आम लोगों को उनकी भाषा में न्याय मिले- इस सोच को कौन नहीं सराहेगा? मगर, इस पर अमल कौन करेगा, कैसे अमल होगा, कब तक ऐसा करना मुमकिन हो सकेगा और आख़िरकार इसका रोडमैप क्या होगा? यह बताए बगैर प्रधानमंत्री की इस सदिच्छा का कोई मतलब नहीं है कि आम लोगों को उनकी भाषा में न्याय मिलना चाहिए।
दसवीं कक्षा का छात्र अगर ऐसी इच्छा रखता है कि आम लोगों को उनकी भाषा में न्याय मिले तो यह बेहद सराहनीय है क्योंकि इसमें न्याय व्यवस्था को मज़बूत करने का नज़रिया है। मगर, यही बात सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सभी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और क़ानूनविदों की मौजूदगी में कही जाती है और वह भी प्रधानमंत्री कहते हैं तो हम सुनहरे सपनों में खोने के बजाए न्याय व्यवस्था के वर्तमान हालात की चिंता करने को मजबूर हो जाते हैं।
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल जब एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट परिसर में विभिन्न हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मान में आयोजित समारोह में चिंता जताते हैं कि 4 करोड़ मामले ट्रायल कोर्ट में लंबित हैं तो न्याय व्यवस्था की पोल खुल जाती है। हाईकोर्ट में 40 लाख दीवानी मामले और 16 लाख आपराधिक मामले जुड़कर 56 लाख हो जाते हैं जो लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट में दर्ज आँकड़े बताते हैं कि एक अप्रैल 2022 को 70,632 मामले लंबित हैं।
अदालतों में क्यों रुकी हुई हैं नियुक्तियाँ?
लंबित मामलों पर न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की फिक्र नज़र नहीं आती। भाषणों में ज़िक्र को फिक्र नहीं कहा जा सकता। अगर वास्तव में फिक्र होती तो ट्रायल कोर्ट में जहाँ 4 करोड़ मामले लंबित हैं वहाँ 5 हजार नियुक्तियाँ पड़ी नहीं होतीं। 24 हज़ार पद में 5 हजार पद खाली होना ‘त्वरित अन्याय’ से शुरू होकर ‘विलंबित अन्याय’ की मुख्य वजह क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
जिन हाईकोर्ट में 56 लाख मामले लंबित होंगे, वहाँ आधी क्षमता के साथ न्यायाधीश कितना न्याय कर पाएंगे? सुप्रीम कोर्ट में यह सुखद स्थिति है कि जज की 34 कुर्सियों में से 32 भरी हुई हैं। मगर, फिर भी लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए यह क़तई सुखद नहीं है।
छह साल पहले ऐसे ही सम्मेलन में तत्कालीन सीजेआई टीएस ठाकुर ने कहा था कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में एक जज साल में 81 फ़ैसले देता है जबकि भारत के जज औसतन 2600 फ़ैसले देते हैं। इतना भारी बोझ लेकर न्याय को सुनिश्चित करना वाक़ई बहुत टेढ़ी खीर है।
25 साल पहले हम जहां थे वहां से कहां पहुंचे?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि जब हम 2047 में होंगे तो ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि सबको न्याय मिल रहा हो। ऐसा हो तो अति सुंदर। लेकिन, ऐसा कैसे हो? क्या अब से 25 साल पहले लोग ऐसी ही कल्पना नहीं कर रहे थे? आज हम 25 साल बाद कहां खड़े हैं?
कुल 46 प्रतिशत मामले तो तीन साल के भीतर के हैं जो बताते हैं कि केसों के आने की गति तेजी से बढ़ती जा रही है। वहीं 25.76 प्रतिशत मामले 5 साल से लेकर 30 साल के हैं। जब 5 साल पहले के 25 फीसदी मामले नहीं निपटा पा रहे हैं तो जो ताजा मामले आ रहे हैं उन्हें कब और कैसे निपटाएंगे?
छह साल पहले बहे सीजेआई के आंसू क्यों बेनतीजा रहे?
छह साल पहले ही तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने न्याय के मंदिर में अन्याय होने का मसला उठाया था। न्यायालय की बेबसी बताते-बताते वे रो पड़े थे। तब भी यही जमघट थी। सारे मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री। तब से अब न्याय की स्थिति सुधरी नहीं है। जब ऐसे समारोह में गिरे आँसू भी कोई सकारात्मक फर्क नहीं ला सका, तो कैसे मान लिया जाए कि 2047 में क़ानून का राज देश में कायम हो जाएगा। सबको त्वरित गति से न्याय मिल रहा होगा।
प्रधानमंत्री ने न्याय में मध्यस्थता की भूमिका का भी ज़िक्र किया। मगर, जिस देश में अंडर ट्रायल मामले 4 करोड़ से ज़्यादा हों, वहाँ मध्यस्थता के लिए भी तो फुर्सत होनी चाहिए। क्या न्यायालय के पास मध्यस्थता का समय है, संसाधन हैं, कर्मचारी और व्यवस्था उस हिसाब से है? वैसे, हमारे देश की पंचायती व्यवस्था में मध्यस्थता अगर सही तरीक़े से काम करती तो न्यायालय तक इतनी तीव्र गति से मामले पहुंचते ही क्यों?
गरीब सबसे ज़्यादा हैं अन्याय का शिकार
चिंतित करने वाला सवाल यह है कि निचली अदालतों से लेकर हाईकोर्ट तक अगर 4.5 करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं तो इसमें पीड़ित वर्ग कौन है? गरीब लोग जो दलित हैं, आदिवासी हैं, मुसलमान हैं वही सबसे ज़्यादा विचाराधीन कैदी बनकर जेलों में बंद हैं। सीजेआई एनवी रमना ने कहा कि गरीब लोगों के पास पैसे नहीं हैं कि वे अपनी जमानत भी करा सकें और वे जेलों में सड़ रहे हैं। ऐसी सभा जहां प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के प्रधान बैठे हों, वहां चिंता की प्राथमिकता गरीबों को न्याय होगा या न्याय देने का माध्यम यानी भाषा?