‘मुझे मालूम है, दो-तीन पेशेंट तीन चार घंटों में मर जायेंगे। आख़िरी साँस ले रहे हैं। आप अपने पेशेंट को चार पाँच बजे सुबह लेकर आइए। शायद बेड खाली मिल जाएगा। हम आपके पेशेंट को भर्ती कर लेंगे।’ लखनऊ के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर से ये जवाब सुनकर मैं अवाक रह गया। डॉक्टर से कोरोना के एक गंभीर रोगी को अस्पताल में भर्ती करने की बात हो रही थी। डॉक्टर ने बताया कि अस्पताल में भर्ती होने वाले ज़्यादातर रोगियों को सिर्फ़ ऑक्सीजन की ज़रूरत है, लेकिन इसका कोई इंतज़ाम नहीं किया गया।
ऑक्सीजन की कमी से बहुत सारे रोगी गंभीर स्थिति में पहुँच रहे हैं। इसके चलते आईसीयू और वेंटिलेटर पर रोगियों की संख्या बढ़ रही है। डॉक्टर ने यह भी बताया कि ऑक्सीजन की व्यवस्था हो तो बहुत सारे रोगियों का घर पर ही इलाज हो सकता है। उनकी जान बचाई जा सकती है।
हाल - ए - ऑक्सीजन
जब किसी अस्पताल में जगह नहीं मिली तब हमने अपने पेशेंट की जान बचाने के लिए घर पर ही ऑक्सीजन की व्यवस्था करने की कोशिश शुरू की। कई सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों से संपर्क किया। हर जगह से एक ही जवाब मिला। हमारे पास घर पर ऑक्सीजन भेजने की कोई व्यवस्था नहीं है। मेडिकल सामान घर पर भेजने वाली एजेंसियों का जवाब था कि ऑक्सीजन सिलेंडर ख़त्म हो चुके हैं।
2020 के मार्च -अप्रैल में कोरोना का विस्फोट होने के बाद ही यह साफ़ हो गया था कि सबसे ज़्यादा ज़रूरत ऑक्सीजन की होती है। एक साल बाद भी ऑक्सीजन की कमी पहले की तरह बरक़रार है। सरकार को इसका जवाब देना चाहिए। लेकिन बड़े सरकार तो बंगाल विधान सभा चुनाव के प्रचार और हरिद्वार में कुंभ मेला इत्यादि के इंतज़ाम में व्यस्त हैं। जवाब दे कौन?
ऐसा भी नहीं है कि ऑक्सीजन बिल्कुल उपलब्ध ही नहीं है। हमने कुछ मित्रों से बातचीत की तो एक सप्लायर सिलेंडर देने के लिए तैयार हो गया। उसने क़ीमत बतायी 32 हज़ार रुपए। आम तौर पर ये सिलेंडर 8 से 10 हज़ार में मिलता है। उसने कहा कि सिलेंडर अब आपका। गैस ख़त्म होने पर क़ीमत चुका कर गैस भरवा लें। काम ख़त्म हो जाने पर अपने पास रखें, दान कर दें या फिर 2 या 3 हज़ार में हमें वापस बेच दें। आपकी मर्ज़ी।
बहरहाल, हमें संतोष मिला कि घर पर ऑक्सीजन देकर मरीज़ की जान बचाई जा सकती है। सवाल यह है कि सरकार ऑक्सीजन की ज़रूरत के बारे में पहले से सावधान क्यों नहीं हुई। जवाब यही हो सकता है कि वोट अगर हिन्दू-मुसलिम कार्ड से मिल जाएँ तो ऑक्सीजन के बारे में सोचने की ज़रूरत क्या है।
दास्तान- ए - ब्लैक मार्केटिंग
