अपने नौ वर्ष से अधिक के प्रधानमंत्रित्व काल में नरेंद्र मोदी अपने विरोधियों, आलोचकों के साथ ही अपने प्रशंसकों और भक्तों को भी संशय में डालते रहे हैं, सो सोमवार यानी 18 सितंबर, 2023 को संसद के विशेष सत्र में भी उनसे यही अपेक्षा थी। मौजूदा संसद भवन के उनके आखिरी भाषण में राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के साथ देश के पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम आना अप्रत्याशित नहीं था, मगर उन्होंने देश के प्रथम प्रधानमंत्री को जिस तरह याद किया वह ज़रूर अप्रत्याशित था।
मोदी ने अपने लंबे भाषण में नेहरू के नाम का छह बार उल्लेख किया और हर बार सकारात्मक रूप से। इसमें सबसे उल्लेखनीय है नेहरू का 14-15 अगस्त, 1947 की रात दिया गया सुप्रसिद्ध नियति से साक्षात्कार वाला भाषण, जिसका उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘इसी सदन में पंडित नेहरू का At the Stroke of Midnight की गूंज हम सबको प्रेरित करती रहेगी।…’
पर क्या मोदी ने सायास इस वाक्य को पूरा नहीं किया? नेहरू ने कहा था, "At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom..." क्या 'इंडिया' शब्द के कारण ऐसा हुआ, जिसके आज सियासी मायने बताने की जरूरत नहीं है।
दरअसल, यह देश के प्रथम प्रधानमंत्री और क़रीब नौ वर्ष से भी अधिक का समय अंग्रेज़ों की जेल में बिताने वाले विद्वान राजनेता पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति मोदी की कृतज्ञता के साथ उनकी मजबूरी को भी दिखाता है। स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्र भारत की कोई भी कहानी नेहरू के बिना पूरी ही नहीं हो सकती। अन्यथा, यह जगजाहिर है कि मोदी काल में किस तरह से नेहरू और उनकी विरासत को झुठलाने और उन्हें बदनाम करने की कोशिशें की गई हैं और आज भी की जा रही हैं।
यह सचमुच एक बड़ी उपलब्धि है कि 14 अगस्त, 1947 को जिन हालात में देश को स्वतंत्रता मिली थी, उसे नेहरू के नेतृत्व में देश ने न केवल संभाल कर रखा, बल्कि ऐसी मज़बूत नींव तैयार की, जिस पर इस देश की लोकतांत्रिक इमारत बुलंदी के साथ खड़ी है। नेहरू ने सरदार वल्लभभाई पटेल (देश के प्रथम उपप्रधानमंत्री) के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया था, जो उनकी दूरदृष्टि और समावेशी राजनीति को दिखाता है।
दूसरी ओर हकीकत यह है कि नेहरू आरएसएस, भारतीय जनसंघ के साथ ही राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादियों के हमेशा निशाने पर रहे। नेहरू पर उनके जीवनकाल में ही संसद के भीतर और बाहर हमले शुरू हो गए थे। इसमें कुछ गलत नहीं है।
यह लोकतंत्र का तकाज़ा है कि प्रधानमंत्री चाहे नेहरू ही क्यों न हों, वह सवालों के घेरे से ऊपर नहीं है। यह भी सच है कि नेहरू खुद पर होने वाले हमलों को लेकर उदार रहे। मगर जिस तरह से नेहरू पर व्यक्तिगत आक्षेप किए गए हैं, उन्हें लेकर जिस तरह की झूठी कहानियां फैलाई जाती हैं, वैसा किसी और के साथ नहीं है।
26 मई, 2014 के बाद तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया। वरना उससे पहले देश आमतौर पर Nehru Consensus यानी नेहरूवादी विचारधारा पर चलता रहा है। फिर सरकार चाहे किसी भी दल या व्यक्ति की क्यों न रही हो, वह इसी ‘नेहरू आम सहमति’ पर घोषित अघोषित रूप से चलती रही। भारत के इस लोकतांत्रिक और संसदीय जीवन के सफर में अवरोध भी आते रहे हैं, मगर यह सहमति बनी रही।
आखिर क्या है 'नेहरू आम सहमति'?
