संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने को है और मौसम में ठंडक बढ़ने के साथ-साथ राजनीतिक गर्माहट की तपन महसूस होने लगी है। यह राजनीतिक गर्माहट शायद इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि संसद के सत्र के तुरंत बाद अगले साल फ़रवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। संसद के इस सत्र से पहले हिमाचल प्रदेश की राजधानी के खुशनुमा मौसम में देश भर के पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन हुआ यानी लोकसभा और राज्यसभा के साथ-साथ विधानसभाओं के अध्यक्षों ने इसमें हिस्सा लिया।
संसद और विधानसभाओं को चलाने का ज़िम्मा सदन के सभापति या अध्यक्ष का होता है और माना जाता है कि वो पार्टी हितों से दूर रह कर सदन चलाने का काम करेंगे, लेकिन क्या ऐसा हो पाता है? क्या ऐसा होना मुमकिन है? क्या सदन के अध्यक्ष अपनी पार्टी के हितों या सरकारों को बचाने के लिए कई बार ऐसे काम भी कर देते हैं जिनको लेकर काफ़ी आलोचना होती है।
हो सकता है कि पीठासीन अधिकारियों की इस मैराथन बैठक में इन चिंताओं और सवालों के जवाब ढूंढने की ईमानदार कोशिश की गई होगी। उम्मीद तो यह भी की जानी चाहिए कि अब सदन में महत्वपूर्ण विषयों पर गंभीर चर्चा भी हो सकेगी और सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं है, इससे आगे देश और लोकतंत्रीय व्यवस्था की सूरत बदलने और बेहतर करने पर भी काम होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सम्मेलन में ‘वन नेशन, वन लेजिस्लेशन’ का मंत्र दिया है, लेकिन इससे ज़्यादा जोर उन्होंने इस आग्रह पर दिया कि मंत्र सिर्फ़ एक है और वो है- ‘कर्तव्य, कर्तव्य, कर्तव्य’।
संसद का पिछला सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था और मौजूदा राजनीतिक हालात, राजनीतिक दलों में आपस में बढ़ती कड़ुवाहट और सबसे ऊपर पांच राज्यों में आने वाले विधानसभा चुनाव, इन सबके बीच इस बात पर भरोसा आसानी से नहीं होता कि संसद का शीतकालीन सत्र बेहतर और गंभीर चर्चा के लिए जाना जाएगा न कि सिर्फ़ हंगामों के लिए।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने इस बात पर चिंता ज़ाहिर की थी कि आजकल सदन में गंभीर चर्चा नहीं होती और ख़ासतौर से बिलों पर सांसद गंभीर चर्चा नहीं कर रहे या तैयारी करके नहीं आ रहे। पिछले दिनों तो ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमें बिल बिना किसी बड़ी या गंभीर चर्चा के ही पास कर दिए गए। कुछ बिल तो हंगामे के बीच पास होने के आरोप भी लगे।
औपचारिक तौर पर सरकार बार-बार कहती रही कि वो किसी भी मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन विपक्ष हंगामे के साथ यह आरोप लगाता रहा कि सरकार उसकी बात सुनने को तैयार नहीं है।
सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सदन में चर्चा में मर्यादा और गंभीरता का पालन हो, कोई किसी पर छींटाकशी ना करे, ऐसा सबसे स्वस्थ दिन और स्वस्थ समय भी तय हो। हमने यह लोकतंत्रीय व्यवस्था ब्रिटेन से ली है। वहाँ संसद में कुछ दिन तय होते हैं जिसमें सिर्फ़ विपक्षी सांसदों को बात रखने का मौक़ा दिया जाता है, अगर सप्ताह में एक दिन या कुछ समय इसके लिए तय कर लिया जाए तो शायद सदन की बैठकों को बार-बार स्थगित करने से बचा जा सकता है। विपक्ष को भी इस बात का यक़ीन होने लगेगा कि उसकी बात कहने और सुनने का मौक़ा मिल रहा है।
