग्र या असहिष्णु होते हैं तो वे मुसलमानों को नहीं, उस भारतीय वैशिष्ट्य को चोट पहुंचाते हैं जो इसे एक अनूठे देश में बदलता है।
प्रधानमंत्री के भाषण को इस आलोक में भी देखना चाहिए। उन्हें शायद यह एहसास हो कि जिस भारत के वे बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं, उसमें एक तबका ऐसा भी है जिसके भीतर अकेलेपन का, पीछे छूटे जाने का, दर्द साल रहा है। लेकिन इस दर्द को सिर्फ सदाशयता भरी नसीहतों से दूर नहीं किया जा सकता, उसके लिए बड़े प्रयत्न की ज़रूरत है और इसके लिए पहले बीजेपी और संघ परिवार को अपना मानस बदलना होगा। प्रधानमंत्री की असली चुनौती यही है- क्या इन लोगों को वे बदल पाएंगे?