लखनऊ में वो सब चीज़ें मिल रही हैं, जिनकी ज़रूरत घर पर कोरोना के इलाज के लिए पड़ती ही हैं। और सोशल मीडिया पर जिनकी भारी कमी बतायी जा रही है। लेकिन महामारी या आपदा काल में हर चीज़ की एक क़ीमत होती है। उदाहरण के तौर पर सबसे ज़रूरी चीज़ है थर्मामीटर। दवा की दुकानों में उपलब्ध है लेकिन क़ीमत है साढ़े तीन सौ से चार सौ रुपए। ख़ुद दुकानदार बता रहे हैं कि कोरोना विस्फोट से पहले सौ रुपए में बेच रहे थे। इसी तरह घर पर इलाज के लिए ऑक्सीमीटर, ब्लडप्रेशर (बीपी) मीटर और ब्लड शुगर मीटर की भी ज़रूरत पड़ती है। एक दुकानदार ने बताया कि इस संकट से पहले ये सभी मशीनें आठ सौ से बारह सौ में मिल रही थीं, लेकिन अब दो से ढाई हज़ार में बिक रही हैं। ख़ास बात यह है कि दुकानदार इन्हें ब्लैक में नहीं बेच रहा है। सब पर इन्हें बनाने वाली कंपनी की तरफ़ से अधिकतम खुदरा मूल्य यानी एमआरपी लगभग ढाई हज़ार रुपए लिखा गया है। दुकानदार ने बताया कि ये सभी मशीनें पहले 30 से 50 प्रतिशत कम क़ीमत पर दुकानदारों को मिलती थीं। दुकानदार अपने ग्राहकों को भी एमआरपी पर छूट देते थे। अब दुकानदारों को उतनी छूट नहीं मिल रही है और वो ग्राहकों को भी छूट नहीं दे रहे हैं।
यहाँ बड़ा सवाल ये है कि कम्पनियाँ अगर एमआरपी से आधी क़ीमत पर थोक और खुदरा दुकानदारों को सामान दे रही हैं तो फिर एमआरपी का मतलब क्या रह गया है?
एमआरपी क़ानून तो क़ीमतों पर नियंत्रण के लिए बना था। कई चीज़ों पर एमआरपी अब मोटी क़ीमत वसूलने या वैध रूप से ब्लैक मार्केटिंग का आवरण बन गया है। एमआरपी पर क़ानून बनाना और लागू करना केंद्र सरकार का काम है। पर प्रधानमंत्री को चुनावी रैलियों से फ़ुर्सत मिले तब तो इन चीज़ों पर नज़र जाए।
'हुज़ूर पहले मैं'
‘पहले आप, पहले आप’ के लिए मशहूर लखनऊ को कोरोना ने ‘पहले मैं, पहले मैं’ का राग अलापना सिखा दिया है। कोरोना की जाँच करानी है तो पहले लाइन लगाइए। आपका नंबर आने में तीन चार दिन लग सकते हैं। सैंपल लेने के बाद रिपोर्ट आने में भी दो-तीन दिन लग सकते हैं। तब तक रोगी गंभीर अवस्था में पहुँच सकता है और उसे आईसीयू में भर्ती करना पड़ सकता है। और अस्पतालों में तो जगह है नहीं। इसलिए लोग हर जगह लाइन तोड़ने पर उतारू हैं।
घर पर इलाज करने के लिए डॉक्टरों को कई तरह की जाँच रिपोर्ट की ज़रूरत पड़ती है। एचआरसीटी इनमें से एक है। आप कोरोना रोगी हैं तो आपका एचआरसीटी होना मुश्किल है। ये फेफड़े के एक्स-रे जाँच की तरह है, जिसकी मशीनें अस्पतालों में ही होती हैं। कोरोना के मरीज़ों को इस जाँच के लिए समय नहीं दिया जा रहा है। ख़ून की जाँच जिसमें टीएलसी, सीआरपी और एलडीएच शामिल हैं, कोरोना के इलाज के लिए बहुत ज़रूरी है।
प्राइवेट अस्पताल और पैथोलॉजी सेंटर घर से सैंपल लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन तीन-चार दिनों तक का वेटिंग टाइम है। सैंपल लेने के बाद जाँच रिपोर्ट आने में भी दो -तीन दिन लग जाएँगे। ख़ून की जाँच आज कल आधुनिक मशीनों से होती है। सरकार पहले से तैयार होती तो यह इंतज़ाम मुश्किल नहीं था। पर यह हुआ नहीं।