मुझे राजस्थान विधानसभा की वो परंपरा याद आती है कि जब बीजेपी नेता भैरोंसिह शेखावत मुख्यमंत्री थे और उन्होंने विधानसभा में हर दिन सबसे अच्छा वक्ता घोषित करने की शुरुआत की और उस विजेता विधायक की तरफ़ से पूरे सदन में लड्डू बांटे जाते थे। ज़्यादातर बार विपक्षी विधायकों को ही सर्वश्रेष्ठ वक़्ता होने का मौक़ा मिलता। जाहिर है शाम को जब देशी घी के लड्डू गैलरी में बंटते थे तो फिर राजनीतिक विरोध और बयानबाज़ी का माहौल मिठास में बदल जाता था।
शेखावत उप राष्ट्रपति बनने के बाद राज्यसभा के सभापति बने तो कई मौक़ों पर जब सदन में ख़ासा हंगामा होता और सदन को स्थगित करना पड़ता तो उस वक़्त वे विपक्षी सांसदों और सरकार के पक्ष के लोगों को साथ बिठा कर गर्मागर्म गुलाब जामुन खिलाते थे और सरकार को इस बात के लिए राज़ी करते थे कि फिर से सदन शुरू होने पर पहले विपक्ष को उसकी बात कहने का मौक़ा दिया जाए। उस वक़्त बीजेपी और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता बैक चैनल से माहौल को अच्छा रखने में लगे रहते थे। सेन्ट्रल हॉल में कॉफी और डोसा साथ खाकर सबका गुस्सा ठंडा हो जाता था, लेकिन अब वो एक्सरसाइज किसी भी तरफ़ से होती नहीं दिखती। बिजनस एडवाजरी कमेटी की बैठक में भी दोनों पक्षों की बात रखने का मौक़ा देने की कोशिश होती थी।
शिमला में इस सम्मेलन की परपंरा के सौ साल पूरा हो रहे थे और यह 82वां सम्मेलन था यानी इतने मौक़ों के बाद भी हम एक बेहतर संसदीय व्यवस्था हासिल नहीं कर पा रहे हैं यानी कहीं ना कहीं चूक हो रही है या फिर हमारे कहने और करने के बीच बड़ा फासला है। संसद के पचास साल पूरे होने के मौक़े पर भी वाजपेयी सरकार के दौरान एक विशेष सम्मेलन में यही सब चिंताएँ भी ज़ाहिर की गई थीं और भरोसा भी ऐसा ही दिलाया गया था।
इसके अलावा एक अहम विषय रहता है सदन के अध्यक्ष की भूमिका को लेकर, ख़ासतौर से जब मामला दल-बदल क़ानून से जुड़ा हो और अक्सर इस पर अध्यक्ष की भूमिका और निर्णय को लेकर विवाद होता है। क्या इसका रास्ता निकालने की कोशिश सम्मेलन में की गई?
सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘वन नेशन, वन लेजिस्लेटिव’ प्लेटफॉर्म को समझाते हुए बताया कि एक ऐसा डिजिटल प्लेटफॉर्म या पोर्टल बनाया जाए जो संसदीय व्यवस्था को तकनीकी बूस्ट दे और देश की सभी लोकतांत्रिक इकाइयों को जोड़ने का काम करे। साथ ही सदन के लिए सारे संसाधन इस पोर्टल पर उपलब्ध हो।
आज जब हम संसद के नए भवन के तैयार होने का इंतज़ार कर रहे हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वो तकनीकी तौर पर ज़्यादा सुविधाजनक और ताक़तवर हो, जिससे संसदीय व्यवस्था को मज़बूत करने में मदद मिले। शायद साल 2007 में मैं तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ यूरोपियन संसद में गया था तो वहां उस वक़्त भी तकनीकी तौर पर यह सब व्यवस्थाएं सभी के लिए उपलब्ध थीं।
प्रधानमंत्री सम्मेलन में यह कहते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ़ एक व्यवस्था नहीं है, यह भारत का स्वभाव और सहज प्रकृति है। सदन की परपंराएँ और व्यवस्थाएँ स्वभाव से भारतीय हों। हमारे क़ानून और हमारी नीतियाँ भारतीयता के भाव के साथ ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प को मज़बूत करने वाले हों और सदन में खुद का आचार-व्यवहार भी भारतीय मूल्यों के हिसाब से हो, यह सबकी ज़िम्मेदारी हो।
