जनता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है। जनता उनसे उनके ‘मन की बात’, उनके राष्ट्र के नाम संदेश, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सब कुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है पर अपने दिल की बात उनके साथ शेयर करने का साहस नहीं जुटा पाती है। प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। सम्भव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।
लोकतान्त्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है कि लोग उन्हें हक़ीक़त में कितना चाहते हैं! वे अपने आपको लोगों के बीच चाहने के चोचले या टोटके भी आज़माते रहते हैं। मसलन, अमेरिकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियाँ करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी। शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियाँ शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती जहाँ किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर देखा जाता है।
पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फ़क़ीर का वेष बदलकर देर शाम या अंधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फ़ीडबैक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुक़ाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेन्सी या पेड न्यूज़ वालों की मदद नहीं लेता था। हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने ‘डाई हार्ड’ समर्थकों के अलावा देश की बाक़ी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग़ दोनों से कितना चाहती है या कितना ख़ौफ़ खाती है?
आपातकाल के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज़ का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है। भ्रष्टाचार का रेट भी ‘दूर दृष्टि‘ और ‘कड़े अनुशासन’ के बीस-सूत्रीय कार्यक्रमों की रिस्क के चलते काफ़ी बढ़ गया था। पर जनता पार्टी शासन के अल्प-कालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफ़ी बदल लिया था।
इंदिरा गांधी के निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद ‘परिवार’ के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटल जी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था।
नायक कई मर्तबा यह समझने की ग़लती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग ही उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फ़ैसले में सिर्फ़ नुस्ख ही तलाशते रहते हैं। अगर यही सही होता तो दुनिया भर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज़ पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं।
सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के ज़रिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पाँच बजे राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में सम्भावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं? या फिर मौतों के आँकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगे? या फिर क्या वे इस बात का ज़िक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलेप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। सम्बोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की साँस ली और ज़्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुख़ातिब हो जाना चाहिए।
पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेन्सी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आँकड़े प्रधानमंत्री, पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि उनके सम्बोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है?
प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के सम्बोधन में केवल इस बात का ज़िक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है। उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराज़गी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के ‘भावों’ को नहीं पढ़ पा रहे हैं। अपार भीड़ की ‘अभाव’पूर्ण उपस्थिति ऐसी ख़ुशफ़हमी में डाल देती है जो परिणामों में ग़लतफ़हमी साबित हो जाती है। बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक ‘अलोकप्रिय’ मुख्यमंत्री एक ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता में क़ाबिज़ हो गई।
प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने, मुफ़्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ़्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बाँटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जाना थीं, जा चुकी हैं। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का ज़िक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके सम्बोधन को टीवी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है?