देश में जब कभी परिवारवाद या परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा अथवा संरक्षण देने की बात होती है तो कांग्रेस विरोधी केवल नेहरू-गाँधी परिवार पर ही सीधा निशाना साधते हैं। कभी कभी तो यह आरोप उस समय और भी हास्यास्पद प्रतीत होने लगते हैं जबकि स्वयं परिवारवादी राजनीति को प्रश्रय देने या परिवारवाद की राजनीति का शिकार लोग ही नेहरू-गाँधी परिवार पर परिवारवाद की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं।
अभी विगत 26 नवंबर 2021 को भारत को अपना संविधान अपनाए हुए 72 वर्ष पूरे हुए। इसी दिन वर्ष 1949 में बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने देश को नया संविधान सौंपा था, जिसे 26 जनवरी 1950 को पूरे देश में लागू कर दिया गया था।
इस अवसर पर गत संसद भवन में एक विशेष कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद की राजनीति पर तंज़ कसते हुए कहा, “भारत एक ऐसे संकट की तरफ़ बढ़ रहा है, जो संविधान के प्रति समर्पित लोगों के लिए चिंता का विषय है। लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वालों के लिए चिंता का विषय है और वो हैं पारिवारिक पार्टियां।”
प्रधानमंत्री ने योग्यता के आधार पर परिवार के एक से अधिक लोगों के पार्टी में शामिल होने पर सहमति जताई। लेकिन एक ही पार्टी में पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीति में शामिल हो रहे लोगों को परिवारवाद की राजनीति से प्रेरित कहा।
प्रधानमंत्री ने कहा, “लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले लोगों के लिए चिंता का एक विषय है और वो हैं पारिवारिक पार्टियाँ। राजनीतिक दल ‘पार्टी फ़ॉर द फ़ैमिली, पार्टी बाय द फ़ैमिली ’… अब आगे कहने की मुझे ज़रूरत नहीं लगती है। ये संवैधानिक भावना के ख़िलाफ़ है, संविधान के विपरीत है। एक पार्टी जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार चलाता रहे, पार्टी की सारी व्यवस्था परिवारों के पास रहे, वो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट होता है।”
प्रधानमंत्री की उपरोक्त चिंता क्या वास्तव में इसीलिए है कि राजनीति में परिवारवाद की व्यवस्था स्वस्थ लोकतंत्र के लिये बड़ा संकट और संविधान के लिये ख़तरा है?
क्या यह 'समस्या’ केवल भारतीय राजनीति की ही समस्या है ? और क्या भारतीय जनता पार्टी व उसके अनेक सहयोगी दल परिवारवाद की राजनीति का शिकार नहीं?
आख़िर क्यों केवल नेहरू-गाँधी परिवार को ही परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा अथवा संरक्षण देने का ज़िम्मेदार ठहराया जाता है?
सर्वप्रथम तो यदि हम अपने पड़ोसी लोकतान्त्रिक देशों पर ही नज़र डालें तो पाकिस्तान में भुट्टो व शरीफ़ परिवार, बांग्लादेश में शेख़ व ज़िया परिवार तथा श्रीलंका में राजपक्षे व भंडारनायके परिवार के अतिरिक्त भी ऐसे कई राजनैतिक घराने मिलेंगे जिनकी पीढ़ियां दर पीढ़ियां अपनी पुश्तैनी राजनैतिक विरासत को बख़ूबी संचालित कर रही हैं। यह घराने चुनाव जीतते भी हैं और हारते भी। सत्ता में भी रहते हैं और विपक्ष में भी। ज़ाहिर है ऐसा तभी संभव होता है जबकि जनसमर्थन भी इनके साथ हो।
परिवार की ओर से थोपे जाने मात्र से कोई भी नेता जनस्वीकार्य नहीं हो जाता। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी भारतीय जनता पार्टी में दर्जनों शीर्ष नेता ऐसे हैं जो अपनी संतानों या परिवार के निकट रिश्तेदारों को अपनी राजनैतिक विरासत हस्तांतरित कर चुके हैं या कर रहे हैं।
हाँ स्वयं नरेंद्र मोदी, मनोहर लाल खट्टर व योगी आदित्य नाथ जैसे नेताओं को इस तरह का 'उपदेश' देने में आसानी ज़रूर होती है क्योंकि इन लोगों को पारिवारिक चिंताओं व ज़िम्मेदारियों का न तो अंदाज़ा है न ही एहसास।
नेहरू-गाँधी परिवार की आलोचना का कोई अवसर न गंवाने वालों के साथ एक समस्या यह भी है कि कांग्रेस जनों को या शीर्ष कांग्रेस नेताओं को भले ही नेहरू-गाँधी परिवार द्वारा पार्टी का नेतृत्व किया जाना उनके लिये गौरव की बात क्यों न हो परन्तु भाजपाइयों के पेट में 'नेहरू गाँधी परिवार' द्वारा कांग्रेस नेतृत्व किये जाने को लेकर मरोड़ ज़रूर उठता रहता है।
राजनाथ सिंह, पीयूष गोयल, स्वo कल्याण सिंह, वसुंधरा व ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद सहित अनेक भाजपाई परिवारवादी राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त कश्मीर, पंजाब व हरियाणा सहित अनेक राज्यों के परिवारवादी राजनीति का पोषण करने वाले दलों से समय-समय पर समझौता करने वाली भाजपा को सिर्फ़ और सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व से ही लोकतंत्र व संवैधानिक मर्यादा ख़तरे में दिखाई देती है।
हाँ यदि इसी परिवार की मेनका गाँधी व वरुण गांधी भाजपा के साथ खड़े हों तो वह लोकतंत्र के लिये ख़तरा नहीं है।
दरअसल नेहरू गाँधी परिवार पर हर समय किसी न किसी बहाने निशाना साधते रहने के पीछे मुख्य कारण यह है कि कांग्रेस के लाख कमज़ोर होने के बावजूद इस परिवार के सदस्यों की लोकप्रियता व स्वीकार्यता अभी भी बरक़रार है।
दूसरा कारण यह कि आज के समय के बिखरे विपक्ष के दौर में केवल इसी परिवार के लोग हैं जो अहंकारपूर्ण व बेलगाम होती जा रही सत्ता की आँखों में आँखें डाल कर सवाल पूछ रहे हैं।
ध्यान भटकाने की कोशिश?
और तीसरी और सबसे प्रमुख बात यह कि नेहरू गाँधी परिवार पर निशाना साध कर यह उन वास्तविक मुद्दों की तरफ़ से ध्यान भटकाना चाहते हैं जो वास्तव में न केवल लोकतंत्र बल्कि संविधान के लिये भी ख़तरा हैं। जो देश की एकता और अखंडता के लिये ख़तरा है।
परिवारवाद से बड़ा ख़तरा तानाशाही है। विपक्ष हीन लोकतंत्र बनाने की कामना से लोकतंत्र को ख़तरा है। दल बदल को प्रोत्साहन, भय और आतंक की राजनीति, पूंजीपतियों के हाथों का खिलौना बनना, अन्नदाताओं का तिरस्कार करना, देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटना आदि देश के लोकतंत्र के लिये ख़तरा है न कि नेहरू-गाँधी परिवार की राजनीति में सक्रियता।