यह 'नेहरू आम सहमति' गुटनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र, उच्च आधुनिकतावाद के विचार से मिलकर बनी थी। गैरकांग्रेसी सरकारों के दौर में भी यह बनी रही, तो इसकी अंतर्निहित शक्तियों को सहज ही समझा जा सकता है। नरेंद्र मोदी के पूर्ववर्ती भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी इसी नेहरू आम सहमति की ही कड़ी थे।
दरअसल, इस नेहरू आम सहमति को चुनौती मिली 26 मई, 2014 को जब नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता के बाद प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। उनके शपथ ग्रहण समारोह को दक्षेस के नेताओं को आमंत्रित कर भव्य बनाया गया था। इसके ठीक एक दिन बाद यानी 27 मई, को जब मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल की शुरुआत की। ठीक उसी दिन जवाहर लाल नेहरू की पचासवीं पुण्यतिथि थी। प्रधानमंत्री मोदी ने एक ट्वीट कर नेहरू को श्रद्धांजलि जरूर दी थी। उसी वर्ष 14 नवंबर को जब नेहरू की 125वीं जयंती थी, तो उस दिन को मोदी ने नेहरू की 125वीं जयंती को बाल स्वच्छता वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा भी की थी।
नेहरू पर मोदी और भाजपा के हमले न केवल जारी रहे, बल्कि उत्तरोत्तर उनमें तेजी भी आई। यहाँ तक कि मोदी ने नेहरू सरनेम तक पर तीखा हमला किया।
वहीं, संसद के भीतर कांग्रेस पर हमला करते हुए उन्होंने नेहरू को उद्धृत करने से गुरेज भी नहीं किया। मसलन, 7 फरवरी, 2022 को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए मोदी ने बार-बार नेहरू का ज़िक्र किया।
निस्संदेह आम चुनाव के ज़रिये सत्ता तक पहुँचने वाले हर प्रधानमंत्री और हर सरकार को अपनी नीतियाँ और कार्यक्रम बनाने का सांविधानिक हक है। फिर भी, जिस तरह से नेहरू के समय के योजना आयोग को खत्म कर उसकी जगह नीति आयोग बनाया गया, वह भी एक तरह से नेहरू आम सहमति पर हमला ही था। यह अच्छी बात है कि देश के सारे प्रधानमंत्रियों के संग्रहालय और स्मारक होने चाहिए, परंतु जिस तरह से नेहरू स्मारक एवं संग्रहालय के महत्व को कम कर और उसका नाम बदलकर ऐसा किया गया, वह पंडित जवाहरलाल नेहरू के कद को कमतर करने का प्रयास ही अधिक लगता है।
मगर मुश्किल यह है कि नेहरू के नाम के बिना देश का काम नहीं चल सकता, न देश के भीतर और न देश के बाहर। जी-20 के वृहत आयोजन के दौरान विश्व के तमाम नेताओं की अगुवाई करते समय प्रधानमंत्री मोदी को भी इसका ज़रूर एहसास हुआ होगा। मोदी ने संसद में अपने भाषण में जिस 'नाम' (नॉन एलाइनमेंट मूवमेंट) यानी निर्गुट सम्मेलन का जिक्र किया, उसके एक बड़े वास्तुकार पंडित नेहरू ही थे।
नेहरू क्या थे? यह समझने के लिए सुनील खिलनानी की चर्चित किताब अवतरण पढ़नी चाहिए। यह किताब भारत के 50 ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर केंद्रित है और इसमें जवाहरलाल नेहरू शामिल नहीं हैं! खिलनानी ने भारत के ढाई हजार साल के इतिहास से 50 व्यक्तित्वों के चयन को लेकर अपनी दुविधा बताते हुए लिखा, "मैंने कुछ परिचित नामों को छोड़ने का निर्णय लिया, ताकि कुछ ऐसे लोगों को शामिल कर सकूं, जिनके बारे में सबको जानना चाहिए- यह एक ऐसा चुनाव था, जिसके बारे में मैं सोचता हूं कि वह शख्स़ जरूर इससे सहमत होता, जिसे मैंने इसमें शामिल नहीं किया और वे हैं नेहरू।"
आम बोलचाल में कहा जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। क्या अब यह भी कहा जा सकता है, मजबूरी का नाम जवाहरलाल नेहरू!
(सुदीप ठाकुर पत्रकार और लेखक हैं)