एक तिलस्मी दवा रेमडेसिविर
रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए हाहाकार मचा हुआ है। प्राइवेट अस्पतालों में ख़ूब इस्तेमाल हो रहा है। सरकारी अस्पतालों में इसका इस्तेमाल बहुत कम हो रहा है। एक धारणा बन गयी है कि इससे कोरोना वायरस ख़त्म हो जाता है। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि इसे बनाने वाली कंपनी ने कभी दावा नहीं किया कि इससे वायरस ख़त्म हो जाता है। कंपनी ने सिर्फ़ इतना बताया कि इससे वायरस के विस्तार में थोड़ी कमी आती है जिससे अस्पताल में भर्ती रहने का समय दो-तीन दिन कम हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ ) ने कई महीनों पहले बता दिया था कि कोरोना के इलाज में इस दवा की कोई ख़ास भूमिका नहीं है। हमने कई वरिष्ठ डॉक्टरों से बात की। सबका कहना है कि ये दवा बेकार है। लेकिन कई प्राइवेट अस्पताल इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। अस्पतालों को ये इंजेक्शन क़रीब साढ़े चार हज़ार में मिलता है और अस्पताल 40 से 45 हज़ार रुपए में लगा रहे हैं।
एक रोगी को पाँच इंजेक्शन लगते हैं। इस हिसाब से अस्पताल मालामाल हो रहे हैं। इसी के चलते ब्लैक में ये 45 से 50 हज़ार में बिक रहा है। असल में वायरस को मारने वाली कोई दवा अभी तक बनी ही नहीं है।
जब अंदर होता है तूफ़ान
अब यह साबित हो गया है कि वायरस के चलते किसी की मौत नहीं होती है। जब वायरस हमारे शरीर में सक्रिय होता है तब उसे ख़त्म करने के लिए हमारा शरीर साइटोकिन नाम का एक रसायन बनाता है। कुछ रोगियों में वायरस ख़त्म होने के बाद भी ये रसायन बनता रहता है। हमारा फेफड़ा साँस से अंदर पहुँचने वाली हवा में से ऑक्सीजन को अलग करके ख़ून में डालता है। साइटोकिन रसायन बढ़ने पर फेफड़ा यह काम बंद करने लगता है। इसके चलते ख़ून में घुली हुई ऑक्सीजन कम होने लगती है। फेफड़े में ख़ून का थक्का जमने लगता है। इससे फेफड़ा फ़ेल होने लगता है। यही मौत का एक कारण बनता है। मेडिकल भाषा में इसे साइटोकिन स्टॉर्म कहते हैं और साधारण भाषा में निमोनिया।
इसका सटीक इलाज क़रीब सौ सालों से मौजूद है। अस्थमा और फेफड़े की अन्य बीमारियों के इलाज में इसका इस्तेमाल होता है। इस दवा को स्टेरॉइड कहते हैं। इसकी एक गोली 8 से 10 रुपए में आती है। 2020 के जून - जुलाई में ही कोरोना के इलाज में स्टेरॉइड की भूमिका साफ़ हो गयी थी। लेकिन कोरोना में स्टेरॉइड से इलाज का प्रोटोकॉल अब तक नहीं बन पाया है। नतीजा है रेमडेसिविर जैसी बेकार दवा की कालाबाज़ारी और मरीज़ों में अफ़रा-तफ़री। इसका जवाब कौन देगा, आईसीएमआर या केंद्र की सरकार।