भले ही यह माना जाता हो कि सदन को चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की है, लेकिन यह विपक्ष के सहयोग के बिना मुमकिन नहीं है। ऐसा बहुत बार होता है कि जब विपक्ष सदन नहीं चलने देने के लिए अड़ जाता है तो फिर लाख कोशिश के बावजूद सदन नहीं चल पाता, लेकिन इसमें यह भी अहम है कि सरकार को हर मुद्दे या मसले को अपना ईगो इश्यू नहीं बनाना चाहिए।
प्रधानमंत्री का यह प्रस्ताव भी काफ़ी महत्वपूर्ण है कि क्या साल में कुछ दिन सदन में ऐसे रखे जा सकते हैं, जिसमें समाज के लिए कुछ खास कर रहे जन प्रतिनिधि अपना अनुभव बताएँ। अपने सामाजिक जीवन पक्ष के बारे में देश को जानकारी दें। क्या बेहतर चर्चा के लिए अलग से समय निर्धारित किया जा सकता है। मौजूदा व्यवस्था में हमारे चुने हुए सांसद और विधायक सिर्फ़ खुद को ही जनता का नुमाइंदा मानते हैं और आमतौर पर सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की ना तो सुनवाई होती है और ना ही नीति निर्धारण में कोई भूमिका, शायद यही वजह है कि संसद में पास होने वाले बिलों को लेकर जनता में विरोध का स्वर बढ़ने लगा है। लेकिन क्या इसके लिए हमारी संसदीय व्यवस्था में कोई बदलाव करने की योजना है?
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला खुद लंबे सार्वजनिक जीवन के बाद इस पद पर पहुंचे हैं। उनकी इस बात में दम है कि संसदीय समितियों के कामकाज को अधिक प्रभावी बनाने की ज़रूरत है जिससे संसदीय दायित्वों का निर्वहन किया जा सके।
संसद में सदन की बैठकों की संख्या और क़ानून बनाते वक़्त चर्चा की कमी चिंता का विषय है। एक ज़माने पहले तक सभी महत्वपूर्ण बिल संसदीय समितियों के पास विस्तार से चर्चा और मनन के लिए भेजे जाते थे। इन समितियों की बैठकों में न केवल बिल पर विस्तार से चर्चा होती थी, बल्कि पार्टी की भूमिका से दूर रह कर सांसद इस पर अपनी ईमानदार राय रखते थे। इस व्यवस्था में लगातार कमी आई है। अब सरकारें ज़्यादातर मौक़ों पर बिल को संसदीय समिति के पास भेजने के लिए तैयार नहीं होती। ऐसा लगता है कि उन्हें बस बिल पास कराने की मंशा रहती है। कल ही ब्रिटेन की संसद में जब विपक्षी सांसद के सवाल पर प्रधानमंत्री ने ठीक से जवाब नहीं दिया तो सदन के स्पीकर ने आपत्ति जाहिर की। इस पर जब प्रधानमंत्री ने नाराज़गी दिखाई तो स्पीकर ने साफ़ शब्दों में जोर देकर कहा कि “यू मे बी द प्राइम मिनिस्टर बट इन दिस हाउस आए एम द बॉस”।
सम्मेलन में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह का यह सवाल भी अहम है कि विशेषज्ञों का मानना है कि अगले दशक में आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस दुनिया की सूरत और तरीक़ों को बदल देगी, ऐसे में क्या भारत की संसदीय और विधायी प्रणाली इसका मुक़ाबला करने के लिए तैयार है। हमें ऐसे क़ानूनों की ज़रूरत है जो अपनी संस्थाओं को भविष्य के मुताबिक़ बना सके।
सम्मेलन में और भी बहुत से सवाल उठे हैं। कुछ के जवाब मिले हैं, कुछ के जवाब तलाशने हैं। लोकतंत्र की असली ताक़त भी इसमें ही है कि वो सवालों का सामना करने के लिए तैयार हो और उसका जवाब देने की तैयारी करे और याद रखे कि सवाल करने वाला भी देश की चिंता ही कर रहा है।